किस्मत हाथों से नहीं, पैरों से लिखी जाती है

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मैदान में एक संवाद है वो ये कि फुटबाल पूरी दुनिया में ऐसा खेल है जिसमें किस्मत हाथों से नहीं, पैरों से लिखी जाती है। यकीनन इसमें कोई दो राय भी नही है। इस बात को साल 1962 के एशियन खेलों में भारतीय फुटबाल टीम ने फाइनल में दक्षिण कोरिया को हराकर सच भी साबित किया था।

इतना भर नही बल्कि साल 1950 से 1963 तक भारतीय फुटबाल टीम के कोच रहे सैयद अब्दुल रहीम के नेतृत्व में टीम को ब्राजील ऑफ एशिया का दर्जा मिला था। उन्हीं की जिंदगी पर फिल्म मैदान बनी है।

हमारे सिनेमा उद्योग में लंबे समय से देखा जा रहा है कि खेलों और खिलाडियों की कहानी, किस्से और उन पर बनने वाली ड्रामेबाजी बंबईयां फिल्मकारों का पुराना और पसंदीदा सगल रहा है। गर ये स्पोर्ट्स ड्रामा किसी खिलाड़ी के जीवन पर बनाना हो तो फिर तो सोने पे सुहागा हो जाता है। ऐसी फिल्में हमारे निर्माताओं के लिए बिना रिस्क के कमाई का आसान जरिया बन जाती है। दर्शक इस तरह की फिल्में देखकर देशभक्ति के जज्बे के साथ ही जोश ए जूनून से भर जाते है।

इधर पिछले कुछ सालों से निर्माता दर्शकों को इस तरह की फिल्में परोसने में कुछ ज्यादा ही रूचि भी दिखा रहे है। सच तो यह है कि जब दर्शक भी इस तरह की फिल्मों का दिल से स्वागत करते है तो फिर निर्माता क्यूं न परोसे।


इसी कारण अतीत से अब तक हॉकी पर चक दे इंडिया, दौड पर भाग मिल्खा भाग, बॉक्सिंग पर मैरी कॉम, कुश्ती जैसे ठेठ देहाती खेल पर दंगल और कबड्डी जैसे विषय पंगा जैसी फिल्में बनी। इन सभी फिल्मों ने दर्शकों का खूब प्यार बटोरा।

आपको बता दूं कि अजय देवगन की इस मैदान फिल्म की घोषणा पहली बार 2019 में की गई थी। पहले पोस्टर में अजय को नीली शर्ट-काली पैंट में हाथ में ऑफिस बैग के साथ दिखाया गया था, इस पोस्टर ने फैंस की उत्सुकता भी बढ़ा दी थी। अजय के चाहने वाले इस फिल्म का इंतजार बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। फिल्म 11 अप्रैल को देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। यह हिंदी में बनी है।



मैदान की कहानी
तो चले अब हम चलते है फिल्म की कहानी की तरफ। क्या है मैदान की कहानी तो इसकी शुरूआत साल 1952 में नंगे पैर यूगोस्लाविया के साथ खेल रही भारतीय फुटबाल टीम की हार से होती है। हार का सारा ठीकरा कोच सैयद अब्दुल रहीम याने अजय देवगन के सिर पर फोड़ दिया जाता है। फिल्म की शुरूआत से ही आप अजय देवगन को एक आदर्श फुटबॉल कोच के रुप में देखते हैं। वह अपने खिलाडिय़ों को खेल के प्रति उनके प्यार का एहसास कराते हैं। उनकी हिम्मत और जज्बे पर बनी फिल्म मैदान काफी धमाकेदार है। वहीं फिल्म में फुटबॉल के साथ-साथ पॉलिटिक्स, रोमांच और इमोशन्स भी अच्छा खासा हैं।

भारतीय फुटबॉल टीम का कोच सैय्यद अब्दुल रहीम याने अजय देवगन सन पचास के दौर में फुटबॉल असोसिएशन में अपने विरोधियों की अवमानना करके, भारत के कोने-कोने से नवोदित फुटबॉल खिलाडिय़ों को चुनकर एक नई फुटबॉल टीम का गठन करता है, ताकि इस खेल में टीम विश्व स्तर पर भारत का परचम लहरा सके।

असल में 1952 में इंडियन फुटबॉल टीम को ओलिंपिक्स में करारी हार का सामना करना पडा था और अब रहीम खेल की कुशल टैक्नीक्स और रणनीतियों से लैस होकर एक नई टीम के साथ तैयार रहना चाहते थे। वे सिकंदराबाद से लेकर कोलकाता, मुंबई, पंजाब तक खुद जाकर खिलाड़ी चुनते हैं। परिणाम ये होता है कि ओलंपिक में टीम चौथे स्थान तक पहुंचती है। 1956 के मेलबर्न ओलिंपिक्स में वो अपनी टीम के साथ चौथे नंबर पर आने में कामयाब हो जाता है। मगर 1960 में रोम ओलिंपिक्स में टीम के शानदार प्रदर्शन के बावजूद वे लोग क्वालिफाई नहीं कर पाते है। इस कहानी में दुखद ये कि साल 1960 में ओलंपिक में हार के बाद फुटबाल फेडरेशन रहीम को कोच के पद से हटा देता है।

