नैनीताल के चेहरे पर बुढ़ापे की झुर्रियां

नैनीताल,  एक खूबसूरत हिल स्टेशन, जिसे अंग्रेजों की बात करें तो सबसे पहले इसे शिकारी पीटर बैरन ने देखा था। तब यह आज की तरह न भीड़भाड़ वाला नगर था और न ही हिल स्टेशन बल्कि एक विशाल स्वच्छ झील के चारों ओर का घना देवदार का जंगल ही इसकी पहचान थी, जिसका थोकदार नरसिंह नामक व्यक्ति था।  1841 मे बैरन ने सोचा भी नहीं होगा  कि नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण नैनीताल के चेहरे पर अल्प समय में ही कंक्रीट के जंगल के रुप में बुढापे की झुर्रियां नजर आने लगेंगी।


हर साल हम नैनीताल का जन्म दिवस मना कर, केक काट कर खुशियाँ मनाते है पर कटु सच्चाई यह है कि असीमित विकास के नाम पर हमनें उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है और खतरे के मुहाने पर बैठा नैनीताल आज प्राकृतिक व मानव जनित विभीषिकाओ से जूझ रहा है।


   बैरन ने कूटनीति अपना कर नरसिंह से नैनीताल की जमीन खरीदी और उसे पांच रुपये माह पर यहाँ का पटवारी नियुक्त कर दिया था। इस जगह को खोजने के बाद उसने  आगरा अखबार और देहली गज़ट  नामक अखबार में विज्ञापन देकर अंग्रेजों को इस जगह के बारे मे बताया था। तब दो रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से लीज पर इसे बसाया गया था। तब नैनीताल के  सौन्दर्य को बनाए रखने के लिए उसने कुछ नियम कायदे बनाए थे, जिनका सख्ती से पालन करना जरुरी था  पर आजादी के बाद सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया।  नगरपालिका के रिकार्ड देखने से पता चलता है कि अंग्रेज नगर के प्रति अतिरिक्त रुप से सावधान थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि औपनिवेशिक शासन के बावजूद उनका शासन आज से  कही बेहतर था।


नैनीताल की पहचान उसकी झील से है। झील है तो ही नैनीताल है। लोगो ने इस झील से बहुत कुछ पाया है,  चाहे वह जीविका का साधन हो या मनोरंजन का परंतु प्रगति, उपेक्षा और आधुनिकीकरण के नाम पर झील ने बहुत कुछ खोया है। अपने जन्म से लेकर आज तक न जाने कितना पानी इस झील से बह चुका है, परंतु इसके सहारे जीवित रहने वालों ने इसकी पीड़ा व हताशा को न कभी समझा और न ही उस ओर कभी  गंभीरता से ध्यान दिया है।


समुद्र सतह से लगभग 1938 मीटर की ऊंचाई पर बसे नैनीताल को देखकर इसके प्रारंभिक अद्भुत रुप व आज इसके चेहरे पर छाई कुरुपता को देखकर इसकी अंतहीन पीड़ा को आसानी से समझा जा सकता है। नगर के विकास का ढिंढोरा पीटने वालों ने ही नगर का शोषण करने मे सक्रिय भूमिका अदा की है। इस शोषण के अनेक रूप है, जिसे आसानी से देखा समझा जा सकता है और जिसके चलते नैनीताल का परिवर्तन चक्र तेजी से बदल रहा है और जिसकी परिणति आने वाले समय में इस नगर की पहचान को विलुप्त कर सकती है।


विडम्बना है कि जो स्थान लाखों साल से पारिस्थितिक भूगर्भिक हलचलों के मध्य भी सुरक्षित बना रहा, उसे हमने डेढ सौ साल से भी कम समय में कंक्रीट के जंगल में  बदल कर संकट के कगार पर पहुंचा दिया है। आजादी के बाद जिन लोगों ने पहाड़ के विकास का कथित ठेका लिया,  उनहोंने ही पहाड़ को लावारिस बना छोड़ा है। नेता हो या नौकरशाह,  ठेकेदार हो या व्यापारी सभी ने पहाड़ को मनमाफिक लूटा है।


