शक्ति स्वरूपा महिष मर्दिनी

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देवी दुर्गा ही अपने विविध रूपों में विभिन्न नामों से प्रतिष्ठित हुईं। ‘महिषासुर’ के संहार हेतु वे देवों की पूंजीभूत शक्ति के प्रतीक ‘महिषासुर-मर्दिनी’ के रूप में प्रकट हुई तो दुर्गम के त्राण से मुक्त कराने को शतनेत्र युक्त दुर्गा के नाम से। चण्डमुण्ड राक्षसों का वध करने के कारण ‘चामुण्डा’ से जानी गई तो शुंभ-निशुंभ दुष्टों का हनन करने के लिये मुक्ति दायिका विंध्यवासिनी के रूप में। अंधकासुर के वध हेतु रक्त की एक बूंद भी पृथ्वी पर न गिरे इसलिये योगेश्वरी का रूप धारण किया तो दक्ष-यज्ञ विध्वंस के समय वीरभद्र का साथ देने वाली महाकाली का रूप लिया।



महाभारत काल से लेकर वर्तमान समय तक दुर्गा पूजा की निरंतर परम्परा प्राप्त होती है। इसी के अनुरूप प्राचीन काल से ही प्राचीन मंदिरों की भित्तियों पर उनकी अनेक मूर्तियां बनीं और उनका विस्तृत लक्षण विधान भारतीय प्रतिमा विज्ञान में निर्धारित किया गया। दो प्रकार की प्रतिमाएं दुर्गा की प्राप्त होती हैं- सौम्य एवं उग्र। सौम्य रूप में उनकी मूर्तियां, पार्वती, गौरी अथवा उमा के रूप में शिव के साथ उमा-महेश्वर, कल्याण सुंदर रूप में अथवा स्वतंत्र रूप में प्राप्त होती है। ज्योति तथा जीवन के भद्र पक्ष की प्रतीक कात्यायनी की प्रारंभिक मूर्तियां मथुरा संग्रहालय में द्विभुजी, चतुर्भुजी तथा षटभुजी रूप में संग्रहित हैं। ये सभी कुषाणकालीन हैं। इन सभी में दुर्गा बाएं हाथ से महिष को गर्दन में बांह डालकर ऊपर उठाए हैं और दायां हाथ महिष की पीठ पर है। महिष आगे के दोनों पैर ऊपर उठाए हैं व पिछले पैरों पर खड़ा है। इन सभी में दुर्गा सामान्य रूप से ‘अभंगÓ तथा ‘समपाद-स्थानकÓ में खड़ी हैं।


गुप्तकाल में तथा पूर्व मध्यकाल की प्रतिमाओं के अंकन में महत्वपूर्ण अंतर प्राप्त होता है। पूर्व मध्यकाल तक आते-आते अधिकांश महिषासुर-मर्दिनी प्रतिमाओं में दुर्गा को सिंहारूढ़ तथा महिष का त्रिशूल से भेदन करते हुए ‘आलीढ़Ó अथवा ‘प्रत्यालीढ़Ó स्थानक में रूपंाकित किया गया। एक पैर लगभग पांच ताल की दूरी पर प्रसारित और दूसरा पैर कुंचित हो। ‘आलीढ़-स्थानकÓ में दायां चरण प्रसारित तथा बाया संकुचित होता है, (जबकि ‘प्रत्यालीढ़Ó में बायां जानु।) नाट्यशास्त्र तथा शिल्प शास्त्रों के अनुसार जानु वाला पैर धरती पर ही रहता है।


मूर्तिकला में यही अंतर पाया जाता है कि वह आकाश में ऊध्र्वजानु के रूप में ऊपर उठा हुआ प्रदर्शित किया जाता है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में नृत्यांगनाएं महिषासुर मर्दिनी का प्रदर्शन, मूर्तिकला में प्रदर्शित महिषासुर मर्दिनी प्रतिमाओं के अनुरूप करती हैं। मथुरा संग्रहालय में संग्रहित एक गुप्तकालीन प्रतिमा में धड़विहीन दुर्गा अर्धपर्यकांसन में सिंहासीन है, जिसमें दाएं हाथ में अधोमुखी त्रिशूल है और महिष अनुपस्थित हैं।


