वैशाखी पर याद करें जलियांवाला बाग और शहीद ऊधमसिंह को

पंजाब में वैशाखी पर्व का बड़ा महत्त्व है। विशाखा नक्षत्र से प्रभावित एवं संबंधित होने के कारण यह मास वैशाख कहलाता है। पंजाब के लिये वैशाख मास प्रारंभ से ही महत्त्वपूर्ण रहा है क्योंकि इसी समय नवीन फसल के स्वागत की उमंगें पंजाबवासियों के दिलों में अंगड़ाइयां लेने लगती हैं। वैशाखी का त्योहार उनकी इसी उमंग का द्योतक है जिसमें उनकी खुशी औपचारिक सीमाएं तोड़कर बहने लगती हैं। उत्तर भारत के होलिकोत्सव तथा दक्षिण भारत के पोंगल की भांति पंजाब का वैशाखी त्योहार सम्पूर्ण भारत में राग-रंग और मस्ती भरे मेलों के लिये प्रसिद्ध है।

इतना सब कुछ होने के बावजूद भी इस पर्व से समीपता रखती हुई एक दर्दनाक घटना भी जुड़ी हुई है। अंग्रेज हत्यारे जनरल डायर की मशीनगनों से मारे गये 1200 शहीदों और घायल 3600 निर्दोष लोगों की याद वैशाखी पर्व पर अनायास ही उभर आती है और फांसी पर चढ़ने वाले एक अन्य महाप्राण का चेहरा तेज से दैदीप्यमान होता हुआ सामने जगमगा उठता है। जलियांवाला बाग हत्याकांड की इस घटना ने उसे झकझोर कर रख दिया था। उसने प्रण किया-देश के इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा। डायर को जिंदा नहीं छोडूंगा।‘

डायर ने निहत्थों पर साढ़े सोलह सौ गोलियां दागी थीं। वैशाखी का दिन था-अमृतसर के जलियां वाला बाग में विशाल मेले की भीड़-भाड़। रौलेट एक्ट के खिलाफ वहीं सभा हुई जिसमें लगभग 20 हजार लोग शामिल हुये। जनरल डायर की मशीनगनों ने घेर कर उन्हीं का शिकार किया। इतना खून बहा कि समूची भूमि लाल हो गई।

समय बीतता गया पर जलियां  वाला बाग की यह घटना उसके दिमाग पर गहरा असर कर गई। बाद में राष्ट्रीय अपमान का बदला इस वीर ने खास लंदन में जनरल डायर को मार कर लिया। वह वीर कोई और नहीं बल्कि ऊधमसिंह थे। बाद में अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दे दी। पेन्टनबिला जेल में वह महान क्रान्तिकारी फांसी चढ़ा।

फांसी चढ़ते वक्त ऊधमसिंह ने कहा था-’मैं मौत से नहीं डरता। मैं अपनी मातृभूमि के लिये शहीद हो रहा हूं और इस पर मुझे अभिमान है। बूढ़े होकर मौत की प्रतीक्षा करते रहना बेकार है-उससे युवा मौत मरना कहीं बेहतर है और यही उचित भी है। डायर पर मैं बहुत क्रुद्ध था और वह इसी के लायक था।‘

इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है जो देश के बहुत कम लोगों को मालूम है। वैशाखी पर अमृतसर के जलियांबाग हत्याकांड में वीभत्स नरसंहार करने के बाद जनरल डायर एक दिन एक ट्रेन से यात्रा कर रहा था तो बहुत खुश था। प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठ बड़ी शान से अपनी काली करतूत का बखान कर रहा था।

वह पूरे कम्पार्टमेन्ट के लोगों को बता रहा था कि किस तरह उसने अमृतसर में इकट्ठे हुये काले लोगों की भारी भीड़ को गोलियां से भूना और ब्रिटिश सरकार की वफादारी का सबूत दिया। डायर बता रहा था कि ’मैं चाहता तो पूरे अमृतसर की मशीनगनों से भून डालता क्योंकि वह शहर इस समय मेरी ही दया पर छोड़ दिया गया था। एक बार मेरे मन में यह ख्याल आया भी था कि पूरे अमृतसर को बारूद से भून कर खाक बना दूं।

