नागरिकता संशोधन अधिनियम की सत्यता को तो पहले परखिए

भारत के विभाजन की पूर्व संध्या पर यह आशा की गई कि भारत और पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक नागरिकों को नागरिक अधिकार और सम्मान का जीवन मिलेगा। इसमें उनके धर्म और परंपरा के अधिकार शामिल थे। भारत ने तो इस मामले में अपना रिकार्ड ठीक रखा लेकिन पड़ोसी अफगानिस्तान, पाकिस्तान व बांग्लादेश की सरकारों ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं की। यही कारण है कि भारत में लगातार अल्पसंख्यकों की संख्या बढ़ रही है जबकि उक्त तीनों देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या तेजी से घटी है। ऐतिहासिक नेहरू-लियाकत समझौता, जिसे दिल्ली समझौता के रूप में भी जाना जाता है, उसमें साफ शब्दों में कहा गया है कि भारत तथा पाकिस्तान अपने अपने क्षेत्र के सभी प्रकार के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होगा। दिल्ली समझौते में कहा गया कि वे अपनी धार्मिक प्रथाओं का पालन करने के लिए स्वतंत्र होंगे।

 

 भारत ने अपना वादा निभाया, लेकिन हमारे पड़ोसी देश अपने वादे निभाने में विफल रहे। पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या 22 प्रतिशत से घटकर अब महज 07 प्रतिशत रह गयी है। इस आकड़ों में भी कमी आयी है। अद्यतन आंकड़ों में बताया गया है कि अब बांग्लादेश और पाकिस्तान मिलाकर वहां निवास करने वाले अल्पसंख्यकों की संख्या मात्र तीन प्रतिशत रह गयी है। हालांकि इस आंकड़े की किसी बड़े एजेंसी ने पुष्टि नहीं की है लेकिन इन देशों से पलायन करने वाले नागरिकों के नेता और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इसका दावा लगातार कर रहे हैं।

 

वहीं, भारतीय में अल्पसंख्यकों की आबादी 23 से बढ़ कर 30 फीसदी हो गयी है। यह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कमजोर स्थिति को उजागर करता है जबकि भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सीईसी और सीजेआई जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर मुस्लिम समुदाय के लोग रहे हैं लेकिन तीनों पड़ोसी देश अपने अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने में विफल रहे। इसलिए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की आवश्यकता उत्पन्न हुई। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत से सटे न केवल इस्लामिक देश हैं अपितु उनके संविधान में इस्लाम की रक्षा और सरिया कानून की वकालत की गयी है। ऐसे में वहां गैर-मुसलमानों का रहना संभव ही नहीं है।

 

अफगान संविधान का अनुच्छेद 2 इसे एक इस्लामिक राज्य बनाता है। इसी प्रकार बांग्लादेशी और पाकिस्तानी संविधान भी यही घोषणा करते हैं। भारत-पाकिस्तान की सीमा 3,323 किलोमीटर, भारत-बांग्लादेश की सीमा 4,096 किलोमीटर और भारत-अफगानिस्तान की सीमा 106 किलोमीटर है। हमारी भौगोलिक सीमा से सटे तीनों देशों की कानूनी व्याख्या अलग-अलग हो सकती है लेकिन ये तीनों देश इस्लामिक राज्य हैं। किसी भी इस्लामी राज्य या गणराज्य में रहने वाले मुसलमानों पर किसी भी धार्मिक आधार पर उन पर अत्याचार की उम्मीद नहीं की जा सकती हालांकि उस राज्य के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता । यह अधिनियम भारत की भूमि सीमा से सटे इन तीन देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान के लिए लाया गया एक बेहद मानवीय कानून है। सीएए इन धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनके सभी पिछले दस्तावेजों को नजरअंदाज कर उन्हें नागरिकता देकर इन सभी देशों में किए गए धार्मिक उत्पीड़न को खत्म कर देगा।

 

आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में समाप्त होने वाली 5 साल की अवधि में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 560 से अधिक मुस्लिम शरणार्थी भारत आए हैं। एक बात स्पष्ट करना उचित रहेगा कि मुसलमानों शरणार्थियों के लिए जो पहले से भारत में कानून बन रखे हैं उसमें कोई परिवर्तन या संशोधन नहीं किया गया है। सीएए की प्रकृति बिल्कुल अलग है। मुसलमान शरणार्थियों को पहले के कानून से उन्हें नागरिकता मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी लेकिन सीएए से हमारे पड़ोसी इस्लामिक मुल्क से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता मिलने में आसानी होगी, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय कानून धर्म के आधार पर भेदभाव करता है।

 

चूंकि, नागरिकता संशोधन अधिनियम स्थायी समिति, संयुक्त समिति आदि से होकर गुजरा जिससे लोकतांत्रिक संसदीय प्रक्रिया का सम्मान हुआ। अतीत में भी, युगांडा और श्रीलंकाई शरणार्थियों को नागरिकता देने के भारत के संप्रभु निर्णय पर धार्मिक आधार पर कोई सवाल नहीं उठाया गया और न ही 1971 में जब बांग्लादेशी शरणार्थियों को भारत में नागरिकता दी गई थी, तब कोई सवाल उठाया गया था। सीएए द्वारा संहिताबद्ध किए जाने वाले ऐसे मानवीय कार्यों पर अब ऐसे सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए। यह गलत धारणा है कि यह कानून अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ है। भारत के मुसलमानों को किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि वे यहां के नागरिक हैं और आगे भी बने रहेंगे, उन्हें कोई परेशान नहीं कर सकता।

 

सीएए भारतीय संविधान की भावना का प्रतीक है, इसलिए, भारतीय मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं है। इस कानून से किसी भी अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम भाई-बहनों को कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि यह कानून केवल कुछ विदेशियों को नागरिकता देता है, किसी भारतीय से उसकी नागरिकता छीनता नहीं है। किसी की नागरिकता छीनने का सवाल ही नहीं उठता। यह उन हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों को नागरिकता देता है जो बगल के देश में उत्पीड़न का सामना करने के बाद अपने-अपने देशों से आए हैं।

 

अधिनियम के तहत, नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 2(1)(बी) में प्रावधान है कि जो प्रवासी बिना पासपोर्ट, वीजा और यात्रा दस्तावेजों के भारत आते हैं या जिनके पासपोर्ट और वीजा की अवधि समाप्त हो चुकी है, उन्हें अवैध प्रवासी माना जाता है, उसमें संशोधन किया जा रहा है। तीन देशों अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले 06 श्रेणियों, अर्थात् हिंदू, सिख, जैन, पारसी, बौद्ध और ईसाई को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। नागरिकता अधिनियम की एक नई धारा 6(बी) में प्रस्ताव है कि यदि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोग निर्दिष्ट शर्तों को अपनाकर अपना पंजीकरण कराते हैं, तो वे भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकेंगे। इसके अलावा, यदि ऐसे प्रवासी नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 5 या तीसरी अनुसूची की शर्तों को पूरा करने के बाद नागरिकता प्राप्त करते हैं तो उन्हें उस तारीख से नागरिकता दी जाएगी जिस दिन वे भारत में आए थे। कई शरणार्थी 31 दिसंबर 2014 से पहले आए हैं, उन सभी को उनके आने की तारीख से नागरिकता मिल जाएगी।

 

इस प्रकार सीएए भारतीय नागरिकों की नागरिकता छीनने के लिए नहीं अपितु पड़ोसी देश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं बांग्लादेश में इस्लामिक उत्पीड़न से त्रस्त अल्पसंख्यकों को एक प्रकार का मानवीय सुरक्षा उप्लब्ध करा रहा है। इससे किसी को घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।

 

गौतम चौधरी