एक शांत विद्रोही गोखले

गोपाल कृष्ण गोखले पहले-पहल 1889 में कांग्रेस में तिलक के साथ आए थे। नमक कर पर हमला करते हुए उन्होंने बहुतेरे तथ्य और आंकड़े पेश किए थे। उन्होंने बताया कि कैसे एक पैसे की नमक की टोकरी की कीमत पांच आने हो जाती है। उनमें कड़ी से कड़ी बात को बहुत ही मधुर ढंग से कहने का बड़ा गुण था। श्री गोखले अपने भाषणों में देश की गरीबी का वर्णन कर सरकार से इस दिशा में कुछ करने का आग्रह करते थे। लार्ड कर्जन के दमनात्मक कार्यों से बिगड़कर इस संयत व्यक्ति ने कहा था- ‘मैं अब इतना ही कह सकता हूं कि लोक हित के लिए नौकरशाही से किसी भी प्रकार के सहयोग की सभी आशाओं को नमस्कार।‘


1905 में वे कांग्रेस के बनारस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। इसी वर्ष उन्हें दो वर्ष के लिए भारत के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैण्ड भेजा गया था। 1897 में भी वे इंग्लैण्ड जा चुके थे। उनकी स्थिति बड़ी जटिल थी। जनता उनकी नरमदली कहकर निन्दा करती थी तथा सरकार राष्ट्रवादी कहकर उन्हें उग्र कहती थी।


सूरत में कांग्रेस के झगड़े में वे नरम दल के नेता थे। कांग्रेस पर बाद में नरम दल का ही वर्चस्व रहा। इसका एक बड़ा कारण यह था कि गरम दल के नेता तिलक को 6 वर्ष के लिए देश निर्वासन दे दिया गया था।


श्री गोखले का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भारत सेवक संघ की स्थापना रहा। इसके सदस्य सामान्य से वेतन पर राष्ट्रसेवा का व्रत लेते हैं। गोखले दक्षिण अफ्रीका भी गए थे, वहां गांधीजी के आन्दोलन में उन्होंने सहयोग प्रदान किया था। उनका देहान्त 19 फरवरी, 1915 को हो गया था।