गुप्त काल में भीटा से प्राप्त द्विभुजी देवी प्रारंभिक उदाहरणों में महत्वपूर्ण है। बायां हाथ कटि पर रखे तथा दाएं हाथ में पकड़े त्रिशुल से महिषासुर का वध करने को तत्पर यह मूर्ति महत्वपूर्ण है। उदयगिरि (विदिशा) की गुफा क्रमांक 6 में अंकित द्वादशभुजी दुर्गा तथा गुफा क्रमांक 17 में प्राप्त महिषासुरमर्दिनी भी उल्लेखनीय है। देवगढ़, भूमरा तथा महुआ से प्राप्त तीनों उदाहरण भी इसी मुद्रा में प्रदर्शित हैं। विशालकाय महिष की पूंछ को बाएं मुष्टिहस्त द्वारा पकड़कर एक ही झटके में धूल-धूसरित करके, दाएं हाथ में पकड़ त्रिशूल से उसका प्राणहरण करती हुई खड़्ग व ढालयुक्त, देवगढ़ की तेजस्वी महषिमर्दिनी वीररस का साकार रूप प्रतीत होती है।


सिरपुर (रायपुर) से प्राप्त अष्टभुजी दुर्गा समकालीन उदाहरणों में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। सामान्यत: प्रदर्शित केवल एक ही पैर से दैत्य को न कुचल कर शक्तिस्वरूपा यहां दोनों पैरों से कुचलते हुए प्रदर्शित हैं। जजपुर (कटक) से भी एक द्विभुजी मूर्ति प्राप्त हुई है जिसे पूर्व गुप्तकालीन बताया गया है।


बादामी की गुफा क्रमांक 1 से चतुर्भुजी देवी ऊपर के दोनों हाथों में चक्र एवं शंख धारण किए महालक्ष्मी रूप में प्रदर्शित हैं।


नवदुर्गा का भविष्य पुराण में वर्णित रूप नौ पृथक-पृथक देवियों के रूप में सर्वप्रथम बंगाल के दीनाजपुर जिले में पोरसा नामक स्थान से (वर्तमान में राजशाही संग्रहालय में संग्रहित) प्राप्त हुआ है। इसमें मध्य भाग में मूल प्रतिमा के रूप में अष्टदशभुजी महिषासुर मर्दिनी (10-11वीं शती) है और इसके चारों ओर आठ षोडशभुजी दुर्र्गाएं बज्र, धनुष बाण, तलवार, दण्ड, ध्वज, नागपाश से युक्त प्रदर्शित हैं।


आमेर संग्रहालय में राजस्थान के टोंक जिले के नगर नामकस्थान से महिषासुरमर्दिनी की प्रथम शती ई.पू. की मृण मूर्तियां सुरक्षित हैं। राजस्थान से भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियां विभिन्न स्थानों से मिली हैं। नीलकंठेश्वर मंदिर, परनगर (अलवर) से प्राप्त दशभुजी देवी मानवरूप महिषासुर के मस्तक पर त्रिशूल से प्रहार कर रही है। केजद तथा कल्याणपुर (राजस्थान) से प्राप्त दो लघुचित्रों में देवी वाहनरहित किन्तु मानव रूप महिषासुर के साथ प्रदर्शित हैं। अम्बिका माता मंदिर, जगत (राजस्थान) में अष्टभुजी दुर्गा (10वीं शती), महिष का वध करती हुई प्रदर्शित हैं जिनका कटा हुआ सिर एक ओर पड़ा हुआ है तथा धड़ में से मानवारूप असुर भी प्रकट होते हुए दिखाया गया है। राजस्थान में महिषामर्दिनी प्रतीक इतना लोकप्रिय हुआ कि जैन सम्प्रदाय में भी इसकी पूजा सूच्चिका अथवा सच्चिय माता के रूप में की जाने लगी।


खजुराहों से छ:, आठ, बारह तथा बीस भुजी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। जाहुर (होशियारपुर, पंजाब) से दो पशुमुखाकृति युक्त दुर्लभ महिषमर्दिनी मिली है। प्रथम मंदिर की केंद्रीय रथिका में अंकित हैं जिसमें षटभुजी तथा त्रिमुखी देवी त्रिशूल से भैंस के धड़ का छेदन कर रही हैं और जिसमें से मानव मुखाकृति प्रकट हो रही है। छ: हाथों में तलवार, त्रिशूल, कोई वस्तु व धनुष है।


द्वितीय समानान्तर प्रतिमा, इसी क्षेत्र से दशभुजी दुर्गा की है, किन्तु इसमें नारी के केन्द्रीय मुख के पाश्र्व मुख वराह तथा सिंह के हैं। यह विष्णु के उस अथवा बैकुण्ठ मूर्ति विश्वरूप का स्मरण कराता है, जिसमें केंद्रीय पुरुष मुख के दोनों ओर वराह तथा सिंह मुख प्रदर्शित हैं। भानपुरा संग्रहालय मंदसौर तथा रामवन, संग्रहालय सतना में विष्णु की विश्वरूप मूर्तियां संरक्षित हैं। देवी अपने हाथों में शंख, मुंड, धनुष, महिष का कटा सिर तथा पूंछ आदि पकड़े हैं।

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