आचार्य नरेन्द्र देव जिनकी अब यादें ही बाकी हैं

जब कभी भी भारत में समाजवादी आन्दोलन या समाजवाद की चर्चा होती हैं तो हमें आचार्य नरेन्द्र देव की याद आ जाती है। आचार्य जी ने समाजवादी आंदोलन के माध्यम से किसानों के लिये बहुत कुछ किया। राजनीति के साथ-साथ वह आरंभ ही से शिक्षा से भी जुड़े रहे। उन्होंने शिक्षा जगत के लिये बहुत काम किया है इसीलिए शिक्षा जगत में भी आज उनका नाम आदर से लिया जाता है।


आचार्य जी का जन्म 31 अक्टूबर 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में उस समय हुआ जब देश बड़े नाजुक दौर से गु$जर रहा था। हर ओर अंग्रेजों का जुल्म जारी था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय सरीखे जन नेता देश को आ$जाद कराने के लिये सामने आ चुके थे। आचार्य जी के पिता सीतापुर में उस समय के प्रसिद्घ वकील थे, उनकी भारत की राजनीति में भी काफी रूचि थी। वह उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में बराबर भाग लिया करते थे। नरेन्द्र देव की आरंभिक शिक्षा वहीं हुई और पिता की रूचि के कारण बचपन से इनकी रूचि भी स्वतंत्रता आन्दोलन में हुई। आगे चलकर नरेन्द्र देव की शिक्षा इलाहाबाद और वाराणसी में हुई। उस समय यह दोनों जिले भारतीय राजनीति के क्षितिज पर थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गढ़ होने के कारण यह दोनों जिले अंग्रेजों की आंखों में किरकरी बने हुए थे। इन दोनों जगहों पर रहकर आचार्य जी ने बहुत कुछ सीखा। जब उनकी शिक्षा पूरी हो गई तो परिवार वालों ने उनके पिता की भांति उनसे वकालत करने को कहा।



वकालत तो वह पास कर ही चुके थे परंतु उनकी रूचि वकालत में जरा भी नहीं थी। आचार्य जी के अनुसार वकालत तो उन्होंने केवल ज्ञान के लिये पढ़ी थी क्योंकि एक अच्छे राजनीतिज्ञ के लिये कानून का ज्ञान जरूरी है। गांधी जी के नेतृत्व में देश में जैसे ही असहयोग आन्दोलन आरंभ हुआ आचार्य जी अपने को न रोक सके और उस आन्दोलन में पूरी तरह कूद पड़े और यहीं से उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया।


जिस समय देश के सारे विश्वविद्यालय अंग्रेजी माध्यम से कार्य कर रहे थे। उसी समय महात्मा गांधी के स्वदेशी प्रेम से प्रेरित होकर वाराणसी के विख्यात स्वाधीनता संग्राम सेनानी दानवीर श्री शिव प्रसाद गुप्त ने स्वदेशी  शिक्षा देने के लिये काशी विद्यापीठ की स्थापना की। उन्होंने उस समय के प्रमुख नेताओं जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, आचार्य कृपलानी, मुहम्मद हसन फायज, और महान् शिक्षा शास्त्री एवं दार्शनिक डाक्टर भगवान दास को भी इससे जोड़ा। देखते ही देखते काशी विद्यापीठ की ख्याति सारे भारत में हो गई और राजनीति से जुड़े लोग यहां शिक्षा ग्रहण करने आने लगे। आचार्य नरेन्द्र देव भी इससे प्रभावित हुए। उस समय विद्यापीठ की संचालन सभा हुआ करती थी और अध्यक्ष विद्यापीठ का सर्वोच्च पद था। डॉ. भगवान दास विद्यापीठ के पहले अध्यक्ष चुने गये थे। विद्यापीठ में उस समय दो महत्वपूर्ण उपाधियां दी जाती थी एक आचार्य जो एम.ए.के समान तथा दूसरी शास्त्री जो बी.ए. के समक्ष होती थी।


