कहानी- वर-इच्छा

पूनम की उम्र अभी उन्नीस की ही हुई थी कि वह अपने माता-पिता के लिए चिन्ता का कारण बन गई। उसके पिता रामदयाल गुप्ता ने इण्टरमीडिएट तक पढ़ाया, लेकिन कई समस्याएं आने पर उसे घर पर बैठा लिया कि जमाना खराब है। कहीं कोई ऊंच-नींच न हो जाए, क्योंकि महाविद्यालय से उसका घर चार किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर था। कुछ दिन वह साइकिल से गई भी, लेकिन मनचलों की मनमानी से आजिज आ गई। तरह-तरह के कमेंट्ïस और छेडख़ानी ने उसे शर्मसार कर दिया- हाय! क्या खूबसूरत चेहरा है… ओ! रानी मुझे अपना बना ले… तू ही तो है मेरे सपनों की रानी… एक बार प्यार करके तो देख तुझे बहुत मजा आएगा… ओ! चांद से मुखड़े वाली जरा इधर भी देख ले, तेरे चाहने वाले कब से तेरा इंतजार कर रहे हैं… आ गले लग जा आदि तथा कुछ इतने अश्लील कि बस पूछिए ही मत। कोई साइकिल से साइकिल भिड़ाने का प्रयास करता तो कोई कंधे से कंधा भिड़ाने का। स्कूटर-मोटरसाइकिल वाले और कुछ पैदल चलने वाली आदमजात जिनमें अधेड़ और बूढ़े भी होते, ऐसे घूर-घूरकर देखते कि वह अपनी आंखें शर्म से झुका लेती और सोचती कि यहां लड़कियां अभी भी परतंत्र हैं कि पथ में निकलते ही हजारों आंखें उसे घायल करने के लिए बेताब रहती हैं। शायद इन सबका मुकाबला करने के लिए ही उन्होंने मर्दों की वेश-भूषा अपना ली है और सीने पर भी दुपट्टा डालना छोड़ दिया है कि देखो! जी भरके देखो!


इस कमरतोड़ महंगाई में पूनम के पिता को माह में मात्र चार हजार पगार मिलती। एक प्राइवेट फर्म हाईस्कूल पास व्यक्ति को इससे अधिक दे भी क्या सकती थी। उसी में घर के सारे खर्चे, हारी-बीमारी, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह के लिए जोडऩा, क्योंकि बिना दहेज के दिए  लड़कियों के ब्याह नहीं होते, कितनी ही लड़कियां तो क्वांरी ही रहकर बूढ़ी हो जाती हैं, क्योंकि उनके मनमाफिक लड़के नहीं मिलते।


पूनम सबसे बड़ी थी उससे छोटी तीन बहनें और सबसे छोटा भाई, जो अभी चौथी कक्षा में पढ़ रहा था। इसके ही चक्कर में तो लड़कियों की लाइन लग गई, क्योंकि यहां पुत्र ही तो स्वर्ग की सीढिय़ों तक पहुंचाने का महान काम करता है, चाहे जीते जी वह कष्ट-दर-कष्ट माता-पिता को देता रहे, लेकिन पुत्र और पुत्र का पुत्र यानी पोता ही मुक्ति का द्वार खोलता है।
पूनम के विवाह के लिए लड़कों पर दृष्टि डालना शुरू हो गया। कई जगह रामदयाल का आना-जाना हुआ। सैकड़ों रुपये और समय पर पानी फिर गया, फिर भी कहीं बात नहीं बनी, क्योंकि सब जगह दहेज रूपी राक्षस की ऊंची-ऊंची उड़ानें थीं। इसी कारण रामदयाल के मस्तक पर बल पडऩा स्वाभाविक था। उसकी पत्नी भी चिन्ता में घुलने लगी। एक दिन यकायक उसके बहनोई के बहनोई ने पूनम के विवाह का प्रस्ताव रखा कि एक लड़का देखने-भालने में अच्छा है, दुकान करता है और वह खागा का रहने वाला है। उसके माता-पिता की अधिक मांग भी नहीं है। दुकान अच्छी चलती है, लड़की राज करेगी।
ऐसा प्रस्ताव जब पूनम के माता-पिता ने सुना तो उनके मन में लड्डू फूटने लगे। पूनम भी कान लगाकर उनकी बातें अलमारी की ओट लेकर सुनती रही और उसका भी रोम-रोम पुलकित होता रहा, हृदय में नवसंगीत की लहरें उठने लगीं।


