कहानी – जिम्मेदार आदमी

आखिर कल्लू उर्फ कालूराम वल्द रामलाल उम्र 20 साल जाति हरिजन साकिन बेरखेड़ी खुर्द तहसील ग्यारसपुर जिला विदिशा को जिला पुलिस अधीक्षक ने ग्रामरक्षक अर्थात ¬चौकीदार के पद पर नियुक्त कर ही दिया। नियुक्ति का यह कागज उसे थाने से मिला और उस छोटे से कागज को देखकर उसे उतनी ही खुशी हुई, जैसे वर्षों से प्रतियोगिता में बैठ रहे उम्मीदवार को आई.ए.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के समाचार से होती है।
इस छोटे से कागज के लिये कल्लू उर्फ कालूराम पिछले एक साल से थाने और जिला कचहरी के दफ्तर के चक्कर काट रहा था। न जाने कितने बाबूओं के उसने हाथ जोड़े थे और न मालूम कितने खाकी वर्दी वालों के पैरों को उसने छुआ था। कोई उसे झिड़कता तो कोई उसे हिम्मत बंधाता। बड़ी मुश्किल से उसे यह कागज मिल पाया था और उस कागज को उसने इस तरह संभालकर अपने कुर्ते की जेब में रखा था, जैसे उसे गांव की जागीरदारी का पट्ट मिल गया हो।
चौकीदार, जिसे गांव के लोग  कोटवार तथा सरकारी कागजों में ग्रामरक्षक कहा जाता है, कल्लू के लिये बड़ा परिचित नाम था। उसके यहां कई पीढिय़ों से चौकीदारी या कोटवारी का ही काम होता आ रहा था। उसका बाप रामलाल भी कोटवार था, यदि उसके बाप की जानकारी सही थी तो उसके दादा और परदादा भी चौकीदार थे। न जाने कब यह नियम बना था कि चौकीदार के बेटे को ही चौकीदार बनाया जाए और यह नियम आज तक लागू था।
 पिछले साल तक कल्लू का बाप ही चौकीदार था, पर तीन-चार रोज के बुखार में ही वह परलोकवासी हो गया तो मौजा (गांव) बेरखेड़ी खुर्द चौकीदार विहीन अर्थात ग्रामरक्षक विहीन हो गया। सबसे पहले इसकी चिंता ग्राम के सरपंच चौधरी अजब सिंह को हुई। फिर इलाके के थानेदार को। इसके बाद चौकीदार की कमी से कई और लोग चिंतित हुए, जिनमें गांव के स्कूल के हेडमास्टर साहब, पास के गांव के पशु डॉक्टर, टीका लगाने वाला वेक्सीनेटर, नर्स-बाई, हफ्ते-दो हफ्ते में आने वाले पटवारी साहब, ग्रामसेवक और मलेरिया विभाग के बाबू शामिल थे।
जब कल्लू का बाप चौकीदारी करता था तो कल्लू गांव के दो-चार घरों के गाय-बैल चराने के लिये ले जाता था। वह दिन भर इन्हीं गाय, बैलों के साथ भटकता रहता था, इसलिये उसे पता ही नहीं था कि चौकीदार के काम क्या हैं? हां उसने अपने बाप को नीली कमीज, नीली टोपी और फटी धोती पहने जरूर देखा था। कमीज के ऊपर उसका बाप एक बेल्ट भी बांधता था, जिस पर कुछ लिखा होता था। मगर उसका बाप चौकीदारी कैसे करता था और हाथ में लाठी लिये हुए दिन भर कहां जाता था, इसका उसे कुछ पता नहीं था।
