जीवन निष्कर्ष नहीं है आत्महत्या

सृष्टि का नियम है कि जो संसार में आया है उसका अन्त अवश्य होगा,किन्तु इस नियम को मनमाने ढंग से प्रयोग करना किसी भी दूष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संसार में प्राणी मात्र के जीवन का उद्देश्य ही सेवा और कर्म में छिपा है, जिससे छुटकारा पाने के लिए मौत को गले लगाना किसी भी प्राणी के उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक ही कहा जाएगा।
एक मित्र समाज को अपनी कलाकृतियों के माध्यम से जीवन का उपदेश प्रदान करते  करते न जाने किस भावना में बह गए और अपनी इहलीला समाप्त कर ली। युवावस्था मेें ऐसा होना स्वाभाविक ही है कि प्रेम की भावुकता में, बेरोजगारी या अन्य जीवन की विषमताओं में प्रारम्भिक असफलताओं से त्रस्त होकर आत्महत्या करके अपनी इहलीला समाप्त कर ली जाय, किन्तु एक चिन्तक के रूप में समाज को अपनी सेवाएं अर्पित करने वाले व्यक्तित्व के लिए ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती, कि वह जीवन से निराश होकर आत्महत्या जैसा कठोर पग उठाने हेतु विवश होगा।


आत्महत्या के अनेक कारण समाज में दृष्टिगत होते हैं। गृहक्लेश, नौकरी न मिलना, प्रेम प्रसंगों में असफलता, जीवन के प्रति हताशा आदि इसके प्रमुख कारणों में गिने जाते हैं, किन्तु क्या जीवन का नामकरण नौकरी, प्रेम  प्रसंग अथवा धरेलू जिम्मेदारियों के निर्वहन तक के लिए ही है, यह ऐसा प्रश्न है कि जिस पर गहन चिन्तन किया जाय तो आत्महत्या जैसा शब्द ही मानवीय शब्दकोष में न रहे। आजकल देखा जा रहा है कि समाज में ज्यों ज्यों आत्मीयता दम तोड़ती जा रही है त्यों त्यों मानव समाज से विलग होता जा रहा है तथा वह स्वयं में एकाकी जीवन जीने हेतु अभ्यस्त हो रहा है। यही कारण है कि उसका चिन्तन एक पक्षीय अधिक रहता है, जो उसे समाज एवं संसार का मर्म नहीं जानने देता। इसके विपरीत समाज में जहां  जहां सम्बन्धों में प्रगाढ़ता है तथा सामाजिक सम्बन्ध आत्मीयता से भरे हैं, वहां व्यक्ति एक दूसरे के निकट  रहकर एक दूसरे की आत्मिक एवं मानसिक भूख मिटाता है तथा जीवन दर्शन से अवगत कराता है, जिनके रहते समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण बना रहता है तथा स्वस्थ चिन्तन का पक्ष प्रबल रहता है।


यूं तो आत्महत्या के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु निराशा व कुंठा आत्महत्या का मार्ग अधिक प्रशस्त करते हैं, ऐसी स्थिति में व्यक्ति की चिन्तनशक्ति समाप्त हो जाती है तथा उसे जीवन का कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता, जिस कारण वह अर्थ और अनर्थ के मध्य कोई अन्तर नहीं रख पाता है तथा मौत को गले लगाकर अपने शरीर का अन्त करने हेतु तत्पर हो जाता है।


आत्महत्या जैसे कठोर कदम को उठाने से पहले यदि व्यक्ति कुछ पल चिन्तन कर ले तथा आत्महत्या  का विचार मन में आते ही वह अपने किसी मित्र को अपनी समस्या से अवगत कराएं अथवा स्वाध्याय करके उत्कृष्ट साहित्य पढं़े अथवा अन्य किसी रचनात्मक कार्य में भूमिका का निर्वाह करें, तब संभव है कि आत्महत्या जैसी कुरीति से छुटकारा पाया जा सकता है।


क्योंकि इस निष्कर्ष में कोई भी दो मत नहीं हो सकता कि आत्महत्या जीवन का निष्कर्ष नहीं है। यह कायरता का पर्याय है, जो व्यक्ति को कमजोर सिद्ध करती है तथा निराशा न कुंठा का पर्याय बताते हुए व्यक्ति की जीवटता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।