कहानी – कैसे भूलूं यह…?

संघमित्रा बच्ची को छाती से चिपका कर बुदबुदाई -चुप हो जा मेरी बच्ची, चुप हो जा। ईश्वर सब देख रहा है। जिन लोगों ने तुझसे माँ, ममता,स्नेह,प्यार और सुख छीना है, वे भी सुखी नहीं रह सकेगे। दहेज के लोभी भेडिय़े क्या समझते है, वे बच जायेंगे? मैं बदला लूंगी उनसे, मैं…. कहते-कहते उसका चेहरा तमतमा उठा। तेजहीन आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं।


जिसने भी उसका यह रूप देखा, सहम कर दो कदम सरक गया।
क्रोध में नारी कितनी भयानक हो उठती है, यह लोगों ने उस दिन देखा था।
संघमित्रा का क्रोध स्वाभाविक था। कितने अरमानों  के साथ उसने इकलौती बेटी की शादी की थी। शर्मिला का पिता तो भरी जवानी में ही संघमित्रा का साथ छोड़़ गया था। उस समय छह माह की ही तो थी शर्मिला। एक पुत्र की तरह तो लालन-पालन किया था उसका। रत्ती भर भी कष्ट नहीं होने दिया था पुत्री को।


जीवन भर एक-एक पैसा जोड़़ा था, उसकी शादी के लिये ताकि कोई यह न कहे-बेचारी विधवा मां कहां से लाये, बाप जिंदा होता तो कुछ करता। दहेज में अन्य सामानों के साथ-साथ अपने सारे जेवर भी दे दिये थे।


ऐसा करते देख कर लोगों ने तो उससे कहा भी था-यह क्या कर रही हो संघमित्रा कुछ अपने बुढ़़ापे का भी तो ख्याल करो। पीछे पुत्र होता तो कोई बात नहीं थी। बेटी को तो कितना भी दो, कम ही लगता है। सब बेटी को दे दोगी तो तुम क्या करोगी?


इस पर संघमित्रा ने सहजता से कह दिया था- अरे, अब मुझे करना ही क्या है? मैं तो बेटी को सुखी देखकर ही जी लूंगी।


शादी में सब कुछ बेटी को दे दिया था। ऐसा करते समय उसे आत्मिक संतोष का अहसास हुआ था। सुखद भविष्य की कल्पना के साथ शर्मिला का हाथ मनीष के हाथ में सौंप दिया था।


इसके बाद भी क्या शर्मिला को उस घर में सुख मिल पाया? संघमित्रा को इसका अहसास राखी के त्यौहार पर ही हो गया। पहली राखी करने मनीष सुसराल आया हुआ था।
विदाई के समय संघमित्रा ने जंवाई राज को सूट का कपड़़ा और एक तोले की चेन देते हुए कहा -जंवाई बाबू, मुझ गरीब विधवा की यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये। शर्मिला मेरी पुत्री नहीं, पुत्र समान है। इसे किसी प्रकार कष्ट न होने देना। कहने के साथ ही उसकी आंखें डबडबा आई थीं।


माता जी, हम तो पूरा प्रयास करेगे कि शर्मिला को कोई कष्ट न हो। मुझे कहना तो नहीं चाहिये, पर क्या है कि इस समय पिताजी का हाथ तंग चल रहा है। आप अगर बीसेक हजार रूपये की व्यवस्था कर दें , तो एक प्लॉट बिक रहा है उसे ले लेते।


संघमित्रा विस्मय से चौंक उठी। शर्मिला चौखट पर खड़़ी सब सुन रही थी। सोचने लगी, कैसे लोग है ये जो लड़़की वालों को निचोड़़ लेना चाहते हैं।


संघमित्रा कुछ पल सोचती रही, फिर बोली- बेटा इतनी बड़़ी रकम की व्यवस्था मैं कैसे और कहां से कर सकती हू ? मेरे पास तो जो कुछ था वह तुम्हें पहले ही दे चुकी। इसके पिता जिंदा होते तो फिर भी कुछ व्यवस्था हो जाती।


यह तो आप जानो माता जी। मैं शर्मिला को यहीं छोड़़ जाता हूं, व्यवस्था हो जाये तब इसके साथ भिजवा देना। कहकर मनीष चला गया था।


उसके जाने के बाद शर्मिला मां से लिपटकर सुबक उठी थी। रोते-रोते ही उसने कहा- मां यह अच्छे लोग नही हैं।


हम इनकी बातों में आकर बुरी तरह ठगा गये हैं।

यह लोग दहेज के लालची हैं। तुम इन्हें बीस हजार रूपया दे भी दोगी, तो  कुछ दिन बाद फिर नई मांग लेकर आ खड़े होंगे।