आगे चलकर जिन लोगों ने अपने नाम के आगे आचार्य या शास्त्री शब्द जोड़ा उनका किसी न किसी प्रकार से काशी विद्यापीठ से अवश्य लगाव रहा जैसे आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी, आचार्य बीरबल सिंह, लाल बहादुर शास्त्री, प्रो. राजाराम शास्त्री, अलगू राय शास्त्री आदि। विद्यापीठ से जुडऩे वाले अन्य महत्वपूर्ण लोगों में डॉक्टर संपूर्णानन्द, श्री श्रीप्रकाश, डॉ. केसकर, पं. कमलापति त्रिपाठी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।


 जब भारत रत्न डॉ. भगवान दास राजनीति में काफी सक्रिय हो गये थे तो उन्हें विद्यापीठ के अध्यक्ष पद के लिये किसी योग्य व्यक्ति की आवश्यकता महसूस हुई फौरन ही डॉक्टर भगवान दास को नरेन्द्र देव का ख्याल आया।  उनमें वह सारी प्रतिभायें न$जर आई जिसकी उन्हें अपेक्षा थी। तुरंत नरेन्द्र देव को निमंत्रण भेजा गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उनका सपना भी साकार हो गया क्योंकि वह शिक्षा की सेवा के साथ-साथ राजनीति करना चाहते थे। यहां उन्हें दोनों चीजें एक साथ मिली उनके मन की मुराद पूरी हुई।


1905 में वाराणसी में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन हुआ इसमें बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले सहित उस समय के प्राय: सभी प्रमुख नेताओं ने भाग लिया। आचार्य जी इसी समय सक्रिय रूप से राजनीति में आये और उन्होंने विधिवत्ï कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। 1907 में कांग्रेस में जब  विभाजन हुआ तो आचार्य जी ने भी कांग्रेस छोड़ दी। 1915 तक वह राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रहे जब 1916 में पुन: कांग्रेस के दोनों गुट आपस में एक हो गये तो आचार्य जी भी पुन: कांग्रेस में वापस चले आये। पं. जवाहरलाल नेहरू के वह काफी करीबी थे, आचार्य जी भी नेहरू जी को दिल से चाहते थे। वह 1948 तक कांग्रेस में रहे और उस समय के प्राय: सभी प्रमुख नेताओं के निकट रहे।


वह समाजवादी आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे। एक समय ऐसा भी आया जब आचार्य ने अपने समर्थकों के घोर आग्रह पर 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नामक एक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। समाजवाद में अटूट श्रद्घा रखने वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया जी भी इसमें सम्मिलित हो गये। पार्टी ने अपना पहला अध्यक्ष आचार्य जी ही को चुना जबकि उसके सचिव श्री जयप्रकाश नारायण बनाये गये। आचार्य जी स्वतंत्रता से पूर्व 1937 और 1946 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी रहे।


 उन्हें अनेक बार मंत्री पद की पेशकश की गई। इस पेशकश को उन्होंने ठुकरा दिया। वह आडंबर में जरा भी विश्वास नहीं रखते थे। वह समाजवाद के माध्यम से समाज की सेवा के पक्के हिमायती थे। आचार्य जी स्वाभिमानी व्यक्ति थे। जहां कहीं भी उनका किसी से वैचारिक मतभेद होता वह उससे अपने को अलग कर लेते। इसी कारण जब 1948 में उनका कांग्रेस के कुछ नेताओं से मतभेद हुआ तो उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। उस समय भारत में सोशलिस्ट पार्टी भी कार्यरत थी। उन्होंने अपनी नीति और विचारधाराओं के अनुसार उसे पूरा-पूरा सहयोग दिया।


आचार्य जी 1952 और 1954 में राज्यसभा के सदस्य भी रहे। एक समय ऐसा भी आया जब लखनऊ विश्वविद्यालय बड़े नाजुक दौर से गुजर रहा था। कुलपति विहीन इस विश्वविद्यालय को एक योग्य कुलपति की जरूरत थी। ऐसे समय में शिक्षा जगत के लोगों के विशेष आग्रह पर आचार्य नरेन्द्र देव ने इस पद को स्वीकार किया। वह उच्चकोटि के विचारक होने के साथ ही साथ भारतीय समाजवाद के भीष्म पितामह भी थे। कम ही लोगों को यह पता होगा कि वह कई पत्रिकाओं के संपादक भी रहे हैं। उनका निधन 19 फरवरी 1956 को तमिलनाडु में हुआ।