कहानी – अंत का आरंभ

जग्गू बहुत खुश था। इतना खुश वह पहले कभी नहीं हुआ। होना स्वाभाविक था, क्योंकि वर्षों बाद उसे पहली बार नारी समर्पण का ऐसा सुख मिला था जैसे उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि वह सच था या कोई सपना। नहीं यह ऐसे था जैसे दो और दो चार। उसने उस एक-एक लमहे को जैसे दिल की कोठरी में कैद कर लिया था। उसने जाम गले से उतारा और आँखें भींच ली।


जग्गू लोग ठीक ही तो कहते हैं कि बारह साल में तो कूड़े के भी भाग जागते हैं। गिलास में दूसरा पैग डालते उसे बेवफा करमो की याद आई जिसने दस बरस पहले उससे तलाक ले लिया। कारण घर के मामूली झगड़े। दरअसल करमो की निगाह में वह बदसूरत था, असभ्य था। हालांकि वह मिडिल पास है और वक्त की ठोकरें खाकर एक अच्छा आटो मिस्त्री बन गया है। उस दुखान्त के बाद वह इस शहर में एकांत सी जिंदगी जी रहा है। मां-बाप बचपन में ही गुजर गये थे।


वैसे वह पटियाला जिले के हरियाणा सीमा से सटे एक गांव का रहने वाला था। खेती पत्ती थी नहीं। गांव के पश्चिमी छोर में शेष गांव से कटी… माजरी में एक छोटे से कच्चे कोठे का बंधन भर। कच्चे घर को गारा न लगे तो घर गारा बन जाता है। और ऐसा ही हुआ। चींटियों के सिरजे मालरोड की राह से छत टपकने लगी। जल्दी ही कडिय़ां गलकर मिट्टी हो गयी। पड़ौसी लच्छू ने मौका देखकर कोठे को अपने आंगन का हिस्सा बना लिया। जैसे कोठा था ही नहीं। जब अर्से बाद वह गांव आया तो लठैत लच्छू ने उसके हाथ में ग्यारह सौ रुपये थमा दिये। लड़के उसकी कमजोरी भांप लालपरी और मुर्गा ले आये। मान-सम्मान व गुस्सा बिसार वह लालपानी में बह गया और ग्यारह सौ रुपये में अपनी जड़ें कटवाकर शहर लौट आया।
करमो भी पास ही हरियाणे के एक गांव की रहने वाली थी- उसी की बिरादरी की। पर खुदा ने उसे रूप के खुले गफ्फे दिए थे।


इसी रूप गुमान ने उसकी कल्पना में एक सुन्दर से राजकुमार को जन्म दिया। पर मां की असामयिक मौत के बाद बेकार नशेड़ी बाप की हालत खस्ता हो गई और उसने महज नौ हजार रुपये लेकर जग्गू से शादी कर दी। वह अक्सर ताना देती थी- अगर मेरी माँ जिंदा होती और बापू के पास चार पैसे होतो तो तुझे यूं मेरे मत्थे न मढ़ते। एक बार उसने करमो को गीत की ये पंक्तियां गुनगुनाते सुना था :


मेरा बापू है गरीब, मेरे चंदरे नसीब
मैं दाज बिना बैठी हां कुंआर
कि तिन्न वार भंग छुट गई…।


वैसे उसने करमो को हर तरह से खुश रखने की कोशिश की थी पर उसके खोटे करम कि नाकाम रहा।


हूँ करमो तुझे बड़ा गुरूर था न अपने हुस्न का। देख आज मेरी जिंदगी में भी कैसे सुनहरे पल आये हैं। अरे तू तो उसके पैर की जूती भी नहीं। गुलाबी होते नशे के साथ स्मरणीय पल और भी जीवंत हुए जा रहे थे।


इंजन ओवरहॉल कर वह सिम्बोसिस के साथ वाली पहाड़ी पर घूमने चला गया था। शाम में वहां बैठना उसे बहुत अच्छा लगता है। वहां से शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। हर वर्ग के सैर करते लोग जैसे किसी जीवनी शक्ति की तलाश में हों। संध्या के धुंधलके में झाडिय़ों की आड़ में अपनी ही दुनिया में खोये प्रेमी जोड़े उनके सपने…।


