कहानी- व्यापार

नीचे पोर्टिको में कार खड़ी करके जब मोहन रेलिंग के सहारे सीढिय़ां चढऩे लगा, तब अकस्मात दुर्गा को देखकर वह ठगा सा  रह गया। दुर्गा उसके सहपाठी अजय की छोटी बहन थी। कुछ ही समय पहले उसने दुर्गा को धूल में खेलने वाले मामूली बच्ची के रूप में देखा था। अब वह एक ऐसे कमल-पुष्प के समान थी, जिसके अंगों की पंखुडिय़ां यौवन रूपी सूर्य के प्रकाश से पूर्णतया खिल गई हों। दुर्गा का यह रूप उसकी कल्पना में कभी नहीं आया था। उसे देखकर मोहन के मन में भावनाओं का एक तूफान उठ खड़ा हुआ। उसने क्षण भर में दुर्गा के उस रूप का भी अनुमान लगा लिया जो आधुनिक प्रसाधनों से कई गुना आकर्षक बन सकता था।
जीवन में मोहन की दृष्टि सदा व्यापारी की रही थी। जबकि अजय एक आदर्शवादी छात्र था। वह पढऩे में मेहनत करता था। इस कारण वह कक्षा में सदा प्रथम रहता था। मोहन का मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता था। वह वैसे भी स्कूली शिक्षा को बेकार समझता था। इसलिए किसी तरह घिसट-घिसट कर पास होता था। अजय को उच्च शिक्षा के बावजूद कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। घर की हालत पिता की मृत्यु के बाद एकदम खराब हो गई थी। तब मोहन ने ही प्रयत्न करके उसे क्लर्की दिलवा दी थी। मोहन ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। इसके बावजूद वह लाखों रुपए कमाकर बड़ा आदमी बन गया था। लोगों को पता नहीं था कि मोहन कौन-सा धंधा करता था। परंतु मोहन का ज्यादातर समय अफसरों, नेताओं आदि से मुलाकातों, होटलों, क्लबों और पार्टियों में बीतता था। पैसा वह पानी की तरह बहाता था। अपने घर पर भी व आये दिन छोटी-बड़ी पार्टियां देता रहता था। इसी से उसका नाम राजनीति में भी आने लगा था। वह कई समाजसेवी संस्थाओं का अध्यक्ष था। युवक-युवतियों का वह आदर्श हीरो था। उसके साथ एक से एक खूबसूरत युवतियां देखी जा सकती थीं।
दुर्गा ने एक हल्की स्मित बिखेरते हुए कहा- मोहन भैया! नमस्ते ! मुझे  पहचाना नहीं क्या?
मोहन ने अपनी व्यापारी बुद्धि से सचेष्ट होकर आत्मीयता जताते हुए उत्तर दिया- अरे दुर्गा तू तो इतनी जल्दी बड़ी हो गई कि पहचानी नहीं जाती। सब ठीक तो है न?
हां, किसी तरह चल रहा है। मां का तो बुढ़ापा है। भैया भी इस वक्त बीमार हैं। उन्हें कई दिनों से बुखार   छोड़ ही नहीं रहा है। पहले किसी को बताया नहीं। यों ही दफ्तर जाते रहे। अब खाट पर पड़े रहते हैं।  डॉक्टर की दवा खाते नहीं। कहते हैं ठीक हो जाएगा। मुझसे यह सब देखा नहीं जाता। वे जैसे मेरे ही कारण अंदर ही अंदर घुट रहे हैं। अगर आप मुझे कहीं नौकरी दिलवा दें, तो आपका अहसान कभी नहीं भूलूंगी। दुर्गा भावावेश में यह सब एक ही सांस में कह गई।
मोहन ने स्नेह से उसका कंधा थपथपाकर कहा- वाह दुर्गा, तू तो जैसे पागल हो गई है। भला अपनों के लिए कुछ करना अहसान होता है क्या? चल, पहले अंदर चलकर बात करते हैं फिर तुम्हारे घर अजय से मिलने चलूंगा। मैं कोई गैर हूं क्या? मुझे इधर तुम्हारे यहां जाने का वक्त नहीं मिला लेकिन तुम लोग क्या मेरे पास नहीं आ सकते थे?