रामदयाल ने चैन की सांस लेते हुए कहा, ‘चलो! भगवान ने आपके सहारे सुन तो ली, मैं तो सात-आठ महीने से पागल कुत्ते-सा इधर-उधर भटकता रहा। लड़के वालों की ऊंची-ऊंची मांग सुनकर मैं तो बुरी तरह टूट ही गया था। भगवान सबका ही बेड़ा पार लगाता है।‘
‘भाई साहब! मैं जल्दी ही वर-इच्छा कराता हूं। आप मेरे रहते कोई चिन्ता ही न करें। सब कुछ अच्छी तरह निपट जाएगा।‘ बहनोई राजेन्द्र मुस्कराते हुए बोले।


‘जीजाजी! उन्हें लड़की देखना हो तो देख लें।‘
‘मैं आज ही उनसे इस संबंध में बात करता हूं। आप सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दें। आपकी बेटी है तो कुछ मेरी भी लगती है, यह बात आप काहे को भूल जाते हैं।‘
‘जीजाजी! आपके रहते हमें क्या फिकर है?’


रामदयाल ने उनकी खूब आव-भगत की और वे दो-तीन घण्टे ठहरकर चले गए।
राजेन्द्र शाम को लड़के वाले के घर पहुंच गए। लड़के के माता-पिता से वे सब बातें कर लीं जो लड़की पक्ष ने उनसे की थीं, अर्थात् विवाह में लेन-देन, वर-इच्छा और लड़की को पसंद करने आदि की बातें।


उनकी बातें जानने-समझने के बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘भाई साहब! आप हमारी दूर की रिश्तेदारी में मेरी बहन के ननदोई लगते हो और लड़की वाले भी आपके रिश्तेदार हैं। लड़की आपने देखी, सो हमने देख ली। लड़का भी हमारा कलेक्टर नहीं है, जो उसे लड़की पसंद न आए और न ही लड़की कांढ़ी-भैंढ़ी है, जैसा कि आप बता रहे हो। लड़का तो मेरा हीरा है हीरा, लाखों में एक, जो मैं कह दूंगा ना-नुकुर का तो सवाल ही नहीं उठता। आप पूरा इत्मीनाम रखिए। जो आप दिला देंगे वह सर माथे…।‘


विवाह की बात पक्की हो गई। वर-इच्छा (सिक्का चढ़ाई) की तारीख नियत हो गई। दोनों ओर से तैयारियां शुरू हो गईं। खुशियां फूलों-सी झडऩे लगीं। विशेषकर पूनम के घर में तो सभी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर की साफ-सफाई से लेकर लेन-देन की तैयारियां। लड़के के लिए सोने की अंगूठी और गले में जंजीर, पांच कपड़े और इक्कीस हजार रुपये नकद, लड़के के माता-पिता के लिए पांच-पांच कपड़े और पांच-पांच सौ रुपये नकद, लड़के के अन्य रिश्तेदारों के लिए भेंटें आदि।


वर-इच्छा से एक दिन पहले कई तरह की मिठाइयां तैयार की गईं यानी मेहमानों को खिलाने और साथ में उनके बांधने का बंदोबस्त। आखिर वर-इच्छा का दिन आ ही गया। घर के आगे छोटी-सी गली में ही शामियाना, कनातें और कुर्सियां सज गईं और कान फोड़ू डेग बजना शुरू हो गया।


पूनम और उसकी बहनों तथा महिला मेहमानों ने मेकअप करके ऐसा अपने आपको सजाया-धजाया कि बस पूछिए मत। मेहंदी और अन्य तरह के खिजाब तो हाथ-पैरों और सिरों में पहले ही लग गए थे। अधेड़ और बूढ़ों के सिरों के बाल भी काजल से काले चमक रहे थे जैसे कि वह एक सप्ताह के लिए जवान हो गए हों। महिलाएं और युवतियां नकली जेवरों तथा फिरोजाबादी चूडिय़ों से पूरी तरह लद-बद गई थीं। घर में चूडिय़ों की खन-खनाहट से लग रहा था कि विवाहोत्सव हो रहा है। हर कोई वर पक्ष के सम्मुख अपनी दिखावट में कमी नहीं रखना चाह रहा था यानी सजने-संवरने की पूरी तरह होड़ मची हुई थी। कुछ युवक और युवतियों के सिर के बालों के आगे की लटें सुनहरी चमक रही थीं। एक बुजुर्ग महिला ने पूनम की बहन पर कमेंट्स पास करते हुए कहा- ‘ये निगोढ़ा कैसा फैशन आया कि अच्छे-खासे बालों की लटें सुनहरी करो। चाहे पैसे की तंगी हो, लेकिन बालों पर डाई जरूर लगेगी। वो सरोज और आशा पचपन की उम्र पार कर गई हैं, फिर भी डाई लगा के जवान होने का ख्वाब देखे हैं। वाह रे! जमाने…।‘