गांव के सरपंच अजबसिंह ने जब उससे चौकीदारी की अर्जी पर निशानी अंगूठा लगवाया था तो उसने झिझकते हुए यह कह भी दिया था कि हुजूर मुझे मालू्म नहीं है कि चौकीदारी कैसे करते हैं। उसकी इस बात पर सरपंच हंस पड़ा और बोला ‘साले तेरा बाप क्या अपनी मां के पेट से चौकीदारी सीख कर आया था, वह भी तो हमारी खिदमत करके ही सब सीखा था’ सरपंच साहब खानदानी, रईस थे और कल्लू ही नहीं सारा गांव उनसे डरता था। कल्लू ने ठान लिया कि वह चौकीदार बन जाएगा तो सरपंच साहब की खूब खिदमत करेगा।
कल्लू ने सोचा  था कि जब इतने बड़े आदमी ने अर्जी लिखवाई है तो दो-चार दिन में उसे चौकीदारी का हुक्म भी मिल जाएगा। इसी उम्मीद से उसने गाय-बैल चराना भी छोड़ दिया, पर जब एक महीना बीत गया और उसे हुक्म नहीं मिला तो उसने यह सोचते हुए कि सरपंच साहब बड़े आदमी हैं, भूल गए होंगे, उनके यहां हाजिर होने को फैसला किया। सरपंच ने उसे देखते ही पूछा क्यों बे तुझे अभी हुक्म मिला या नहीं? कल्लू ने जब इंकार किया तो सरपंच साहब बोले कल थाने में जाकर थानेदार   साहब से मिल लेना, वे बता देंगे कि तुझे कब हुक्म मिलेगा।
दूसरे दिन वह थाने पहुंचा। थानेदार के सामने जाने की तो वह हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। सिपाहियों और वहां तैनात मुंशीजी को चाय, सिगरेट पिलाकर वह इतना जान सका कि उसकी अर्जी, जिले के कप्तान साहब को भेज दी गई है। मुंशी ने उसे यह भी बताया कि कप्तान के दफ्तर में इतना बड़ा पोल खाता है कि हाथी भी घुस जाए तो पता नहीं चले। उसकी अर्जी न जाने किस कोने में दबी पड़ी होगी। इसलिये चार दिन बाद जब मुंशी जी जिला दफ्तर जाएं तो कल्लू भी उनके साथ चला जाए और अर्जी पर वजन रखने के लिये रुपयों का इंतजाम करता लाये।
चार दिन बाद कल्लू फिर थाने में हाजिर हुआ। मुंशीजी ने अपना बस्ता कल्लू के सिर पर रखा और बस अड्ड़े की ओर रवाना हुए। बस के आने में देर थी। इस बीच मुंशी जी ने दो बार चाय पी, दो बार पान खाए तथा एक डिब्बी सिगरेट खरीदी। यह बताने की जरूरत नहीं कि इस सबके पैसे कल्लू को ही देना पड़े। बस आई तो मुंशी जी ने अपने पुलिसिया रौब से एक सवारी को उठा दिया और खुद पसर कर बैठ गये। कल्लू उनका बस्ता रखे हुए, जैसे-तैसे खड़े रहने की जगह बना पाया। दो घंटे की यात्रा के बाद बस जिला सदर मुकाम पहुंची तब तक मुंशी जी सिगरेट की सारी डिब्बी बस में ही धुआं बनाकर उड़ा चुके थे।
बस से उतरकर मुंशी जी ने पहला काम यह किया कि वे खाने की एक होटल मे घुस गये। कल्लू बाहर खड़ा रहा और मुंशी जी ने एक प्लेट मुर्गा तथा आठ रोटियां फटकारने के बाद कल्लू को पैसे देने का हुक्म दिया। फिर उन्होंने एक पान मुंह में दबाया और सिगरेट की एक नई डिब्बी ली। भक्तिभाव से कल्लू इस सबके पैसे देता रहा। बाद में मुंशी जी और कल्लू एक तांगे में सवार होकर पुलिस कप्तान के दफ्तर पहुंचे। कल्लू को एक पेड़ के नीचे खड़ा करके मुंशी जी उस दफ्तर में ऐसे लापता हुए कि कल्लू के खड़े-खड़े पैर दुखने लगे। थककर वह पेड़ के नीचे बैठ गया।