इस सहानुभूति से दुर्गा की आंखें डबडबा उठीं। उसने भरसक अपने को दृढ़ बनाने की कोशिश की। परंतु इस कोशिश में वह और कमजोर होती गई और उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। मोहन मनोवैज्ञानिक तो नहीं, परंतु व्यवहार पक्ष का खासा जानकार था। यह उसके व्यापार का प्रमुख अंग था।  उसने दुर्गा की इस कमजोरी को अपने आचरण से और बढ़ाया। दुर्गा का हाथ पकड़कर लगभग झिड़की देते हुए कहा- बस इसी कूबत पर नौकरी करने निकली हो?
मोहन उसे खींचकर ऊपर ले आया। यह उसका एकांत कक्ष था। उसने पहले स्विच दबाया, जिससे हल्की रंगीन रोशनी एक रुमानी वातावरण की सृष्टि करती हुई कक्ष में फैल गई। दुर्गा को एक सोफे पर बैठाकर वह अंदर चला गया। दुर्गा इस बीच अपनी दृष्टि घुमाकर उस कमरे की साज-सज्जा देखती रही और धीरे-धीरे उस वैभव के आतंक से दब गई। मोहन थोड़ी देर में स्वयं दो गिलासों में एक पेय ले आया। एक गिलास दुर्गा की ओर बढ़ाकर उसने आदेशात्मक स्वर में कहा- लो, पियो।
 दुर्गा ने यंत्रवत मोहन के आदेश का पालन किया। कुछ ही देर में उसने महसूस किया कि जैसे वह किसी अंधेरी खोह से निकलकर उजाले में आ गई हो। उसकी सारी थकावट, चिंता और उदासी मिट गई और जैसे प्रात:काल की ताजगी, उल्लास और चंचलता से उसके शरीर में रोमांच होने लगा। वह हंस-हंसकर मोहन से बातें करने लगी। एक-दो बार तो मोहन की बात  पर वह खिलखिलाई भी।
मोहन ने कई बार चपत आदि के बहाने उसके शरीर का स्पर्श किया। उसने समझ लिया कि दुर्गा का यौवन अछूता है और अभी इस पुष्प को किसी भौरे ने जूठा नहीं किया है। उसे मिस्टर मेहता की बात याद आई। उन्होंने कहा  था- मिस्टर मोहन! रुपया-पैसा खूब हो गया। एक से एक सुन्दर और जवान काल गल्र्स का सुख भी देख लिया। अब तो यह लाइसेंस तुम्हें तभी मिलेगा, जब कोई एकदम फ्रेश, बढिय़ा और अछूता माल पेश करो। मोहन ने दुर्गा को ऐसे ही माल के रूप में देखा। दूसरी लड़कियां तो घाट-घाट का पानी पीकर आती थीं। मोहन को थोड़ी हिचकिचाहट हुई और अपनी दुर्भावना के प्रति थोड़ा विद्रोह भी जागा। परंतु उसने अपनी आत्मा के  इस पक्ष को शीघ्र झटककर फैंक दिया और दुर्गा से कहा- देख दुर्गा, मैं जिन्दगी को जिन्दगी की तरह जीने में विश्वास करता हूं। कमाओ-खाओ, हंसो-खेलो और जरूरत पड़े तो डटकर संघर्ष करो। तुम्हारा क्या ख्याल है?
आप ठीक कहते हैं। समस्याओं से जूझना ही जिंदगी है और उनसे भागना मौत। दुर्गा ने सहजता से उत्तर दिया।
तुम काफी समझदार हो। खूबसूरत भी हो। अगर ढंग से रहो, बढिय़ा कपड़े-लत्ते पहनो तो और भी खूबसूरत लगोगी।
भैया! आप तो मजाक करते हैं।
मजाक नहीं, मैं सच कह रहा हूं, तुम्हें किसी ब्यूटी सैलून में ले चलूंगा तब देखना अपनी खूबसूरती।
रहने दीजिए। मुझे खूबसूरती बढ़ाकर क्या करना है?
