कहानी- हां लड़की भाग गई

‘कुछ सुना।‘
‘क्या?’
‘वो मीनाक्षी, विष्णु  के साथ भाग गई।‘
‘अरे उसे तो एक दिन भागना ही था।‘
‘क्यों कैसे कह सकते हो?’
‘उसका मीनाक्षी के घर बहुत आना-जाना था।‘
‘अरे वो रईस बाप की औलाद है।‘
‘सुना है वो समय-समय पर मदद भी करता था।‘
‘इसलिए तो मीनाक्षी के मां-बाप ने सोचा, मालदार पार्टी है। यही सोचकर मीनाक्षी से सम्पर्क बढ़वाया।‘
‘इसलिए तो प्यार के नाम पर दोनों को खुली छूट दे रखी थी।‘
‘शायद इसीलिए लड़की के भागने पर मां-बाप को जरा भी गम नहीं है।‘
‘गम क्या दोनों ने मिलकर षड्यंत्र रचा।‘
‘भाई इसे कहते हैं समझदारी।‘
‘समझदारी, कैसी समझदारी।‘
‘अरे दहेज बचा लिया।‘
‘मगर सब लोग इन्हें थू-थू कर रहे हैं।‘
‘इन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।‘
‘क्योंकि ये बेशर्म हैं?’
मोहल्ले में जितने लोग थे, उतनी बातें हो रही थीं। प्राय: ऐसे हादसों पर ऐसी ही टिप्पणी होती है। जिन घरों में ऐसी घटनाएं होती हैं उन घरों की हालत बड़ी चिंतनीय होती है।
ठीक ऐसी ही हालत दीनदयाल शर्मा की थी। मीनाक्षी उनकी बड़ी बेटी थी। वे खुद तहसील कार्यालय में उच्च श्रेणी लिपिक के पद पर कार्यरत हैं। उसके बाद तीन लड़कियां और हैं। पत्नी मनोरमा का स्वभाव चिड़़चिड़ा व गुस्सालु है। ऐसे में घर की अर्थ-व्यवस्था चरमराने के साथ बड़ी होती हुई लड़कियों के लिए एक सबक भी था। दहेज से दीनदयाल शर्मा का तालमेल नहीं बैठ पा रहा था। दु:खी रहा करते थे। बड़ी होती हुई लड़कियां यह जानती थीं कि घर की अर्थ-व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं है कि उनके पिता मनमुताबिक दहेज देकर अच्छी जगह उनका विवाह कर सकें। अत: घर की तंगहाली से तंग होकर मीनाक्षी ने यह फैसला लिया हो? अब मोहल्ले वालों की टीका-टिप्पणी ने उन्हें परेशान कर रखा है। उधर रिश्तेदारों की टीका-टिप्पणी से भी वे आहत हैं। एक लड़की उनके हाथ से निकल गई, बाकी तीन लड़कियों का दायित्व उन पर और है। वे भी भविष्य में बड़ी बेटी के पद चिन्हों पर चल देंगी, तब वे किसी को भी मुंह दिखाने के काबिल न रहेंगे।
उधर पत्नी का स्वभाव अलग चिड़चिड़ा रहने लगा। ऐसे में आये दिन दोनों में नोक-झोंक होने लगी। बड़ी लड़की भाग गई। इसका सारा दोषारोपण एक-दूसरे को दे रहे थे। आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी एक-दूसरे पर लगा रहे थे। दरअसल, मनोरमा का यह कहना था, वे घर पर ध्यान नहीं देते हैं। दीनदयाल शर्मा का यह तर्क था- घर में सारे दिन औरत रहती है। उसने क्यों नहीं ध्यान दिया। बड़ी होती हुई लड़कियों पर उनकी बात का क्या असर पड़ेगा? इसका उन्हें भान नहीं है? आखिर एक दिन तंग आकर मनोरमा झल्लाकर बोली-अरे हमें जहर लाकर क्यों नहीं दे देते हो? जिसे खाकर मैं और तुम्हारी तीनों लड़कियां मर जाए, ताकि हमें इस झंझट से मुक्ति मिले। जिसे देखो वह ऊपर चढ़कर टीका-टिप्पणी कर रहा है…. बड़ी लड़की भाग गई सो भाग गई। छोटी लड़कियां भी एक दिन इसी तरह भाग जायेंगी मगर दीनदयाल के कानों में जैसे शीशा पड़ गया था। कोई उत्तर देते नहीं बन रहा था। सच, यह बातें सुन-सुनकर उनके भी कान पक गये थे। वे भी किस-किस को जवाब दें, जबकि सभी दोष उन्हें दे रहे थे। क्यों जवान लड़कियों के रहते एक जवान लड़के को घर आने की छूट दे रखी थी?