जब दोपहर ढलने लगी तो मुंशी जी बाहर आए। हाथ का बस्ता उन्होंने फिर कल्लू को थमा दिया। मुंशी जी के साथ एक और बाबूजी थे। मुंशी जी ने उन बाबूजी से कहा बड़े बाबू ये हमारे इलाके के बेरखेड़ी खुर्द गांव का कल्लू है। इसका बाप रामलाल पहले वहां चौकीदार था। वह मर गया है, उसकी जगह चौकीदारी के लिये इस कलुआ ने अर्जी दी है। थाने से अर्जी आपके पास आ गई है। अब आप उस अर्जी पर कृपादृष्टि कर दो, यह कलुआ आपकी खिदमत करने के लिये ही आया है। बड़े बाबू और मुंशी जी दोनों ही यह जानते थे कि खिदमत का अर्थ क्या है। अब मुंशीजी ने कल्लू से कहा क्यों बे, सूखे ही सूखे चौकीदारी चाहता है, बाबूजी को चाय-पानी नहीं कराएगा।
तीनों ही पास की एक होटल की ओर बढ़े। अबकी बार मुंशीजी ने कल्लू को भी साथ चलने को कहा। तीनों जब भीतर पहुंचे तो खाने-पीने की चीजों का आर्डर देने का काम मुंशीजी ने संभाल लिया। पहले गुलाब जामुन आयी, फिर रबड़ी, फिर कचोरी फिर समोसे और उसके बाद चाय। कल्लू ने चाय को छोड़कर अन्य चीजों के नाम ही सुने थे। इन चीजों का स्वाद चखकर वह अपने आपको धन्य समझने लगा। चाय की चुस्की लेते हुए मुंशी जी ने कल्लू से कहा तू जो पांच सौ रुपये लेकर आया है वह बाबूजी को दे दे। कल्लू अब तक एक सौ रुपया मुंशी जी की सेवा में खर्च कर चुका था। उसने कहा हुजूर अब तो चार सौ ही बचे हैं। मुंशी जी यह सुनकर भड़के और बोले साले तुम हो गांव के गंवार, पूरे पैसे लेकर क्यों नहीं आए। बड़े बाबू क्या तेरे नौकर हैं जो मुफ्त में तुझे चौकीदारी का आर्डर दे देंगे। कल्लू चुप हो गया। अब बड़े बाबू ने बात आगे बढ़ाई ऐसा करो तुम तीन सौ रुपए अभी दे जाओ दो सौ रुपए आठ-दस दिन बाद दे जाना तब तक मैं तुम्हारी अर्जी आगे बढ़ा दूंगा। तीन सौ रुपए अपनी जेब के हवाले करने के बाद बाबू होटल से बाहर निकले और होटल का बिल कल्लू को ही चुकाना पड़ा।
रात को वे थाने में पहुंच गए। थाने में मुंशी जी से राम-राम करने के बाद जब कल्लू अपने गांव के लिये रवाना हुआ तो उसने यह फैसला कर लिया था कि घर के बरतन और सारे जेवर गिरवी रखने के बाद गांव के बनिया ने उसे पांच सौ रुपए दिये थे। अब वह इन बरतनों और जेवरों को बेच देगा, ताकि बड़े बाबू के लिये दो सौ रुपए का इंतजाम कर ले और इस गांव का चौकीदार बन जाए।