फिल्म का यह सीन दिल तोड़ देने वाला होता है जिसे देख आपको ये सीख मिलती हैं कि एक कोच और खिलाडिय़ों को किन-किन चीजों से निपटना पड़ता है। आखिऱकार, सामना की जाने वाली हर लड़ाई केवल खेल के मैदान में नहीं होती है। लेकिन रहीम, जो केवल देश का नाम रोशन करना चाहता है, अपनी नैतिकता पर अड़ा रहता है पर इसी के बाद रहीम को अपने विरोधियों और खेल पत्रकार गजराज राव की राजनीति का शिकार होना पडता है। कोच के पद से हटना पड़ता है।

बहरहाल, फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे सैयद अब्दुल करीम दोबारा 1962 के एशियन खेलों के लिए कोच के पद पर लौटते हैं। रहीम की टीम में चुन्नी गोस्वामी, पीके बनर्जी, पीटर थंगराज, जरनैल सिंह, प्रदत्युत बर्मन जैसे होनहार खिलाडी होते हैं। रहीम के घर पत्नी सायरा याने प्रियामणि है। एक बेटा हकीम, बेटी और मां है।

इस फिल्म की कहानी की अच्छी बात यह है निदेशक फिल्म की शुरुआत में ही किरदारों का छोटा सा परिचय करवा देते है। जैसे कि प्रियामणि को वह एक आदर्श पत्नी केरूप में दिखा देते है। वहीं गजराज राव को परिचय एक कु्ररूर खेल पत्रकार के रूप मे करा देते है, जिसका फुटबॉल के प्रति बस बंगाल के रेंज तक ही प्यार होता है।

बाद में आप देखेंगे कि अजय देश के अनेक हिस्सों से अपनी सर्वश्रेष्ठ टीम चुनते हैं और उसे सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए ट्रेनिंग देते हैं। इस बीच, उन्हें भारतीय फुटबॉल महासंघ के अंदर कुछ क्षेत्रवादियों से भी निपटना पड़ता है।

मध्यातंर से ठीक पहले दिल टूटने के बाद, रहीम और उनका परिवार सभी बाधाओं से लडऩे के लिए एक साथ आते हैं और फिर देश ही नही बल्कि वैश्विक मानचित्र पर पहचान के लिए प्रशंसा पाते है।

यह फिल्म मुख्य रूप से रहीम के जीवन और संघर्षों से संबंधित है, जिसमें खिलाड़ी के रूप में 16 से 20 युवा लडक़े भी शामिल हैं, जो उन्हें भारतीय फुटबॉल का स्वर्ण युग लाने में मदद करते हैं। मैदान के डायलॉग्स भी ऑन प्वाइंट हैं। जोश और जज्बे से भरी इस फिल्म को देखकर आप भी रोमांचित हो उठेंगे।


अभिनय
इस फिल्म में अदाकारी की बात करें तो मैदान में ज्यादातर सीन अजय देवगन के ही दिखाई देते है। इस बात को घड़ी भर के लिए नजरअंदाज किया जाए तो इसमें अजय ने वास्तव में सैयद अब्दुल रहीम के रोल के साथ पूरा न्याय किया है। सैयद अब्दुल रहीम के रूप में अजय देवगन का दिल को छू लेने वाला अभिनय, दर्शकों के लिए ईदी से कम नहीं रहा। मैदान में अजय देवगन ने कमाल की एक्टिंग है। फिल्म के दौरान पर्दे पर अजय को देखते हुए लगेगा कि अगर रहीम साहब को कभी सामने से देखने का मौका मिलता, तो वो ऐसे ही होते। मैदान में रहीम साहब के किरदार में अजय ने जो अदाकारी की है उसमें उनका जुनून, दर्द, हौसला-हिम्मत, सब खुद के अंदर तक महसूसा जा सकता है।

अजय की पत्नी का रोल निभाने वाली प्रियामणि ने भी बेहतरीन काम किया है। प्रियामणि अजय देवगन की वाइफ के किरदार में काफी मजबूत दिखाई देती है। वहीं खेल पत्रकार की भूमिका में गजराज राव के काम को भी सराहा जा सकता है। फिल्म में उनका किरदार इतना खराब है कि आपको उसे देखकर नफरत हो जाएगी, लेकिन उनकी एक्टिंग से आप प्यार कर करने लगोगे।

फुटबॉल टीम के खिलाडियों के रोल में चैतन्य शर्मा, अमत्र्य रे, देविंदर गिल, सुशांत वेदांडे, तेजस रविशंकर, ऋषभ जोशी, अमनदीप ठाकुर, मधुर मित्तल, मननदीप सिंह, सुशांत वेदांदे, अमान मुंशी संग सभी एक्टर्स ने कमाल का प्रदर्शन किया है। ये खिलाड़ी रूपी सभी अभिनेता अपने खेल से हर सीन को जोश से भर देते है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब आपके पास अजय देवगन जैसा अभिनेता है तो संवाद अदायगी से प्रभावित न हो पाना मुश्किल ही है।



