अब विवाह की जल्दी नहीं

ऊंची नौकरी, मोटी तनख्वाह इकोनोमिकली फ्री, लुभावनी ब्रान्डेड वस्तुओं से अटा पड़ा बाजार, देश में हां तो मॉल की सैर, हाईफाई पार्टीज, विदेश के टूअर लगते रहें तो कहना ही क्या। न घर गृहस्थी का पचड़ा, न सास ननद का झमेला, सिर्फ मैं ही मैं।


प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होती लड़कियां जब लाइफ में कुंआरापन भरपूर एंजॉय कर रही हैं तो शादी की जल्दी क्यों करें। बच्चे नहीं हो पायेंगे? अरे है न रेडिमेड बेबीज का प्रावधान भी। फिर क्या जीवन का एकमात्रा लक्ष्य शादी ही है?


पेरेंट्स को अपनी सोच में ढालना लड़कियों के लिए अब जरा भी मुश्किल नहीं है। वे वैसे ही कमाऊ मॉडर्न बेटी से इतना इंप्रैस रहते हैं कि उसकी बात नेगेट कर ही नहीं सकते।
लेट मैरिज का कोई एक ही कारण नहीं है। कारण अनेक हैं। सबका नेट रिजल्ट है यह चलन जिसे समाज स्वीकार कर रहा हो या नहीं मगर इसके प्रति उसमें उपेक्षा का भाव जरूर पाया जाता है।


शिक्षा से उनमें आत्मविश्वास बढ़ा, जागरूकता आई, सोच का दायरा विस्तृत हुआ। अपनी अस्मिता को लेकर लड़कियां सचेत हुई। ध्यान उधर बंटा तो ध्येय केवल विवाह नहीं रह गया।


आर्थिक फ्रीडम ने उनके हौसले बढ़ा दिये हैं। कई बार परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि घर में कमाने वाला कोई मेल मेंबर नहीं रह जाता तो लड़की पूरे परिवार का सहारा बन जाती है। उसी की कमाई से घर चलता है। अगर भाई बहन छोटे हैं तो उन्हीं को सेटल करने में बहन की जवानी गुजर जाती है।


समाज में आये दिन हो रहे तलाक के केसेज देखकर लड़कियों के मन में शादी को लेकर भय समाने लगा है। परित्यक्ता या डायवोर्सी बनकर वे इस अपमान भरे हादसे से नहीं गुजरना चाहतीं।


एकल परिवार की लड़कियां पेरेंट्स से ज्यादा अटैच्ड रहती हैं। वे माता पिता की ओल्डएज में असुरक्षा को लेकर चिंतित रहती हैं। उन्हें खटका भी रहता है कि कभी जीवन साथी उसकी पेरेंट्स के प्रति भावनाओं, जिम्मेदारी को न समझ पाया, तब क्या होगा।
वे किसी तरह का कमिटमेंट नहीं चाहतीं और शादी तो कमिटमेंट का ही दूसरा नाम है। आजादी का स्वाद चख लेने के बाद उन्हें अब बंधन मंजूर नहीं। उनका अपना माइंडसेंट, अपनी वैल्यूज और पसंद नापसंद हैं जिसे वो खतरे में नहीं डालना चाहतीं।


ब्वॉय फ्रैंड्स का साथ

मॉडर्न जमाने के दस्तूर में यह भी शामिल है ब्वॉय फ्रैंड का सपोर्ट, विवाहपूर्व सेक्स, लिव इन रिलेशनशिप। इन सब के चलते विवाह से होने वाली पूरी जरूरतें विवाह पूर्व ही जब पूरी होने लगें तो शादी का ठप्पा लगाने की जल्दी भला क्यों हो?


चैन से बैठे रहते हैं पेरेंट्स भी

बेटी की शादी माता-पिता की ही जिम्मेदारी समझी जाती रही है। आज भी ज्यादातर हमारे यहां यही चलन है। वे ही लड़की के लिए योग्य वर खोजते हैं। आज दहेज की प्रॉब्लम का खौफ तो है ही, शादी टूटने, लड़की को जला देने के किस्से भी जब आम बन गए हैं। माता-पिता का बेटी के ब्याह को लेकर भयाक्रांत रहना कोई अजीब बात नहीं।


फिर एक और जो सबसे बड़ा कारण है वो है लड़की की शादी में मां बाप की एकमुश्त बड़ी रकम का खर्च होना। पैसे का लालच लड़के वालों को जितना है उतना ही लड़की के घरवालों को भी। वे यही चाहते हैं कि लड़की अपने आप किसी अच्छे लड़के को फंसा कर लव मैरिज कर ले तो उन्हें पैसा न खर्चना पड़े। फिर हर माह आने वाली लड़की की कमाई की मोटी रकम भी कम आकर्षक नहीं होती। कभी जरूर उनका कांशियंस प्रिक करता होगा लेकिन स्वार्थ उसे शीघ्र भुला देता है। ऐसे में बड़े फख्र से वे बेटी को बेटे का दर्जा देते हुए उसकी पीठ ठोंक उसे शाबाशी देते रहते हैं। लड़की का ईगो संतुष्ट होता रहता है।


माता-पिता की लड़की के बुढ़ापे तक दूर दृष्टि नहीं जाती। उन्हें अपना बुढ़ापा सुरक्षित चैन से बीते, इसकी चिंता ज्यादा रहने लगी है। इसमें कारण बेटों का उनकी परवाह न करना या विदेश में सेटल हो जाना भी शामिल है।