तू  चिंता न कर बेटी , सब ठीक हो जायेगा। ऐसा कहकर संघमित्रा ने बेटी को तो आश्वस्त कर दिया, किन्तु स्वयं विकलता से घिर उठी। उसने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसी बातों की। लोगों के मुंह सुनती जरूर थी।  आज वे ही बातें उसके सामने आ गई थीं। एक अनहोनी आशंका का भय उसके मन में उभरने लगा था। शर्मिला गर्भ धारण कर चुकी थी। संघमित्रा नहीं जानती थी कि इस समय बेटी को कोई चिंता,क्लेश अथवा कष्ट हो, क्योंकि वह जानती थी कि इस पीरियड की चिंता, जच्चा-बच्चा दोनों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है।


इसके अलावा अगर उन लोगों की मांग पूरी नहीं हुई, तो वे शर्मिला को सतायेंगे।
आखिर संघमित्रा ने गांव में जो पुश्तैनी जमीन थी, उसे बेच दिया रूपये देकर बेटी को विदा कर दिया।


जाते समय शर्मिला ने भरे गले से कहा था- यह तुमने क्या किया मां अपने बुढ़़ापे का सहारा बेच दिया।


अरे, अब मुझे करना ही क्या है बेटी? मेरे गुजारे के लिये तो पेंशन हैं न। मैं तो बस तुझे सुखी देखना चाहती हूँ। संघमित्रा ने कहा और गालों पर लुढ़़क आये आंसुओं को पौंछ लिया।
इसके बाद शर्मिला के दिन पुत्री आशा के जन्म तक शांति से गुजरे। यह महसूस कर उसने राहत की सांस ली। सोचा, चलो अब सब ठीक हो गया है। अच्छा ही हुआ। मां को भी सुख मिलेगा। दिनरात चिंता में घुलती रहती हैं।


समय अपनी धुरी पर घूम रहा था। आशा दो वर्ष की हो चुकी थी। शर्मिला को मां की याद आने लगी थी। एक दिन उसने झिझकते हुये सास से कहा- मां जी, आप कहें तो मैं मायके हो आऊं । मां से मिले लंबा अरसा हो गया है। उनका बुढ़़ापा है, संभालने वाला कोई नहीं है।
ठीक है ठीक है। वैसे उसे कुछ होने वाला नही है, काले कौए खाकर पैदा हुई है वह। सास ने आंखे तरेरते हुए कहा।


ऐसा न कहिये मां जी वह मेरी मां हैं। शर्मिला ने चुभन को सहते हुये शांत स्वर में कहा।
जानती हूं। जाती क्यों नहीं, तुझे मना किसने किया है? पर मेरी बात कान खोलकर सुन ले, उस बुढि़य़ा से दो ढाई तोले के गहने आशा के लिये अवश्य बनवा लाना। पुत्र पैदा होता तो दस-बीस हजार खर्च करती कि नहीं। इसके लिये इतना भी नहीं करेगी क्या? सास ने जोर देकर कहा।


पर मां जी वह यह कहां से करेंगी? पिछली दफा ही उन्होंने जमीन बेच कर आपकी बात रखी थी। अब तो उनके पास तो कुछ भी नहीं है। मैं आपके पैर पड़़ती हूं मांजी  और शर्मिला सास के पैरों पर झुक गई।


सास पीछे सरकती हुई बोली- अरे,तू यहीं से बातें बनाने लगी। तो सुन वह कहीं से भी व्यवस्था करे,यह हम नहीं जानते। अगर उस बुढि़य़ा से व्यवस्था न हो तो इस घर में लौट कर मत आना । मुझे क्या पता था कि ऐसे कंगाल घर की बहू मेरे घर में आयेगी। सास ने कहा और वहां से हट गई।


शर्मिला के हाथ जमीन पर ही टिके रह गये। वह समझ नहीं पा रही थी कि इन लोगों को हो क्या गया है? अपने स्वार्थ के सामने दूसरे की विवशता, मजबूरी और  हालत को विस्मृत क्यों कर जाते है? कैसे और किस मुँह से कह पायेगी वह माँ से? सुनकर कितना कष्ट होगा उसे। क्या  बेटियां माता-पिता को इसी तरह सताने के लिये पैदा होती हैं? छि-छि-छि, यह दहेज लोलुपता हर घर में डेरा जमाकर बैठ गई है। सही सोच और मानसिकता तो गायब हो गई है। लोग दहेज के लालच में  विवेकहीन हो गये हैं। यह इंसानी सोच का फर्क है अथवा समय का।


और फिर मनीष शर्मिला को मायके छोड़ आया था। उसने तभी शर्मिला के व्यथित  मन पर गर्म सलाखें चुभोते हुए कह दिया था- मां ने तुमसे जो कहा है, उसका ध्यान रखना। नहीं तो फिर तुम जानती ही हो।


