जबलपुर- सौंदर्य बिखरते भेड़ाघाट, धुआंधार

संस्कारधानी जबलपुर के बारे में यह जानकारी तो थी कि जबलपुर पवित्रा नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। नर्मदा मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। 1310 किलोमीटर लम्बी यह नदी भरुच पहुँच कर खंभात की खाड़ी में अपना अस्तित्व सिंधु में विलीन कर देती है।


किसी समय यह महान मौर्य और गुप्त साम्राज्य का भी हिस्सा रह चुका है। ईसा पूर्व 875 में कल्चुरि वंश के राजाओं का आधिपत्य इस क्षेत्रा में हुआ और जबलपुर उनकी राजधानी बनी। 13 वीं सदी में इस क्षेत्रा को गोंड शासकों ने हथिया लिया और यह नगर उनकी राजधानी बनी। इसीलिये यह क्षेत्रा गोंडवाना के नाम से भी जाना जाता है।


किंवदंतियों के अनुसार जबलपुर का संबंध जाबालि ऋषि से है जिनके बारे में कहा जाता है कि वह यहीं निवास करते थे। 1100 ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड महल है। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ है जो 14वीं शताब्दी के चार स्वतंत्रा गोंड राज्यों का प्रमुख नगर था। भेड़ाघाट, ग्वारीघाट और जबलपुर से प्राप्त जीवाश्म इस नगर के  प्रागैतिहासिक काल के पुरापाषाण युग के मनुष्य का निवास स्थान सिद्ध करते हैं।
अनेक बार मुगल शासकों ने इस राज्य पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास किया। अपने राज्य की स्वतन्त्राता बनाये रखने के लिये गोंड महारानी दुर्गावती ने बादशाह अकबर की  सेना से लोहा लेते हुए अपने प्राण विसर्जित किये। अंततः यह क्षेत्रा सन् 1789 में मराठों के अधिकार में आ गया। सन् 1817 में इसे ब्रिटिश शासन ने मराठों से जीत लिया और यहाँ पर अपनी महत्त्वपूर्ण छावनी स्थापित की। बाद में यह सागर और नर्मदा क्षेत्रों के ब्रिटिश कमीशन का मुख्यालय बन गया। संस्कारधानी जबलपुर भारतीय संस्कृति के साहित्य, कला जैसे विभिन्न आयामों के लिए पूरे देश में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है तो नर्मदा के मनोहरे घाट भी आकर्षित करते हैं।


जबलपुर पहुंचने पर मालवीय चौक स्थित मयूर होटल में कादम्बरी के महामंत्रा आचार्य भगवत दुबे स्वागत के लिए उपस्थित थे। स्नान, ध्यान के बाद नाश्ता और फिर देश विभिन्न भागों से पधारे साहित्यकारों से मुलाकात का सिलसिला और उसके बाद हितकारिणी संस्थान के नर्सिंग काजेल में प.भवानी प्रसाद तिवारी स्मृति संगोष्ठी में सहभागिता की तैयारी। लोकप्रिय साहित्यकार स्व. प.भवानी प्रसादजी तिवारी जो कि सात बार जबलपुर के महापौर रहे, सांसद रहे।  संगोष्ठी में उनके विराट व्यक्तित्व के अनेक अनछुए पहलुओं की जानकारी भी मिली। तिवारीजी का प्रसिद्ध गीत ‘मीत मेरे दो विदा, मैं जा रहा हूँ! …लो संभालो कुन्जियां घर द्वार की, मैं जा रहा हूँ!’ की ये पक्तिंया उसी दिन से मन-मस्तिष्क में बार-बार गूंज रही हैं। उसी शाम कादम्बरी ने अपने संस्थापक पंडित रामेंद्र तिवारी के जन्मोत्सव पर अखिल भारतीय साहित्यकार एवं पत्राकार सम्मान समारोह आयोजित किया जिसमें  देशभर से चुने हुऐ 25 सृजन शिल्पियों को सम्मानित किया गया।


प्रथम दिन हमने गुरुनानक देव के भारत भ्रमण से जुड़े गुरुद्वारा मढ़ाताल के दर्शन भी किए। कहा जाता है कि प्रथम पादशाही ने कभी इस स्थान को अपनी चरण रज से पवित्रा किया था। मित्रों से चर्चा के दौरान रामायण एवं महाभारत की कथाओं, मदन महल, नगर में स्थित कई ताल और गोंड राजाओं द्वारा बनवाए गए कई मंदिरों  तथा क्षेत्रा में कई बौद्ध, हिन्दू और जैन भग्नावशेष की जानकारी मिली तो उत्सुकता और बढ़ गई इसलिए अगली सुबह बहुत जल्दी उठकर जबलपुर भ्रमण- अवलोकन के लिए निकल पड़े।