…. इस प्रश्न का उत्तर वे क्या दे पाते? मुंह लटका कर चुपचाप सुनते रहते थे। जब उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया तो मनोरमा झल्लाकर आगे बोली- लड़की भाग गई। गूंगे-बहरे बन गये, जो मेरी बात का कोई असर नहीं पड़ रहा है। ‘भागवान, क्यों जले पर नमक छिड़क रही हो।‘ उनके मुंह से क्रोध के स्वर फूट पड़े- तुम सोच रही हो, मैं चिंतित नहीं हूं।
‘हां-हां मुझे नहीं लगता कि तुम चिंतित हो। यदि होते तो मीनाक्षी, विष्णु के साथ नहीं भागती।‘जवाबी हमला करती हुई मनोरमा बोली- अब मोहल्ले और बिरादरी वाले सब हम पर थूक रहे हैं। हमें ही भला-बुरा कह रहे हैं। सारा दोष हमारे मत्थे ही मढ़ रहे हैं। सारी बातें मुझे ही सुननी पड़ रही हैं। मैं किस-किस को जवाब दूं- किस-किस का मुंह बंद करूं।
‘तुम समझ रही हो सारे आक्रमण तुम्हारे ऊपर ही हो रहे हैं, मुझे लोग कुछ भी नहीं कह रहे होंगे।‘
‘हां-हां तुम्हें कौन कहे?’ मनोरमा बोली- तुम घर में रहते कितनी देर हो। मैं भला और मेरा दफ्तर भला। दिन भर तो मुझे ही सुनने पड़ते हैं, ताने-उलाहने, जली-कटी व्यंग्यात्मक बातें। छूट देने का परिणाम दिया है लड़की ने।
‘मतलब सारा दोष मेरा है। तुम इसमें कहीं से कहीं तक दोषी नहीं हो।‘
‘हां-हां सब दोष तुम्हारा है, न उस विष्णु को घर में आने की इतनी छूट देते और न ही विष्णु यह हरकत करता।‘
‘मगर तुम कैसी मां हो जो अपनी लड़की को भी नहीं संभाल सकीं।‘
‘अरे जब मैं कहती थी, तब आप ही कहा करते थे, आजकल आधुनिक जमाना है… देख लिया इस आधुनिक जमाने का परिणाम।‘
‘मनोरमा ने जब यह बात कही, तब प्रत्युत्तर में दीनदयाल ने जवाब नहीं दिया। उन्होंने विष्णु को घर आने की छूट दे रखी थी। विष्णु रईस बाप की औलाद थी। इस बहाने विष्णु, मीनाक्षी की कुछ आर्थिक मदद भी कर दिया करता था। मीनाक्षी जानती थी, घर से उसे इतनी अधिक आर्थिक मदद नहीं मिल पायेगी। कॉलेज का सहपाठी होने के कारण दोस्ती का संबंध था, इसलिए उसका घर आना-जाना था। कभी दीनदयालजी ने शंका नहीं की, बल्कि प्रगतिशीलता का जमाना होने के कारण युवाओं का मिलना वे गलत नहीं समझते थे। इसी बीच वे मीनाक्षी के लिए रिश्ता जरूर ढूंढ़ रहे थे मगर  उचित रिश्ता मिल नहीं पा रहा था। जब काफी देर तक उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, तब मनोरमा फिर  कटाक्ष करती हुई बोली- अरे अब बहरे क्यों बन गये हो? उस विष्णु को घर में आने की इतनी छूट न देते, तब आज यह परिणाम नहीं मिलता। समाज-बिरादरी सब हम पर ही थू-थू कर रहे हैं। कह रहे हैं- एक लड़की को भी न संभाल सके… कह रहे हैं यह सब प्रेम नाटक हमारे सामने चल रहा था, फिर भी आंखें मूंदकर हम दोनों देख रहे थे। समाज-बिरादरी में इस मीनाक्षी के कारण हमारी नाक कट गई…।‘