उसकी निगाह करीब बीस-पच्चीस गज दूरी पर बैठी लड़की पर पड़ी- विचार मग्न, प्रतीक्षारत। कौन होगा वह भाग्यवान… उसने मन ही मन लड़की के सपनों के शहजादे के बारे में सोचा। कई कल्पित चेहरों के अक्स दिमाग में बने और मिटे। और फिर वह बेचैन होगया। इसी अवस्था में पन्द्रह बीस मिनट और निकल गये। पर कोई नहीं आया। आसमान में घरोदों को लौटते पक्षियों का कलरव सुनाई पडऩे लगा था। मकानों की बत्तियां, सड़कों पर मरकयूरी लैंप और वाहनों की जगी, अधजगी बत्तियों से उसे ऐसा आभास हुआ जैसे असंख्य सोये उल्लूओं ने अचानक आँखें खोल ली हों।


धीरे-धीरे लोग वापिस जाने लगे थे। उसे अकेली बैठी लड़की की निडरता पर हैरानी हुई थी। जाने क्यों उसके भीतर एक धुकधुकी सी होने लगी। मन बेलगाम पागल घोड़े की तरह सरपट दौडऩे लगा था। वह झिझकता सा उठा और हिम्मत जुटाकर उस ओर बढ़ा। करीब आ पूछा, आपको किसी का इंतजार है क्या?


हाँ! लड़की ने हाथ के कंकर को एक बड़े पत्थर पर मारते उसकी ओर देखते कहा।
जग्गू को उन आँखों में जैसे एक मूक निमंत्रण लगा। बात आगे चलाई, बहुत देर हो गई है आपको बैठे, शायद अब न आये।


लगता तो ऐसा ही है। आ जाता तो… लड़की का स्वर कुछ बुझा बुझा सा था, अब बड़ी मुश्किल होगी।


क्यों? ऐसी भी क्या… आप साफ बात बताईये… शायद मैं कुछ…. उसके स्वर में सहज सहानुभूति थी।


मुझे कुछ…

हां हां बोलिये… और वह उसके गरीब आ बैठा था। लड़की ने कोई प्रतिवाद न किया, सहज बैठी रही।


मुझे कुछ पैसे दरकार हैं। बड़े करीब परिवार से हूँ। छोटी बहन की फीस देनी है। आँखों में करुणा और स्वर में वेदना साफ झलकती थी।
जग्गू को लगा जैसे वह किसी ऊँचे आसन पर विराजमान हो। सच की तह तक पहुंचने की तर्ज पर पूछा, बाप क्या करता है?


किराये की छोटी सी दुकान है। उसे जुए और शराब की…
ओह! शब्दों में व्याप्त व्यथा ने जग्गू के मन से नारी जाति के प्रति आक्रोश को पानी कर दिया। कुछ और पूछकर वह खुद छोटा नहीं होना चाहता था। जेब से बटुआ निकाला और पचास-पचास के दस नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, चलेगा?


थैंक्स…! शुक्रिया… सच तुम कितने अच्छे हो डियर!
उसके इन शब्दों से जग्गू को लगा जैसे यह शब्द न होकर जीवन धारा हो जिस पर तीन लोक वारे जा सकते हैं। जीवन में पहली बार उसे परम आत्मीयता के ये शब्द सुनने को मिले और वह भी एक परम सुन्दरी के मुंह से। वह जैसे एक तल नीचे आ गया। बड़े सहज एवं भोलेपन से कहा, मुझे आज तक किसी ने ऐसा नहीं कहा।


लड़की ने उसके चेहरे पर आँखें गढ़ाते हुए कहा, क्या बीबी ने भी नहीं?
मेरी औरत नहीं है।
शादी नहीं की या मर गई?
मर ही गई समझो। दस बरस पहले मुझे छोड़कर किसी और का घर… कहते उसका चेहरा निस्तेज हो गया।


यह तो बहुत बुरा हुआ। अकेले कैसे रहते हो? स्वर में हृदय में सेंध लगाने वाली आत्मीयता।
मत पूछ बस! उसका हाथ लड़की के हाथ तक पहुंच गया। उस स्पर्श में कंपाहट थी। लड़की ने बेखबर होने का अभिनय किया। हल्की सी गर्माहट पर जाने क्यों तो उसे लगा था जैसे जिस्म आग में झुलसा जा रहा हो। वह जान ही नहीं पाया कब और कैसे उसका हाथ लड़की के कंधे तक पहुंच गया। जैसे वह एक तूफान में बह जाना चाहता हो। भीतर का प्रवाह जैसे सब बांध किनारे तोड़ देने को आतुर हो। मुझे… मुझे… उसने भावतिरेक में कहा।
आगे शब्द चूक गये। सब कुछ अप्रत्याशित सा। अब वह पूरी तरह समर्पित थी। वहां से उठकर वे एक घने झाड़ के पीछे चले गये थे। जहां घना अंधकार था। जह वहां से निकले तो लड़की ने बड़े नाटकीय ढंग से जग्गू का ही दिया पांच नोट लौटाते कहा, रख ले रे। अब मैं बहुत खुश हूं…। वह हतप्रभ सा रह गया था। अजीब सा विचार आया मन में कि यह उसके पुरुषत्व का प्रभाव एवं प्रमाण था। अतिन्म घूंट भरते वह शब्दों का अर्थ तरह-तरह से किए जा रहा था पर कोई अर्थ स्थिर नहीं हो पा रहा था। इस अनिश्चय में भी उसके ओठों पर मधुर मुस्कान तैर गई।