वाह! करना क्यों नहीं, दूसरों से संबंध, नौकरी, स्मार्टनेस, व्यक्तित्व, स्टेटस आदि के अलावा आत्मसुख पर भी इसका असर पड़ता है।
दुर्गा कुछ सोचती-सी निरुत्तर रही। जैसे उसने इस बात को मान लिया हो।
खैर, यह सब मुझ पर छोड़ दो। चलो, अभी अजय से मिल लें। मोहन यह कहकर  खड़ा हो गया।
 दुर्गा जैसे सोते से जागी हो। हड़बड़ाकर बोली- चलिए। और वह तेजी से सीढिय़ां उतरने लगी।
मोहन ने देखा कि अजय, जैसे मनुष्य के रूप में खाट पर लेटा हुआ अस्थि-पंजर हो। उसे युवावस्था  में ही बुढ़ापे ने घेर लिया था। उस पर मां और दुर्गा का भार था। इसी चिंता में वह जीने के लिए संघर्ष कर रहा था। अन्यथा उसकी स्वयं की सारी कामनाएं नि:शेष हो गई थीं।
अजय और मोहन वर्तमान तंत्र को स्वीकार करने वाले दो रूप थे। इनमें वर्ग-भिन्नता के बजाय मानसिक भिन्नता थी। अजय अपनी आदर्शवादिता, सच्चाई और ईमानदारी के कारण टूट गया था और मोहन अपने छल-छदम्, धोखेबाजी और अनैतिकता के बावजूद सुख से रहकर समाज में प्रतिष्ठित हो रहा था।
मोहन ने लताड़ते हुए अजय से कहा- अरे भाई, अपनी यह क्या दशा बना रखी है? अभी दुर्गा से मालूम हुआ तो दौड़ता चला आया। मैं जानता हूं कि  तुम्हारा यह रोग शारीरिक उतना नहीं है, जितना मानसिक है। परंतु तुम्हें आखिर ऐसी क्या चिंता है? दुर्गा बड़ी हो गई है। वह खुद नौकरी कर लेगी। उसका भार मुझ पर छोड़ दो। दोनों कमाओ-खाओ और ठाठ से रहो।
मोहन के भाषण पर विराम लगाते हुए अजय ने क्षीण स्वर में प्रतिवाद किया- मोहन तुम नहीं समझोगे यह सब। कितना क्या सोचा था मैंने? वे सब अपने यथार्थ की आंच में झुलस गए।  इतना सब पढ़-लिखकर मेरा क्या बना? और एक से एक मूर्ख ऐश कर रहे हैं। यहां तो सारे संबंध आदमी के स्टेटस पर आधारित हो गए हैं।
मैं जानता हूं कि अनीता के कारण  तुम्हें ठेस लगी है। पर उसे सोचते ही क्यों हो? तुम्हें और भी कई अनीताएं मिल जाएंगी।
हां, स्टेटस के मुताबिक। अपने मन मुताबिक नहीं। आज मनुष्य की कोई पहचान नहीं रही। वह स्टेटस में खो गया है।
यार मारो गोली इन सब बातों को। ये सब भावुकता की बातें हैं। मैं तो हर औरत को केवल औरत समझता हूं। एक जिस्म। अनीता में ऐसा है ही क्या, जो दूसरी औरत में नहीं हो सकता? यह सब सोचने से फायदा ही क्या है? और सोच-सोचकर अपने को नष्ट कर देना तो और भी बेवकूफी है।
यह मनुष्य की विवशता है।
खैर, मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता। पहले भी हम लोग घंटों ऐसी बहसें करते थे। लेकिन कोई फायदा नहीं निकला और अपना तो दिमाग ही नहीं है। मैं डॉक्टर लेकर आता  हूं, मोहन ने बात का पटाक्षेप करते हुए कहा।
दुर्गा दो प्यालों में चाय रख गई। अजय अपनी पूरी ताकत लगाकर उठा और बोला- डॉक्टर की जरूरत नहीं है, मैं ठीक हो जाऊंगा।