जबलपुर का भौगोलिक क्षेत्रा पथरीली, बंजर जमीन और पहाड़ों से आच्छादित है। जबलपुर में संगमरमर की बेशुमार चट्टानें हैं। यहाँ का खास आकर्षण भेड़ाघाट और धुआंधार जलप्रपात है। जबलपुर से लगभग बीस किलोमीटर दूरी पर बसा है भेड़ाघाट। इससे कुछ ही दूरी पर धुआंधार है जहाँ नर्मदा संगमरमरी चट्टानों के बीच से बहुत संकरे रास्ते से बहती है। इसके बाद एक बहुत गहरे स्थान में पानी गिरने से पानी की जगह धुआं ही धुआं दिखाई देता है। ठीक सूर्योदय के समय इस प्रपात के पास पहुँचकर हमने प्रकृति के इस अद्भुत खजाने का आनंद लिया। ऊपर से नीचे चट्टान पर गिर रहे पानी का एक अलग ही अंदाज और आवाज था।  यहाँ  हमारे कैमरे की बैटरी जवाब दे गई तो साथी के कैमरे से इन क्षणों को कैद करते कुछ फोटो लिये। इस नयनाभिराम दृश्य को देखने के बाद हम योगिनी मन्दिर गए जहाँ काफी सीढ़ियां चढ़ने के बाद खंडित मूर्तियों को देखकर ऐसा करने वाले कला के असहिष्णु दुष्टों के प्रति मन आक्रोश से भर गया।


योगिनी मंदिर से कुछ दूरी पर पंचवटी घाट पर स्नान कर पास के एक रेस्टोरेंट में नाश्ता किया और नाव पर सवार होकर निकले उस पहाड़ी नदी की सैर पर। चट्टानी कंदराओं के बीच चल रही नाव में हमारे अतिरिक्त चार लोग और सवार थे। नाविक राजेश काफी तेज तर्रार युवक था। नाव के आगे बढ़ते ही उसने काव्यात्मक रनिंग कमेंट्री सुनाना शुरू किया…‘.यहाँ राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है। ..और यहाँ प्रेमनाथ की यहाँ शाहरूख की रात का नशा और न जाने कौन कौन सी फिल्मों की शूटिंग हुई थी। वह देखो वहाँ संगमरमर लाल है क्योंकि यहाँ बैठी थी रेखा, सबने उसको देखा। उसकी साड़ी थी लाल, रंग छूट गया तो पत्थर भी हो गए लाल। साड़ी थी बम्बई की, इसीलिए पत्थर हुआ बदरंग। अगर साड़ी होती जबलपुर की तो फट जाती पर कभी न छूटता रंग! यह देखो यहाँ है गहराई  चार सौ फीट, जो भी यहाँ डुबकी लगायेगा, कल सुबह उसका फोटो भास्कर में आएगा!’


हम उसकी बातों का मजा लेते हुए इसी तरह के दिलचस्प संवादों के बीच चारो ओर दृष्टि दौड़ाते हुए प्रकृति की आगोश में खो रहे थे। यहाँ  आ चुके पर्यटकों के अनुसार सभी नाविक अपने अपने ढंग से कमेन्ट्री सुनाते हुए यात्रा को दिलचस्प बनाते हैं। एक स्थान पर नदी के बीच चट्टान पर शिवलिंग बना था। नौका कुछ देर वहाँ रोककर हमने जलाभिषेक किया। इसी बीच नाविक संदीप ने हमारे कुछ फोटो खींचे। उसका अंदाज भी बहुत दिलचस्प था। ‘रेडी, स्माइल, स्माइल प्लीज’ कहना हम सभी को मुस्कुराने के लिए विवश कर देता था। एक अन्य स्थान पर चट्टान पर चढ़ते हुए कैमरा हाथ से छूट गया जो संयोग से पानी में गिरने से बच गया।


हम करीब एक घंटे नर्मदा के जल में नौका विहार करते रहे।  संगमरमर की चट्टानों के बीच कल कल बहती नर्मदा के बीच अखबार पढ़ते सतना के एक छात्रा संजय प्रजापति ने जब उसमें प्रकाशित हमारी फोटो देखी तो बातचीत का क्रम कवि और कविता की ओर मुड़ गया। उसने हमसे आटोग्राफ देने को कहा। मैंने गाइड राजेश और नाविक जमा फोटोग्राफर संदीप के व्यवहार पर कुछ काव्यात्मक टिप्पणी की तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उनके आग्रह पर मैंने अपने विजिटिंग कार्ड पर उसे कुछ यूं लिखकर दिया-
स्माइल प्लीज संदीप की, कभी न भूली जाय।
भेड़ाघाट की सुंदरता, बार-बार बुलाय।।
पंचवटी के घाट पर, खिंचे बाल की खाल।
संगमरमर खामोश हैं, नाविक हैं वाचाल।।


नौका विहार के बाद वहाँ दुकानों में संगमरमर की हाथों से बनी अनेक कलाकृतियाँ देखीं। देवी देवताओं  से समाधिस्थ बुद्ध, आधुनिक साज सज्जा से लेकर महिलाओं के बाल में लगाने वाला हेयर पिन तक। नक्काशी का सामान था तो उस पर कलात्मक ढंग से नाम भी लिखा जा रहा था।


कलकल करते जल के संगीत और नर्मदा की गहराई की मधुर स्मृतियां संग प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की नगरी जबलपुर का यह प्रवास अत्यन्त दिलचस्प रहा। भेड़ाघाट और धुआंधार की परछाई आज भी लगातार हमारी स्मृतियों में ताजा हैं।