और एक दिन-
हे यह क्या! अरे यह तो वही लड़की है! उसकी निगाह पेशवा पार्क के बैंच पर बैठी एक लड़की पर पड़ी जो एक युवक को संकेत कर रही थी। लड़के ने इधर उधर देखा और फिर उसके पास चला आया। दोनों दो तीन मिनट बैठे फिर बाल गन्दर्भ मंदिर के सामने खड़े आटो रिक्शा में बैठ दक्खन जिमखाना की ओर चल दिए।
उसके मुंह में लगी बीड़ी बुझ चुकी थी। साली गश्ती। उसने गाली दी फिर बुझी बीड़ी को नीचे फैंक जूते से मसल दिया। जैसे कोई सुनहरा ख्वाब था जो टूट गया।


तीन दिन बाद
काम के समय चाय पीते एक सांध्य अखबार की सुर्खी ने उसे चौंका दिया… होटल हनीमून में रेड…. तीन सुन्दरियां काबू… सूचना मिलने पर एड्स रोको अभियान दल के सदस्य वहां पहुंच गये। जब उनका एड्स के लिए टेस्ट करने लगे तो एक सुन्दरी ने पहले ही स्वीकार लिया कि उसे एच.आई.वी. पॉजिटिव है… उसे जैड ए अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया। जब उसकी निगाह तस्वीर पर पड़ी तो धुंधलका छंटने लगा। ओह यह तो वही… और प्याली और अखबार हाथ से छूट गये। बदहवास सा वहां से भागा। आटो किया और अस्पताल पहुंचा।


जीवन कितना अर्थहीन क्यों न हो उसे त्रास्द अंत के जुएं में कभी नहीं लगाया जा सकता। भूल से ऐसा हो जाए तो मनुष्य मानसिक संतुलन खो बैठता है। ऐसा ही जग्गू के साथ हुआ। जब वह वांछित मरीज तक पहुंचा तो जैसे उसकी सारी जीवनी शक्ति खत्म हो चुकी थी। अटेन्डेंट के थोड़ा हटते ही मन का आक्रोश फूटा, जब तुझे पता था कि तू इस नामुराद बीमारी की शिकार है तो मुझे क्यों नर्क में धकेला? तू औरत नहीं डायन है। सारी औरत जात पर कलंक। तुझे तो चौराहे पर खड़ा कर तोप से उड़ा देना चाहिए। जिस्म क्रोध से कांपने लगा। वह जरा भी विचलित नहीं हुई। भावविहीन चेहरा। संयत स्वर में कहा, तुम्हारा कहना सोचना बिल्कुल सही है। पर इसमें सिर्फ मेरा दोष नहीं। इसके लिए पुरुष दोषी है।
आदमी… कैसे? उसकी श्वास अभी भी अस्वाभाविक रूप से तेज चल रही थी।
सुनो! मैंने तब तुमसे झूठ बोला था। मैं एक अच्छे खाते पीते परिवार से संबंध रखती हूं। मैं कॉलेज में पढ़ती थी। एक दिन वहां रक्तनदान कैंप लगा। मैंने भी और लड़के-लड़कियों की तरह रक्तदान किया। ऐसा कर मैं बहुत खुश थी। किसी कारणवश रक्तदाताओं का ब्लडग्रुप चैक किया गया था एच.आई.वी. टेस्ट नहीं।


कुछ दिन बाद सरकारी अस्पताल के दो कर्मचारी हमारे घर आये। इत्तिफाक से तब मैं घर पर अकेली थी। उन्हें देख मुझे बड़ी हैरानी हुई। दरअसल हुआ यह था कि मेरा ग्रुप जो कि एक रेयर ब्लड ग्रुप है, का खून किसी मरीज को देना था। जब खून चढ़ाने से पहले उस खून की जांच की गई तो वह एच.आई.वी. प्रभावित पाया गया।


