भारतीय संस्कृति

संस्कृति शब्द ‘कृधातु’ से भूषण के अर्थ में ‘सुट’ का आगम करने पर बना है, जिसका अर्थ है- भूषण भूत सम्यक कृति या चेष्टा।


अर्थात् जिन क्रियाओं द्वारा मानव अपने जीवन में उन्नति कर लौकिक और परालौकिक अभ्युदय को पाता है, उसे हम संस्कृति कहते हैं या इस प्रकार कहें मनुष्य में लौकिक-परालौकिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक देहन्द्रिय मन बुद्धि मद मोह आदि की भूषण भूत सम्यक् चेष्टाएं एवं हलचलें होती हैं, वह संस्कृति कहलाती है।


संस्कृति हमारे जीवन-यापन की एक विधि है, जो शताब्दियों से समाज पर छायी हुई है। जिसमें हमने जन्म लिया, पल-बढ़कर बढ़े हैं। इसी कारण जिस समाज-समुदाय या समूह वर्ग में हम उत्पन्न हुए पालन-पोषण हुआ पले-बढ़े उसकी संस्कृति-संस्कार हमारी संस्कृति हैं। उसकी जो विशेषतायें हैं वह हममें और हमारे समाज के कण-कण में व्याप्त हैं। जिनका प्रभाव हमारे आचार-विचार, रहन-सहन, आवागमन, भाषा, बोलचाल पर स्पष्टïत: देखा जा सकता है। यद्यपि हम अपने जीवन में तरह-तरह के संस्कारों और अनुभवों का संचय करते हैं, जो बाद में हमारी संस्कृति के अंग बन जाते हैं और हम जिन्हें मृत्यु के साथ ही अपनी अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाते हैं। इसीलिए संस्कृति अक्षुण्य मानी जाती है, जो सभी में व्याप्त है।


जिसके उद्ïभव और विकास में सदियों का अनुभव लगा है। संस्कृति मानव द्वारा एकीकृत शैली से प्राप्त आचरण का ही रूप है। जो समाज के सदस्यों की विशेषता है तथा उनके आचार-विचार से परिलक्षित होती है या इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य जीवन पद्धति में जो कुछ अर्जित करता है वही उसकी संस्कृति है। संस्कृति दीर्घकाल तक संचित रहने वाले आदर्शो का स्वरूप होती है, क्योंकि संस्कृति गतिशील है।


गतिशीलता का गुण सभी संस्कृतियों में पाया जाता है, लेकिन प्रत्येक में परिवर्तन गति प्रकृति तथा उसके क्षेत्र में भिन्नता पायी जाती है, जिसका प्रभाव उसमें आने वाले समाज पर होता है और जो विशेषतायें उस पर छोड़ती है, वही उस संस्कृति के लक्षण होते हैं।


विभिन्न संस्कृतियों को मानने वालों के आचार-विचार, रूप-गुण, वेश-भूषा आदि में कुछ भिन्नताएं होती है, जिनसे उनकी अलग पहचान होती है। विश्व संस्कृति के अंर्तगत मानव को संचालित करने वाले वे सभी सामाजिक राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक तथ्य सम्मिलित किये जाते हैं, जो उसको निर्देशित करते हैं या उस पर अपना प्रभाव डालते हैं।


भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता उसकी अनेकता में एकता एवं इसकी ग्रहणशीलता रही है। विश्व में न जाने कितनी संस्कृति-सभ्यतायें उपजीं, पनपीं और नष्टï हो गयीं या दूसरी किसी में विलीन हो गयीं, लेकिन भारतीय संस्कृति अक्षुण्य होने के कारण अपनी मौलिकता को बनाये रख सकी।


यही कारण है कि यह ईसाई और मुस्लिम संस्कृति के प्रसार से प्रभावित न होकर अपनी मौलिकता, अटूटता को बनाये रही तथा सभी को अपने में आत्मसात्ï कर लिया, जिसका प्रमुख कारण इसका अध्यात्म दर्शन और धार्मिक आस्था तथा पूजा-पद्धति पर आधारित होना है।


भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ-चतुष्ट्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
 ये पुरुषार्थ चतुष्ट्य-धर्म अर्थ, काम और मोक्ष हैं, जिसके फलस्वरूप ही भारतीय संस्कृति भारत का एक ऐसा संगम स्थल है, जहां विभिन्न भाषा-धर्म और सम्प्रदायों को मानने वाले परस्पर मिलकर एक हो जाते हैं।


भारत के सम्बन्ध में तो निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार से एक रेशमी धागा विभिन्न प्रकार के फूलों तथा मणियों को पिरोकर एक सुन्दर हार निर्मित कर देता है, जिसकी प्रत्येक मणि तथा पुष्प एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बनाये रखते हुए अपने सौन्दर्य से दर्शकों को मन्त्रमुग्ध कर देते है। ठीक उसी तरह भारतीय संस्कृति विभिन्न भाषा-धर्म और सम्प्रदाय के लोगों को एक सूत्र में बांधे हुए है।


भारतीय संस्कृति बौद्ध और जैन धर्म द्वारा तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, श्रीलंका, ब्रह्नïा, वियतनाम, थाइलैण्ड, जाबा, सुमात्रा, बाली, मारीशस, सूरीनाम एवं फिजी तक फैली है। जहां इसके लक्षण दिखलायी पड़ते हैं। इन देशों के रहने वालों के धर्म, परम्पराओं, सामाजिक रीति-रिवाजों आदि पर भारतीय संस्कृति की विशेषतायें दृष्टिï-गोचर होती हैं।
यद्यपि इन देशों में भी अनेक समस्यायें भारत की ही भांति व्याप्त हैं। तथापि भारतीय संस्कृति की अमूल्य विशेषताओं के कारण वह उससे लाभान्वित हो रहे हैं।