दोपहर के बारह बजे वर पक्ष के लोग आ ही गए। उनका जबरदस्त आतिथ्य-सत्कार हुआ यानी पेटभराऊ जलपान और बाद में वर-इच्छा की तैयारियां। पूनम भी गुडिय़ा-सी सजी-धजी चौकी पर बैठ गई थी, उसे उसकी बहनें ऐसे पकड़कर लाई थीं कि जैसे उससे चला न जा रहा हो, दूसरी तरफ वर उसे ऐसे घूर-घूर के देखे जा रहा था जैसे कि वह कुछ ही पल में उसकी बांहों में होगी। सड़क छाप पण्डित ने गलत-सलत मंत्र बोलकर रस्में कराईं। रामदयाल ने अपनी हैसियत से ज्यादा वर और वर पक्ष की पूजा-अर्चना की।


वर-इच्छा निपटी और ढाई बजे भोजन शुरू हो गया, जबकि अभी भूख किसी को नहीं लगी थी, फिर भी मेहमानों ने उदारता दिखाते हुए जमकर खाया-पिया, यानी गले-गले तक। कई तो पेटों पर हाथ फिरा-फिराकर कुर्सियों पर जम गए। कई उबकाई-सी लेने लगे। लड़की पक्ष ने पाचन चूर्ण उपलब्ध कराया। दो-तीन को तो उल्टियां भी होने लगीं। अब कोई उनसे पूछे कि भाई इतना खाते ही क्यों हो जो खाकर मर जाओ, लेकिन लोगों को हराम का माल खाने में कुछ ज्यादा ही मजा आता है, सो खाते रहेंगे और मरते रहेंगे।


लड़की पक्ष ने डॉक्टर को बुलाकर स्थिति सम्भाली और सभी मेहमानों को राजी-खुशी विदा किया। विवाह की तारीख भी तय हो गई।


सायं साढ़े सात बजे रामदयाल का मोबाइल फोन घनघना उठा। सुना तो लड़के का पिता बोल रहा था। रामदयाल ने नमस्ते की तो उधर से कुछ क्रोध भरी आवाज सुनाई दी।
‘हमारे लड़के को लड़की पसन्द नहीं है। हम ये शादी नहीं करेंगे… कहीं इस तरह लेन-देन किया जाता है… तुम लोग बड़े रूखे स्वभाव के हो….।‘


इतना सुनते ही रामदयाल के पैरों की जमीन धंस गई जैसे कि वह जमींदोज हो गए हैं। मोबाइल हाथ से छूट गया।


 तभी सब घर वाले आ गए। घर में खुशियों की जगह मातम छा गया, लेकिन पूनम ने अपने पिता को हिम्मत बंधाई और कहा, ‘पापा! ऐसे लड़के से मैं कभी शादी नहीं कर सकती, जिसमें अभी से इतनी नफरत भरी हो। ऐसा व्यक्ति तो सपने में भी सुख नहीं दे सकता। आप रिश्ता तोड़ दीजिए और जो आपने दिया है उसे वापस ले लीजिए। अभी मेरी शादी मत करिए, मुझे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए और पढ़ाइए…।‘


इतना कहकर पूनम ने लड़के वालों की दी हुई अंगूठी और साड़ी आदि यह कहकर पिता को दे दी कि आप इसे वापस करके आएं और यदि वे हमारे दिए हुए रुपये और सामान नहीं लौटाते हैं तो उनके खिलाफ थाने में मुकदमा दर्ज करा दें।


लड़के वालों के इतने दिमाग खराब हो गए कि हमारी इज्जत ही कुछ नहीं समझ रहे।
 पूनम का साहस भरा निर्णय सुनकर रामदयाल के पैरों की जमीन ऊपर उठने लगी।