जल संरक्षण में मनमानी सुखा रही धरती के कंठ ! पानी चला पाताल को

देश भर में जल-जमीन और जंगल को लेकर जंग छिड़ी हुई है। जंग भी ऐसी कि जिसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़ रही है। जिस गति से धरती का पानी सूखता जा रहा है उससे लगता है आने वाले वर्षों में सिंचाई तो दूर पीने के पानी के भी लाले पडऩे वाले हैं। इसी तरह जंगलों में बाघ-बघेरों का बढ़ता कुनबा देखकर लगता है कि आने वाले वर्षों में वन्यजीवों के बीच संघर्ष कम नहीं होने वाला। यही हाल जमीन का है। आए दिन बांध-तालाब,ओरण, गोचर व अन्य क्षेत्र अतिक्रमण  की भेंट चढ़ रहे हैं। इसके बावजूद हमारे जिम्मेदार जनप्रतिनिधि व अधिकारियों की नींद नहीं टूट रही।  न्यायालय की फटकार और जनता की पुकार का उनपर कोई असर होता नहीं दिख रहा है।

बेंगलुरु में सूख गए बोरवेल

हाल ही देश के नामचीन आईटी सिटी बेंगलुरु में पानी की किल्लत से आमजन हलकान है। पानी के लिए वहां कोहराम मचा हुआ है। अंधाधुंध जलदोहन के चलते नलकूप और बोरिंग जवाब दे चुके हैं। यहां तक कि मुख्यमंत्री आवास की बोरिंग भी सूख चुकी हैं। पानी को सहेजने की हमारी प्रवृति ही सूख चुकी तो हालात ऐसे ही होने तय हैं। आज कर्नाटक में तो कल अन्य राज्यों में भी लोगों को इससे जूझना पड़ेगा ही। पानी को लेकर अरबों-खरबों रुपए का बजट हर साल अभियंता और ठेकेदार मिलकर सरकारों को जमकर चूना लगाते हैं लेकिन हकीकत यह है कि जमीनी स्तर पर ठोस काम नहीं हो पाता। जल संरक्षण के नाम पर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट और पानी की समस्या से निपटने के लिए कंटीजेंसी प्लान हर बार बनते हैं लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हो पाता। जल संरक्षण और पानी बचाओ के नारों से दीवारें पाट दी जाती हैं। कागजों में नलकूप और बोरिंग दिखा दिए जाते हैं। रैलिया और जलसंरक्षण के प्रति जागरुकता को लेकर संगोष्ठियां तक आयोजित की जाती हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। नेता, ठेकेदार और अधिकारियों की जेबें भरने के साथ ही प्रोजेक्ट और प्लान की इतिश्री हो जाती है।  जल संरक्षण में नहीं किसी का भी योगदान  देश-प्रदेश में कहीं भी परंपरागत जल ग्रहण क्षेत्र सुरक्षित नहीं है।

 बढ़ती आबादी और उसकी आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मानव को विरासत में मिली पूर्वजों की जलसंरक्षण व जलसंग्रहणन ढांचों को ही समाप्त करने की होड़ मची है। बांध, तालाब और जोहड़-पायतन की भूमि अतिक्रमण ने लील ली। नजीजन बारिश के पानी का संग्रहणन करने की प्रक्रिया संकट में आ गई। कुएं-बावड़ी सूखते गए और जल संकट गहराता गया। बड़ी आबादी के साथ जीव-जंतु और वन्यजीवों के हलक भी सूखते जा रहे हैं। बात वर्तमान की करें तो जैसे जैसे गर्मी परवान चढ़ेगी, देश के तमाम शहर बेंगलुरु की तर्ज पर पेयजल संकट का शिकार होते जाएंगे। हरेक व्यक्ति के जेहन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भू-जल स्तर लगातार क्यों नीचे जा रहा है। सवाल का जवाब भी सभी जानते हैं लेकिन जल बचाने में योगदान के प्रति उनकी सोच ही नहीं है। यह सब जानते हैं कि पानी का उत्पादन नहीं हो सकता और सिर्फ बारिश के पानी के संरक्षण से ही पेचजल संकट से बचा जा सकता है।

प्राचीन परंपरा को जीवंत कर भागीरथ बना समाज

 इस सबके विपरीत मध्यप्रदेश के झाबुआ में एक समाज ने जल संरक्षण की अनूठी मिसाल पेश कर सबका ध्यान खींचा है। बेंगलुरु से करीब 1400 किमी दूर मध्यप्रदेश के झाबुआ के स्थानीय लोगों ने प्राचीन परंपरा हलमा को पुनर्जीवित करते हुए अपने क्षेत्र के 108 तालाबों का निर्माण कर डाला। झाबुआ जो कभी पानी की किल्लत झेल रहा था, उसी इलाके के स्थानीय लोग एक ही वर्षाकाल में 1500 करोड़ लीटर तक पानी सहेज रहे हैं। गौरतलब यह है कि यहां के लोगों ने न केवल पानी के मोल को समझा बल्कि उसके लिए हाडतोड़ मेहनत भी की। लेकिन ऐसे प्रयास बेंगलुरु व देश के अन्य इलाके जहां पीने के पानी का भीषण संकट है वहां नहीं हुए। बोरबेल खोदकर जमीन के गर्भ से पानी का बेहिसाब दोहन करना कितनी समझदारी मानी जा सकती है। देश व प्रदेश में बारिश के जल का संरक्षण करने की कितनी ही योजनाएं चल रही हैं जिन पर केन्द्र व राज्य सरकारे प्रतिवर्ष अरबों रुपए खर्च कर रहे हैं। इन सरकारी आंकड़ो पर विश्वास किया जाए तो देश में हर साल इतना पानी बचाया जा सकता है कि कहीं भी जल संकट का नाम ही नहीं रहे। महानगरों की गगनचुंबी इमारतों जल संरक्षण के जरूरी इंतजाम करने की बाध्यता भले ही हो लेकिन ईमानदारी से देखा जाए तो सब जगल पोल ही निकलेगी।

जल है तो कल है…

 इस बात से सब वाकिफ हैं कि जल है तो कल है लेकिन इस पर अमल नहीं किया जाता। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर साल खरबों लीटर पानी व्यर्थ बह जाता है। जयपुर की लाइफ लाइन कहे जाने वाला रामगढ़ बांध दशकों से सूखा पड़ा है और इसके जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण की तरफ जिम्मेदारों का ध्यान नहीं है। यहां तक कि न्यायालय के आदेशों की भी ईमानदारी से पालना नहीं की जाती। नदियों के जल विवाद को लेकर राज्यों के बीच टकराव के किस्से भी नए नहीं हैं। सरकारें तो इस दिशा में काम करती रहेंगी लेकिन आम आदमी और जिम्मेदार इस दिशा में क्या कर सकते हैं, पानी बचाने में हमारा क्या योगदान हो सकता है, यह सवाल देश के हर नागरिक को स्वयं से पूछना ही चाहिए। देश-प्रदेश में पानी की हर समस्या का जवबा हमें अपने अंदर ही मिल जाएगा। बस ईमानदार सोच के साथ काम करने की जरूरत है।

हरिओम शर्मा