 ’सुनने वाले सभी लोग अंग्रेज फौजी अफसर थे। अलबत्ता एक भारतीय भी इसी डिब्बे में ऊपर की सीट पर आराम कर रहा था और डायर की दंभयुक्त दास्तान सुन रहा था। डायर की इस दुष्टता पर इस व्यक्ति ने कोई आक्रोश या असंतोष व्यक्त नहीं किया। यह कम आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि वहीं आदमी बाद में बहुत ’महान व्यक्तित्व‘ के रूप में भारत पर हावी हुआ। बाद में वह देश का प्रथम प्रधानमंत्राी भी बना। जनरल डायर के डिब्बे में यात्रा करने वाले उस व्यक्ति का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरू।

नेहरू का प्रसंग यहां जबर्दस्ती या काल्पनिक रूप से नहीं जोड़ा गया है वरन् यह बात तो अब इतिहास का पृष्ठ बन गई है। उस दिन डायर लाहौर से अमृतसर वापस आ रहा था। लाहौर में वह ‘हंटर समिति’ के समक्ष अपना बयान देने गया था। नेहरू जी जनरल डायर के इस नितान्त अपमानपूर्ण आत्मकथ्य को भूल गये लेकिन एक और आदमी था जो डायर को क्षमा नहीं कर सका – शायद कर भी नहीं सकता था। उसने जलियांवाला बाग हत्याकांड को नेहरू जी से कहीं भिन्न रूप में लिया था। वह व्यक्ति था ऊधमसिंह।

उसको भी एक गोली लगी थी यद्यपि यह गोली उसे हत्याकांड के वक्त नहीं लगी थी। लगी थी उस वक्त जब वह जलियांवाला बांग में एक हुतात्मा की लाश अन्धेरे में खोज रहा था। साथ थी हुतात्मा की पत्नी रत्नदेवी। वहां सशस्त्र गोरों का कड़ा पहरा था। खोजते खोजते लाश मिल गई लेकिन रत्नदेवी दहाड़ मार कर रो उठी- आवाज सुनकर गोरे सैनिक ने गोली मार दी। ऊधमसिंह की दाहिनी भुजा चाक हो गई। वह घाव उसे नहीं तड़पा सका। तड़पाने लगी वे 1200 लाशें और कटे फटे अंगों वाले उन 3600 घायल इंसानों की आहें कराहें। डायर को मारने का प्रण उसने उसी दिन किया।

देश के प्रति त्याग की भावना होने के बावजूद भी ऊधमसिंह ने कभी अपना नाम नहीं चाहा। जीवन जीने के तौर तरीके पागल दीवाने के अपनाये। पूछने पर नाम बताते थे ’राम मुहम्मद सिंह आजाद।

लन्दन में अंग्रेज मजिस्ट्रेट कहता है-’जासूसी रिपोर्ट के अनुसार तुम्हारा नाम तो ऊधमसिंह है?

प्रति उत्तर में वह फरमाते हैं ’जी नहीं, ऊधमसिंह कोई और होगा। आप तो मुझे राम मुहम्मद सिंह आजाद के नाम से ही संबोधित करें।

मरने वाले क्रांतिकारी की आत्म प्रसिद्धि के प्रति घृणा देखिये-वे कहते हैं, मैं मरता हूं तो क्या, मरने दो। मेरा नाम-धाम जानकर क्या करोगे? मुझे अनाम अज्ञात ही मरने दो। कोई न जाने, मेरी याद में कोई आंसू न बहाये-अज्ञात, अदृश्य, अनाम जाना अच्छा। आज हम चले जायेंगे। फिर लौटकर आना नहीं होगा। फांसी की चाह कोई कोई ही रखता है। देश आजाद हो जायेगा तो हम दुबारा फिर लौट आयेंगे।

उनका नाम ऊधमसिंह ही था। यह जानकारी तो विश्व और ब्रिटिश सत्ता को अंग्रेज जासूसों ने दी, उस शहीद ने नहीं वरना ऊधमसिंह को कौन जानता? वैशाखी न आये और जलियांवाला बाग-हत्याकांड की याद न आये तो वर्ष में एक बार भी क्या हम उस महान शहीद को याद करते? नहीं न। फिर:-

कोई चार फूल चढ़ाये क्यों।

 कोई शमा लाके जलाये क्यों?

कोई फातिहा पढ़ने आये क्यों।

बेठिकाने जिनका मजार है।

हरीराम चौरसिया ‘घाघ’