दोनों धीरे-धीरे चाय पीने लगे। मोहन ने अपनी निगाहों से निम्न मध्यमवर्गीय उस परिवार की स्थिति का पूरा आंकलन किया और फिर यौवन की उन उमंगों के विषय में सोचा, जिनकी पूर्ति न होने पर एक प्रकार का आत्महंता चिन्तन जन्म लेता है।
मोहन चाय खत्म करके उठा। उसने दुर्गा को आवाज देकर कहा-मैं चलता हूं  दुर्गा। अजय का ध्यान रखना कोई जरूरत हो तो बताना और कल चार बजे आ जाना। तब तुम्हारी नौकरी के संबंध में सोचेंगे।
क्यों दुर्गा को नौकरी की क्या जरूरत है? अजय ने प्रतिवाद किया।
तुम्हें उसकी नौकरी की जरूरत न हो, पर उसे तो है। क्या उसे भी अपने जैसी घुटन में रखना  चाहते हो।
अगर दुर्गा यह महसूस करती है तो ठीक है।
अजय ने एक लंबी सांस ली और थकान महसूस करके वह पुन: बिस्तर पर लुढ़क गया। मोहन तब तक बाहर निकल गया।
मोहन ने दुर्गा के मन में उमंगों का संचार कर दिया था। इसलिए वह अत्यंत उत्साहित थी। दूसरे दिन मोहन के कहने के मुताबिक जब वह आई, तब उसकी चाल-ढाल में एक विशेष आकर्षण था। उसने मोहन द्वारा पेश किया गया गिलास बिना किसी झिझक के खाली कर दिया। उसके प्रभाव से वर्षों से जंग लगे हुए उसके कामनाओं के तार एक विशेष लय में झंकृत हो उठे। उसके शारीरिक अवयव भी उसी के मुताबिक आन्तरिक जकडऩ से मुक्त होकर पहले से अधिक विकसित हो गए।
मोहन से दुर्गा का यह परिवर्तन छिपा न रहा। उसने बगल के कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा- अब तुम  जरा ठीक से तैयार हो जाओ, जिससे अच्छा इम्प्रेशन बने। इन आई.ए.एस. अफसरों का पता नहीं किस बात पर मूड बिगड़ जाए।
दुर्गा कहने को हुई कि क्या वह मेरी खूबसूरती देखकर नौकरी देगा, परंतु कुछ कहा नहीं। वह बगल के कमरे में चली गई। वहां वस्त्रों तथा अन्य प्रसाधनों का ढेर लगा था। मोहन ने फोन करके ब्यूटी क्लीनिक वालों को भी बुला लिया था। दुर्गा यह सब देखकर संकुचित हुई। परंतु उसे इससे खुशी ही हुई। उसे ये सब चीजें पहली बार मिली थीं। जब वह पूरी साज-सज्जा के बाद बाहर आई, तब मोहन ने उसकी सराहना करते हुए कहा-देखो, अब तुम्हारा व्यक्तित्व कितना निखर आया है? कितनी स्मार्ट दिखती हो?
दुर्गा का पिछला सब सोच मिट गया और उसके मुख पर चंचल हास्य की दीप्ति छा गई। उसने एक विशेष कोण से मुंह बनाते हुए कहा अब क्या आज्ञा है।
मोहन दुर्गा की इस बात से खिलखिला पड़ा। दुर्गा भी हंसने लगी। मोहन दुर्गा को पूरी तरह मानसिक रूप में आगे की घटना के लिए तैयार कर लेना चाहता था। इसलिए बोला- चलो, तुम्हारा परिचय एक जीती-जागती दुनिया से करा दूं। फिर नौकरी के लिए उस अफसर के पास चलेंगे।
मोहन के साथ दुर्गा सहजता से नीचे आई और उसी के बगल की सीट पर कार में बैठ गई। मोहन शहर की भीड़ भरी सड़कों पर तेजी से कार निकालकर ले जा रहा था। दुर्गा को ऐसे लग रहा था, जैसे वह जमीन पर चलने वाले लोगों से बहुत ऊंची हवा में उड़ रही हो।