पति के मुंह से ऐसी धमकी सुनकर वह कांप उठी थी। यह तो वह जानती है कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो कुछ भी कर सकते हैं उन लोगों के हृदय में दया, प्यार और अपनत्व जैसे शब्दों का कोई महत्व नहीं है। उन लोगों का दिल तो पत्थर की तरह सख्त है जिस पर किसी का भी कोई असर नही होता।


शर्मिला आशंकित और चिंतित रहने लगी थी। मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे थे अज्ञात भय की आशंका उसे भीतर ही भीतर सताये जा  रही थी। मां से कह पाने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी


अजीब दुविधा और मनोदशा का सामना कर रही थी वह।

संघमित्रा कई दिन से बेटी के मुर्झाये चेहरे को गौर से देख रही थी। किन्तु शर्मिला का व्यवहार उसे कुछ नहीं समझने दे रहा था। फिर भी वह आखिर मां थी। आत्मा नहीं मानी तो पूछ लिया-क्या बात है बेटी लगता है तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो। कहना चाहती हो पर कह नहीं पा रही हो।


मां का स्नेह पाकर शर्मिला की रूलाई फूट पड़़ी। उसने सुबकते हुये कहा- कुछ नहीं मां क्या करूं मेरा भाग्य ही खोटा है। तुम चिंता न करो मैं ठीक हूं।
तेरे कहने से कैसे मान लूं बेटी? मैं भी एक औरत हूं और औरत के मन की बात समझ सकती हूं। क्या फिर कोई मांग रखी है उन लोगों ने? छिपाना मत, मुझे बता बेटी संघमित्रा ने पूछा।


शर्मिला ने सब कह दिया। अंत में कहा-अब क्या होगा मां? वे लोग अच्छे नहीं हैं। मेरा मन तो करता हैं   कि वहां कभी न जाऊं।


धैर्य और साहस से काम ले बेटी। इस तरह हताश होने से काम नहीं चलता। संघमित्रा ने पुत्री को झूठी दम दिलासा दी। तो क्या तुम फिर उनकी मांग पूरी करोगी? कहां से व्यवस्था करोगी मां? शर्मिला ने कहा।


बेटी, अब मेरे पास बचा ही क्या   है? अब तो उस ईश्वर  का ही भरोसा है। होनी को कौन टाल सकता है बेटी। गहरी  और ठण्डी सांस लेकर कहा संघमित्रा ने।


मां मुझे डर लग रहा हैं, कहीं वे… हिम्मत रख बेटी, इस तरह कहां तक देते रहेंगे उन्हें? ऐसे लोगों का तो दृढ़़ता के साथ सामना करना चाहिए। संघमित्रा ने कहा और बाहर चली गई।
शर्मिला का दिल भीतर ही भीतर बैठने लगा था। आने वाले समय की कड़़वाहट से वह आशंकित हो उठी थी।


थोड़़े दिन बाद ही मनीष शर्मिला को लेने आ गया था। धड़़कते दिल और व्यथित मन से बेटी को विदा कर दिया। उसे क्या पता था कि यह पुत्री की अंतिम विदा थी।


शर्मिला को भी शायद इसका आभास हो गया था। मां से लिपटकर जी  भर कर गले मिली थी। इसके बाद क्या होगा, वह नहीं जानती थी।


ससुराल पहुंचने पर जब सास को मालूम हुआ कि वह खाली हाथ लौटी है तो उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़़ गया। शर्मिला को तरह-तरह से प्रताडि़त किया जाने लगा। मारा-पीटा। मासूम बच्ची को गला दबा कर मारने की चेष्टा की गई। शर्मिला सारे जुल्म सहती रही। मां को दुखी करना अब उसने उचित नहीं समझा। जब नहीं सहा गया तो बच्ची के साथ नदी में छलांग लगा दी।


दहेज की वेदी में वह होम हो गई। घाट पर नहा रहे लोगों ने   बच्ची को तो जिंदा निकाल लिया, किन्तु शर्मिला को नहीं बचा सके। पुलिस ने बच्ची संघमित्रा को सौंप दी और मनीष और उसके माता-पिता को गिरफ्तार कर लिया गया।


पुत्री की मौत का सदमा संघमित्रा सहन न कर सकी। वह विक्षिप्त सी हो गई। बच्ची को छाती से चिपका कर बेटी के ससुराल वालों को कोसने लगी।


चीख-चीख कर सबको सुनाने लगी। बड़़े अरमानों के साथ उसने बेटी को डोली में बिठाया था। दहेज लोलुप भेडि़य़ों के आगे समय-समय पर टुकड़़े भी डाले थे, किन्तु उनके लालच की भूख शांत नही हुई। यातनाओं  के भय से स्याह पड़़ता पुत्री का चेहरा, समाज के दरिंदों की हृद्यहीनता  और अंत में जवान बेटी की मौत। कैसे भूल सकती है एक विधवा मां इस दर्द को? कोई रास्ता है क्या?