…. अरे सुन रहे हो कि नहीं, मैं इतनी देर से बक-बक किये जा रही हूं….।
‘अरे भागवान, तुम्हारा यह टेप रिकॉर्ड बंद हो तभी तो बोलूं।‘ आखिर क्रोध से दीनदयाल शर्मा बोले- बस बोले जा रही हो।
‘ठीक है, ठीक है… मैं अब नहीं बोलूंगी बस बाबा हाथ जोड़ती हूं’, कहकर मनोरमा भीतर चली गई। दीनदयाल शर्मा इस पर गहन चिंतन करते हैं मगर नतीजा सिर्फ शून्य मिलता है। दोनों ही बालिग हैं। समाज-बिरादरी वाले भी सारा दोष उन पर ही मढ़ रहे हैं, वे भी किस-किस को जवाब दें, तभी उनकी बड़ी बहन निर्मला ने आकर सीधे-सीधे प्रश्न पूछा- दीनदयाल, लड़की कैसे भाग गई।
‘अब लड़की दूध पीती बच्ची तो नहीं थी, जो उसे बांधकर रखता।‘ दीनदयाल शर्मा ने सीधे-सीधे जवाब देते हुए कहा। तब निर्मला समझाती हुई बोली- अरे जब लड़की जवान हो जाती है, तब उसे बांधकर रखना पड़ता है और तुमने उसे बांधकर कहां रखा, जब मैं शादी की बात कहती थी, तब तू कहता था, लड़की अभी बच्ची है, पढ़ रही है? देख लिया उसे पढ़ाने का नतीजा?
‘हां-हां तुम भी कोसो… खूब कोसो, सारी गलती मेरी है। मैंने उसे छूट दे रखी थी।‘ दीनदयाल गुस्से से बोले- मोहल्ले और बिरादरी वाले सबके सब मुझे ही भला-बुरा कह रहे हैं। जो कुछ कहना है आप भी कह लें…. कहने का अधिकार बनता है बड़े होने के नाते।
‘हां-हां तुझे न कहेंगे तो और किसे कहेंगे’। निर्मला बोली- पहले ही लड़की को बांधकर रखता, आज यह नौबत तो न आती। इस तरह भागती तो नहीं।
‘हां-हां जले पर नमक छिड़को, खूब छिड़को।‘ आखिर क्रोध से दीनदयाल बोले- यहां आकर सांत्वना देने के बजाय डांट रही हो मगर मेरी मजबूरी को कोई नहीं समझ रहा है।
‘इसे मजबूरी मत कह, जवान लड़कियां इस तरह भागने लगे, तब  चला ली गृहस्थी?’ …. एक लड़की को नहीं संभाल सके। अभी तीन लड़कियां और हैं…. कौन करेगा उनसे शादी…. यह सोचा है? निर्मला का धाराप्रवाह भाषण और भी चलता रहा। दीनदयाल चुपचाप सुनते रहे। अंत में हार कर निर्मला बोली- तेरे साथ समाज, बिरादरी वाले हम पर भी ताने कसेंगे, क्योंकि हम भी तेरे परिवार से जुड़े हैं।
परिवार, कौन-सा परिवार? दीनदयाल शर्मा ने उत्तेजनावश चिल्लाकर कहा- तुम भी वही बोल रही हो, जो लोग बोल रहे हैं। परिवार की होती तो कोई मिल-बैठकर रास्ता निकालती?
मगर आते ही सवालों की गोलियां दागने लगी…. लड़की क्यों भागी? हां-हां मैंने भगाया है। सारा दोष मेरा है… तुम सब लोग मुझे नोंचकर खा जाओ, हां-हां खा जाओ… सबके सब मेरे ही पीछे पड़े हुए हैं… हां… हां… मैंने ही भगाया है लड़की को… और दीनदयाल गुस्से में ही पागल से हो गये… एक ही शब्द ‘हां मैंने लड़की को भगाया’ दुहरा रहे थे। पत्नी मनोरमा और तीनों लड़कियां सहमी हुई खड़ी थीं।
 अब भी दीनदयाल पागलों की तरह चिल्ला रहे थे मगर वे सब मूकदर्शक बने खड़े-खड़े देख रहे थे।