अपार अनियंत्रित अवैध निर्माणों का दबाव, असुरक्षित सड़कें व पर्यटन विस्तार के नाम पर सैलानियों की भारी भीड़ नगर की वास्तविक पहचान को लुप्त कर रही है। इसका सीधा असर झील के प्राकृतिक स्वरुप व नैनीताल की कमजोर पहाडियों पर पड़ रहा है। आवास व होटल निर्माण के लिए असंतुलित गति से हरे पेड़ों को काटने व पहाड़ खोदने का नतीजा बरसात में भूस्खलन व झील मे मलबा गिरने के रुप मे सामने आता है।  हिमालय के जिस भूगर्भिक क्षेत्र में नैनीताल बसा है , वह काफी संवेदनशील है क्योंकि हिमालय का पूरा निचला भाग भूकंपीय क्षेत्र है जो जोन चार व पांच में आता है। यहां हो रही भूगर्भिक हलचलें नैनीताल में हो रहे निरंतर भूस्खलन, पहाड़ के टूटते रहने, सुखाताल बनने और नैनी झील का जल स्तर घटने, उसके फैनो की लंबाई बढऩे से साफ दृष्टिगोचर होता है। अंग्रेजों के बनाए नियम हिन्दुस्तानी साहबों ने ताक पर रख दिए। अंग्रेजों ने झील और पहाड़ी को बचाए रखने के लिए 70 छोटे छोटे नाले बनाए थे पर आज इन नालों के ऊपर भवन और  होटल बन गए है। जो नाले बचे है उनके रखरखाव पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। जिस जगह पहाड़ खोदना मना था, आज वहां  स्थानीय प्रशासन व जिम्मेदार विभागों की छत्र छाया मे अवैध निर्माणों की श्रृंखलाएं पनप चुकी हैं। नगरपालिका और प्राधिकरण भी अपनी  जिम्मेदारी से मुंह मोड़ते मूक दर्शक ही साबित हुए है, पर इस तरह की शुतुरमुर्गी मानसिकता से आने वाले खतरों की तीव्रता तो कम नहीं हो जाती।


आज नैनीताल में पर्यटन के नाम पर पर्यटकों की भीड़ है। मुझे याद है बचपन में जब मैं नैनीताल अपनी बुआ के वहां जाया करता था,  तब यह एक बहुत शांत स्थल था। न पर्यटकों की इतनी भीड़ थी और न ही गाडिय़ों की रेलमपेल। नैनीताल को इस अति पर्यटन से बचाना जरुरी है क्यो कि ऐसे मे नगर का नियोजित विकास और नियोजित पर्यटन संभव नहीं है। आज हर कोई नैनीताल आना  चाहता है। साल भर सैलानियों की भारी भीड़। सबके वाहनों को समर्पित और घंटो का जाम। मालरोड पैदल चलने वालों के लिए असुरक्षित बन गई है। लोअर माल रोड धंस रही है, पर चिंता किसे है?


अंग्रेज नैनीताल के रखरखाव और विकास के प्रति अतिरिक्त रुप से सावधान थे। तब मकान बनाने के नियम बहुत सख्त थे। जब मोटरें चली तो डांठ तक ही जाती थी। 1922 से पहले डांठ तक बैलगाड़ी आती थी। माल रोड पर मोटर चलाने की अनुमति तब नहीं  थी। नगर का परिवहन हाथ के रिक्शे,  कंडी, डांडी हुआ करते थे , जो आज देखने को नहीं  मिलते। अब तो सडक पर वाहनों की भरभार है। पहाडियों पर पेड़ कम मकान ज्यादा है।


वर्ष 1849 से 1950 के बीच जितना निर्माण नैनीताल में हुआ,  उससे कई गुना ज्यादा पिछले पचास सालों में हुआ। कई बड़े होटल, रियाहशी भवन और बहुचर्चित रोप वे का निर्माण  इन्ही वर्षों में हुआ। अनगिनत अवैध निर्माणों के बोझ से यहाँ की पहाडिय़ों पर जबरदस्त दबाव पड़ा है।


जिम्मेदार विभाग निर्माण कार्यों को रोकने मे पूरी तरह से नाकाम रहे है और नगर की इस कुरुपता को मूक दर्शक बन देखते रहते है। विकास की इस असंतुलित गति ने नैनीताल की आयु पर एक प्रश्न चिन्ह तो लगा ही दिया है। इसमे दो राय नहीं कि आज नैनीताल खतरों से घिरा है। सबसे बड़ा खतरा भूकंप और भूस्खलन का है। यदि भविष्य में कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आई तो नैनीताल की दुर्दशा को आसानी से समझा जा सकता है।