मोहन दुर्गा को पहले एक क्लब में ले गया। दुर्गा ने कभी क्लब की जिंदगी से साक्षात्कार नहीं किया था। वहां तरह-तरह की कीमती वेश-भूषा धारण किए हुए अलग-अलग साज-सज्जा वाले स्त्री-पुरुष थे। बिल्कुल उन्मुक्त। कोई युवक किसी युवती के साथ लान के उस भाग में लेटा हुआ था, जहां झाड़ की परछाई के कारण रोशनी धुंधली हो गई थी। कुछ युवक और युवतियां सरोवर की पक्की जगह पर पांव लटकाए हुए अपने साथियों से वार्तालाप में मशगूल थे। कुछ टेबिलों के ईद-गिर्द पड़ी कुर्सियों पर बैठकर ड्रिंक का मजा ले रहे थे। एक समूह ताश की बाजियों में खोया हुआ था। स्कैटिंग हाल में  जवान जोड़े एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले हुए समीप और दूर होते हुए नाच रहे थे। जिन्दगी जैसे संगीत बनकर तैर रही थी।
कई लोगों से मोहन की बातें हुई और दुर्गा से परिचय हुआ। यह परिचय से अधिक अपरिचय ही था, क्योंकि सब दुर्गा के भरे हुए और आकर्षक शरीर को देखकर मोहन से रश्क कर रहे थे। सबकी भूखी आंखें दुर्गा को देख रही थीं। इससे दुर्गा को भी अपने कुछ होने का गर्व मिश्रित हर्ष हो रहा था। कुछ देर बाद मोहन दुर्गा को लेकर क्लब से बाहर आ गया। उसका उद्देश्य दुर्गा के अंदर की गांठें खोलकर उसकी झिझक दूर करना था।
मोहन धीरे-धीरे कार चला रहा था। एक अच्छे रेस्तरां के सामने कार रोककर दोनों ने खाना खाया। मोहन ने अपने बैग से बोतल निकालकर वही पेय दो गिलासों में भरा। वह एक उत्तेजक  पेय था जिसके पीने से व्यक्ति में एक मादकता छा जाती थी, परंतु वह चेतना नहीं खोता था। इस बार मोहन ने चतुरतापूर्वक दुर्गा के गिलास में एक नशीली गोली भी मिला दी थी, जो शरीर को सक्रिय रखकर भी चेतना को निष्क्रिय और धुंधला कर देती थी। दुर्गा वैसे भी उस समय यथार्थ की जमीन से परे अपने मन के कल्पना लोक में विचरण कर रही थी। उसने गिलास खाली करके एक अंगड़ाई ली और मोहन के कंधे पर अपना सारा भार डालकर कार में आ बैठी।
रात्रि का दूसरा पहर शुरू हो गया था। फिर भी शहर में चहल-पहल थी। मोहन की कार शहर की चहल-पहल से दूर मिस्टर मेहता के एकांत बंगले की और तेजी से दौड़ रही थी। मिस्टर मेहता से सारा कार्यक्रम मोहन ने पहिले ही तय कर लिया था तथा अपने दो आदमी भी तैनात कर दिए थे। मिस्टर मेहता का वह बंगला उनकी एकांत ऐशगाह के रूप में सुसज्जित था। गेट पर एक पहाड़ी दरबान तैनात रहता था, जो साहब के आदेश के बिना किसी को प्रवेश के लिए फाटक का ताला नहीं खोलता था। मोहन की कार सीधे बंगले के भीतरी कम्पाउण्ड में रुकी।
कार रुकने पर मोहन के आदमी ने आगे बढ़कर उसका दरवाजा खोला। मोहन ने दुर्गा का हाथ पकड़कर उसे उतारा और रहस्यात्मक अंदाज में उस आदमी से पूछा- साहब हैं?