लच्छू के माथे पर पसीने की बूंदे तैर रही थी।
उन्होंने रजिस्टर से देखा जिसमें शीशी पर लिखे सीरियल नंबर के साथ रक्तदाता का नाम भी दर्ज था। कॉलेज में छुट्टी होने के कारण उन्होंने वहां ड्यूटी पर हाजिर चौकीदार से हमारे घर का पता पूछा। मेरे पिताजी को सभी जानते हैं और चौकीदार एक दो मर्तबा काम से हमारे घर भी आया था, सो उसने पता ठिकाना बता दिया।
मैंने उन्हें बताया कि मैंने अब तक किसी मर्द से सहवास नहीं किया सिवा एक बार अपने मंगेतर से जिससे शीघ्र मेरी शादी होने वाली थी। तब पागलपन के आवेश में मैं अपने मंगेतर के यहां भागी। जग्गू के माथे की नसें तनी थी।
आगे देखा वह एक बाजारू किस्म की औरत को अपनी बाहों में लिए था। उसने गहरी निश्वास छोड़ते कहा, अब सारी बात मेरी समझ में आ गई थी कि कैसे? एक क्षण रुक बड़े तल्ख स्वर में उसने कहा, उसके बाद मेरे दिल पे क्या बीती ये बयान से बाहर है। … मां-बाप की बदनामी के डर से अपना घर बार छोड़ दिया।
 तब से मेरे मन में पुरुष जाति से बदला लेने की ऐसी उग्र भावना जगी, ऐसी पागल सोच हावी हुई मुझ पर कि ठान लिया कि मैं तो मरूंगी ही पर मरने से पहले हजारों मर्दों को इस विष ज्वाला में… कह वह रुकी। उसके चेहरे पर एक साथ कितने भाव लक्षित होते रहे, याद नहीं। वह जड़वत सा उसे निहार रहा था।
उसने अवरुद्ध कण्ठ से कहना शुरू किया, पर अब यहां आकर… इस बीमारी का जो कुंभी नर्क रूप देखा… लोगों को मात्र यह पता चलने पर… कि उन्हें लाइलाज रोग लग गया है… पागल होते, आत्महत्या करते… सभी सगे संबंधियों द्वारा पीछा छुड़ाते… और क्या-क्या नहीं करते देखा… कि कहा नहीं जा सकता।
अब मुझे अपनी भूल पर बेहद पश्चाताप है… सच इतना पश्चाताप कि… हाय यह मैंने तब क्या सोचा… क्या किया… क्यों किया… मैं मर क्यों न गई…. वह रूँआसी हो गई।
जग्गू समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, क्या न कहे। उसके इस पश्चाताप से लच्छू का खोया तो नहीं आ सकता था पर उसके क्रोध की धार जरूर कुंद पड़ गई।
लड़की ने उसी भाव प्रवाह में कहा, बस अब तो तुमसे एक ही विनती है… एक ही…
कहो! भगवान के लिए तुम मेरी गलती न दोहराना…। भूल से भी यह भूल न करना। मनुष्य की जान बड़ी मुश्किल से मिलती है। कहते हैं मानव योनि में ही मुक्ति मिली है प्राणी को..। आगे का नर्क किसने देखा… पर मैंने देख लिया है। इसीलिए तुमसे कहती हूं अगर कोई नर्क है तो यह नामुराद बीमारी है, यही है, यही है… इससे बड़ा और कोई नर्क न है, न होगा। तनिक रुककर कहा, इस बीमारी की बाबत डॉ. सक्सेना ठीक ही कह रहे थे- दिस इज द बिगनिंग ऑफ द एंड।
एड्स माने दुनिया के अंत का आरम्भ… और वह निढाल हो गई।
तभी एक संस्था की सदस्य दौड़ा आया। उसने लड़की को सहारा देकर बैठाया… देखो सरिता हिम्मत मत हारो। इस रोग में भी कुछ बरस हंसी-खुशी और सार्थक ढंग से बिताए जा सकते हैं।
मैं क्या करूं अब? सब कुछ तो खत्म हो चुका है।
कभी सब खत्म नहीं होता। तुम शेष जीवन लोगों को एड्स से जागृत करने में लगा सकती हो। कितने लोग तुझसे जीवन पायेंगे।
याद रखी जीवन एक चुनौती है, स्वीकार करोगी तो खुशियों के फूल भी खिलेंगे।