निर्माता, निदेशन, लेखक
इस फिल्म के निर्माता आकाश चावला, अरुणव जॉय सेनगुप्ता, बोनी कपूर
है। मैदान जी स्टूडियो द्वारा निर्मित है। इसके लेखक साइविन क्वााड्रस, रितेश शाह है। गीत मनोज मुंतशिर ने लिखे हैं। निदेशन बधाई हो जैसी सफल फिल्म बनाने वाले अमित शर्मा ने किया है। अमित ने पहले भाग में कहानी को धीमा रखा है और प्रत्येक दृश्य को बेहद बारिकी से दिखाया है। लेकिन फिल्म के दूसरे भाग को, खासकर क्लाइमेक्स सीक्वेंस को शानदार फिल्माया है।

मैदान में सीन्स की जो ओरिजनलीटी दिखाई देती है उसका श्रेय सीधा सीधा सिनेमैटोग्राफर तुषार कांति राय, फ्योदोर ल्यास, तस्सदुक हुसैन, क्रिस्टोफर रीड को जाता है। वह मैदान के भीतर फुटबाल खेलते हुए वह शॉट ले आए हैं, जिससे लगता है कि आप खुद मैदान के भीतर हैं। फुटबॉल मैच के सीक्वेंस में कैमरा वर्क शानदार है। ऐसा लगता है मानो कोई लाइव मैच देख रहे हों। इसे वास्तविक और विंटेज बनाए रखने के लिए छायाकार तुषार कांति रे और अंशुमान सिंह को श्रेय दिया जाना चाहिए। 1950 से 1963 के कालखंड को पर्दे तक पहुंचाने का श्रेय प्रोडक्शन डिजाइनर ख्याति कंचन और कास्ट्यूम डिपार्टमेंट को ही जाना चाहिए। जिस तरह से बंगाल की सडक़ें, फर्नीचर, घोड़ा गाड़ी, वेशभूषा, रूप और सेट, सब कुछ हुबहू दिखाया है उसके लिए आर्ट डायरेक्टर की प्रशंसा की जा सकती है।

संगीत
संगीत के लिहाज से मैदान को काफी अच्छा कहा जा सकता है। कहे भी क्यूं नही जब आपके पास ए.आर. रहमान जैसे संगीतकार का संगीत हो। इस फिल्म के सभी गाने कमाल के है। मिर्जा से लेकर दिल नहीं तोडेंगे तक हर गाने का स्क्रीनप्ले फिट बैठता है। फिल्म का एक और धमाकेदार गाना टीम इंडिया हैं हम फिल्म को वही गति देता है जो कहानी की मांग होती है।

गाना मिर्जा ऋचा शर्मा और जावेद अली ने गाया है। टीम इंडिया हैं हम को मनोज, दविंदरसिंह,  एआर रहमान, नकुल अभ्यंकर ने आवाज दी है। रंगा रंगा को एमसी हेम, राम जोगय्या शास्त्री, वैशाली सामंत ने गाया है।दिल नहीं तोड़ेंगे को जावेद अली, मनोज मुंतशिर ने आवाज दी है और जाने दो को एआर रहमान, हिरल विराडिया व मनोज ने गाया है।

इसकी ज्यादातर शुटिंग मुंबई के मड आइलैंड में की गई है। मड में ही फुटबाल स्टेडियम बना दिया। मुंबई के मड आइलैंड में बना स्टेडियम का सेट किसी वल्र्ड क्लास स्टेडियम से कम नहीं लगता है।

अब बात फिल्म की कमाई पर। दुखद है कि इतनी अच्छी बॉयोपिक बनाने के बाद भी कमाई के मामले में दूसरे दिन ही मैदान खाली दिखाई दिया। कह सकते है कि अजय की अदाकारी की यह फिल्म दूसरे दिन ही बेपटरी हो गई। फिल्म की कमाई को लेकर निर्माताओं की चिंता बढना लाजिमी ही है। मैदान ने अपने रिलीज डे पर 7 करोड़ 1 लाख रूपये की ओपनिंग की थी। उम्मीद तो यह भी की जा रही थी कि मैदान बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन करेगी, लेकिन ये बड़े मियां छोटे मियां से थोड़ा पीछे ही रह गई। फिल्म ने पेड प्रिव्यू में 2 करोड़ 6 लाख रुपये की अनुमानित कमाई की है। मैदान की पहले दिन की एडवांस बुकिंग यानी 10 अप्रैल से रात 11 बजे तक 38459 टिकट बिकी थी, जिसकी कीमत 89 लाख 54 हजार 957 रुपये रही है।

बहरहाल, मैदान से भले ही दर्शक तेजी से दूरी बनाते जा रहे हो लेकिन इतना सब विस्तार से बताने के बावजूद गर मुझसे कोई एक शब्द में पूछे कि यह फिल्म क्यूं देखनी चाहिए तो मैं यही कहूंगा कि अजय की इतनी अच्छी अदाकारी और आर्ट डॉयरेक्टर का विजन को नही देख पाए तो मलाल ही होगा।  

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