जी ! कहकर वह आदमी अदब से एक ओर खड़ा हो गया।
आगे बढ़कर मोहन ने जैसे ही काल बैल पर अंगुली रखी, वैसे ही पर्दे के पीछे से आवाज आई- कम इन।
मोहन दुर्गा के साथ पर्दा हटाकर बंगले के उस कमरे में दाखिल हुआ। मोहन के साथ दुर्गा ने भी अदब से साहब को नमस्ते की। दुर्गा की आंखें तो नीचे जमीन ही ताक रही थीं, क्योंकि वह उसके नौकरी में चुने जाने की परीक्षा की घड़ी थी। परंतु धीरे-धीरे उस पर ऐसा नशा होता जा रहा था कि संकोच की सारी गांठें छितराकर टूट जाने को थीं। तभी उसे साहब की बात सुनाई दी- मिस्टर मोहन, आई एम वैरी प्लीज्ड विथ यू। शी इज वैरी चार्मिंग एंड जस्ट एज आई वान्टेड।
मैनी-मैनी थैंक्स सर! यू हैव लाइक्ड हर! नाऊ आई विश यू ए हैप्पी नाईट। मोहन ने उसी प्रकार अंग्रेजी में उत्तर दिया।
दुर्गा केवल इतना समझी कि नौकरी में उसका सिलेक्शन हो गया। उसने कृतज्ञता से आंखें उठाकर अब साहब को देखा। साहब हष्ट-पुष्ट एवं गौरवर्णी लगभग चालीस वर्ष के व्यक्ति थे। कीमती सूट में उनका व्यक्तित्व आकर्षक एवं रौबदार प्रतीत होता था।
बैरा खाने-पीने की कुछ चीजें रख गया। इस ओर किसी का ध्यान नहीं था। जैसे वह मात्र औपचारिकता थी। साहब व्हिस्की पी रहे थे और दुर्गा साहब की नाराजी के भय से यंत्रवत कुछ टूंग लेती थी। धीरे-धीरे उसकी आंखें झपकने लगीं। तब साहब कुटिलता से मुस्कुराए। मोहन ने उन्हें संकेत से सब समझा दिया। साहब यह कहते हुए दुर्गा का हाथ पकड़कर अन्दर के कमरे में ले गए- अरे अब संकोच कैसा? इसे अपना ही घर समझो, बी एट ईज।
मोहन मुस्कुराता हुआ बाहर आ गया। उसके पीछे दरवाजा बंद हो गया और तेज रोशनियां बुझ गईं। केवल अन्दर के कमरे की हल्की नीली रोशनी जलती रही। दुर्गा ने पहले समझा कि अंदर साहब का परिवार होगा। इसलिए वह अपने को अधिक सचेष्ट करने का प्रयत्न करने लगी। परन्तु जब मिस्टर मेहता दुर्गा के जिस्म को नंगा करने लगे, तब उनका इरादा भांपकर दुर्गा ने अपनी चेतना रहते शक्तिभर प्रतिवाद किया और सारा भण्डाफोड़ करके निपटने की धमकी दी। यह सब निरर्थक साबित हुआ। कुछ देर दुर्गा की हल्की घुटी हुई चीखों की आवाजें आती रहीं। फिर सब गहरी खामोशी में डूब गया।
बड़े सबेरे मिस्टर मेहता हड़बड़ाये हुए बाहर निकले। उन्होंने बाहर के कमरे में बेखबरी से सोए हुए मोहन को जगाकर कहा- शी इज स्टिल अनकौंसस। क्या होगा?
मोहन आंखें मलकर उठा। सारी बातें सुनकर वह चिंतामग्न हो गया। यदि दुर्गा ने इसे सहज ही स्वीकार कर लिया होता तो, कोई बात नहीं थी। अब दुर्गा के होश में आने पर मिस्टर मेहता और मोहन दोनों को खतरा था। परन्तु मोहन बड़ा जीवट वाला आदमी था। उसके पास हर चीज का इलाज था। इस पहलू पर भी उसने पहले ही विचार कर लिया था। इसलिए सहजता से बोला- आप क्यों चिंता करते हैं सर? उसे अस्पताल में भर्ती करवाये देता हूं। वहां सब ठीक हो जाएगा।
और अगर होश में आने पर उसने सब भण्डाफोड़ कर दिया तो हमारा क्या होगा? मिस्टर मेहता की घबराहट बढ़ती जा रही थी।
मिस्टर मेहता आप गलत सोचते हैं। किसी का कुछ नहीं होगा। मेरा इंतजाम एकदम पक्का है। मैं चाहता नहीं था, लेकिन और कोई उपाय नहीं है। इसके बाद मोहन ने अपने आदमी को बुलाया और नोटों का एक बण्डल अपनी जेब से निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा- देखो तुम एक टैक्सी ले आओ उसमें उस लड़की को ले जाकर अस्पताल में भर्ती करवा दो। डॉक्टर को अकेले में ये नोट देकर कहना कि ओवरड्रिंक का केस है, समझ गए न?
जी!
हां, और सुनो पता-वता कुछ नहीं। कहना कि फुटपाथ पर पड़ी थी। यह काम बहुत जरूरी है। तुम वहीं रहना और उस लड़की के होश में आने से पहले मौका देखकर किसी तरह यह पुडिय़ा पेट में पहुंचा देना। मोहन ने एक पुडिय़ा उसे दी। फिर कुछ और नोट उसकी ओर बढ़ाकर पुन: कहा- यह तुम्हारा इनाम।
यह ध्यान रखना कि पुडिय़ा खिलाते तुम्हें कोई देख न पाए। बस फिर तुम्हारा काम खत्म।
उस आदमी के जाने पर मोहन ने हंसकर मिस्टर मेहता की ओर देखा और कहा- सर, आपके शगल के लिए एक जान कुर्बान हो गई। आपकी जिद थी, नहीं तो कितनी ही अपने आप पैसे की मार से आपके पहलू में बिछ सकती थीं। यार, माल तो वाकई एकदम फे्रश और लजीज था। जिंदगी में पहली बार ऐसा मजा आया। और सर, आपकी मेम साहब?
यार मोहन, तुम मेरे सबसे नजदीकी हो इसलिए बता रहा हूं कि वह भी साली जूठी थी। मेरी सबसे बड़ी तमन्ना थी कि एक बार कोई ऐसी मिले। अब तो आपकी तमन्ना पूरी हो गई। अब वह भी जूठी हो गई, तो मतलब ही क्या है?
हां, और क्या?
मेरा लाइसेंस?
हो जाएगा, लेकिन याद रखो इस मामले में कहीं मेरा नाम न आने पाए। मिस्टर मेहता ने अपनी उस बात को फिर दोहराया।
तब तक दिन का प्रकाश अंधेरे की पर्त चीरकर थोड़ा-थोड़ा झांकने लगा था। मोहन का आदमी दुर्गा को टैक्सी में ले गया था। मोहन मिस्टर मेहता को आश्वस्त करके तेजी से कार ड्राईव करता हुआ अपने घर लौट आया।
पक्के इंतजाम के बावजूद मोहन का मन अनेक द्वंद्वों और शंकाओं से घिरा रहा। वह कपड़े उतारकर बाथरूम में घंटों शावर के नीचे बैठा रहा। यों ऐसी बातें मोहन के लिए परेशानी का कारण कभी नहीं बनती थीं।
परन्तु दुर्गा का भोला भाला मासूम चेहरा बार-बार उसके सामने साकार हो उठता था। यह उसकी जिन्दगी का पहला कड़वा अनुभव था। खूब नहाने के बाद मोहन पीने बैठा। उसने लगभग पूरी बोतल खाली कर दी। फिर खाना खाकर सो गया। लगभग चार बजे उसकी नींद खुली। उसने हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदले। उसी वक्त उसी आदमी ने आकर सूचना दी- सब ठीक हो गया मोहन बाबू! शी एक्सपायर्ड। सीढिय़ों पर किसी के हांफने की आवाज सुनकर मोहन ने उस आदमी को इशारे से रोका और बाहर आकर नीचे झांका। उसने देखा कि दुर्गा की मां धीरे-धीरे सीढिय़ां चढ़ रही है। वह शीघ्रता से उसकी ओर लपका और बोला- अरे, मां जी आप! क्या बात है? मुझे ही बुला लिया होता।
बेटा! दुर्गा को देखने आई थी। कल इसी बखत घर से निकली थी और अब तक नहीं लौटी। शायद तुम्हें पता होगा।
यही कह रही थी कि मोहन भैया के साथ कहीं जाना है। दुर्गा की मां ने हांफते हुए कहा।
अरे, वह तो तभी चली गई थी। ताज्जुब है कि घर क्यों नहीं पहुंची? मां जी, आप घर चलिए। मैं देखता हूं।
शायद कुछ पता चले। मोहन शीघ्रता से नीचे उतरा, उस आदमी को भी साथ लिया और कार स्टार्ट करके सर्राता हुआ चला गया।