अपने वादे के मुताबिक कल्लू बड़े बाबू को दो सौ रुपए और दे आया। उन्होंने अर्जी भी आगे बढ़ा दी। बड़े बाबू ने अर्जी डिप्टी साहब को भेजी, डिप्टी साहब ने स्टेनो को, स्टेनो ने रीडर को, रीडर ने उसे कप्तान साहब के सामने पेश किया, पर अर्जी की चाल ने चींटी को भी मात कर दिया। कल्लू का अब नियम बन गया था कि वह हर हफ्ते जिला सदर मुकाम जाता। वहां बड़े बाबू को चाय-पानी कराता। उसके बाद वह उस अफसर के सामने खड़ा हो जाता, जिसके बारे में बड़े बाबू उसे बताते। हर बार वह दो-चार लोगों के पैरों से हाथ लगाता। इतनी भाग-दौड़ के बाद उसे पता चला कि उसकी अर्जी मंजूर हो गई है। कप्तान साहब ने आर्डर कर दिया है, मगर आर्डर के जिला सदर मुकाम से थाने पहुंचने में ही डेढ़-दो महीने लग गए। इस बीच वह गांव में मेहनत-मजदूरी करता रहा, पर इससे उसका और उसके घर का पेट ही भर पाता था। जिला सदर मुकाम जाने, वहां चाय, पानी कराने के लिये उसे यहां-वहां से कर्जा भी लेना पड़ता था, जिसे उसने चौकीदार बनने के बाद चुकाने का वादा किया था। सारे गांव को उसके चौकीदार बनने का इंतजार था। जब वह जिला सदर मुकाम से लौटता तो कई लोग उससे पूछते कि उसकी चौकीदारी का क्या हुआ? यह बात दूसरी है कि कुछ लोग यह बात अपना रुपया वापस लेने के लिये पूछते तो कुछ लोग मजाक उड़ाने के लिये। गांव के कुछ निठल्लों के लिए कल्लू की चौकीदारी एक लतीफा बन गई थी।
कल्लू ने खुशी से गद्गद् होकर ज्यों ही नियुक्ति का कागज जेब में रखा, त्यों ही मुंशीजी ने कहा साले आर्डर तो जेब में रख लिया और हमें क्या उल्लू ही समझ लिया है जो हम इतने कागज लगाते रहे। थाने का मुंह मीठा कराये बिना तू यहां से जा नहीं सकता। कल्लू ने इसे मुंशी जी की अहसान भरी झिड़की मानी। मगर आज उसकी जेब में दो रुपए ही थे। उसने कहा हजूर आज तो जेब खाली है दो-चार दिनों में मुंह मीठा करा जाऊंगा। कल्लू के इस जवाब से मुंशी जी और उदार होते हुए बोले अबे रुपयों की क्यों फिकर करता है रुपये तो मैं अभी दिये देता हूं। तेरी पगार जब आएगी, तब उसमें से काट लूंगा। यह कहते हुए मुंशी जी ने कल्लू के जवाब की प्रतीक्षा नहीं की, बल्कि जेब से सौ रुपये का एक नोट निकालकर एक सिपाही को दिया और कहा जाओ ठाकुर साहब एक किलो मिठाई ले आओ। थोड़ा-बहुत नमकीन ले आना। दस पेशल चाय बोल आना, दस पान बनवा लाना और एक डिब्बी सिगरेट की ले आना।
 जिला सदर मुकाम और थाने के चक्कर काटते हुए कल्लू इतना तो जानने ही लगा था कि इतने सामान के आने के बाद सौ रुपये का नोट पूरी तरह ही खर्च हो जाना है। थाने का मुंह मीठा कराने की इस व्यवस्था से उत्साहित मुंशी जी ने अपने मुंह में मिठास लाते हुए कल्लू को समझाना शुरू किया कि अब वह भी सरकार और पुलिस का जिम्मेदार आदमी हो गया है। इसलिये हर हफ्ते सोमवार को उसे थाने में हाजिरी देनी होगी और गांव की सारी रिपोर्ट थानेदार साहब और मुंशी को देनी होगी। गांव में कोई बदमाशी करे तो यह भी बताना होगा। गांव में कोई मर जाये, किसी के घर बच्चा पैदा हो, इसकी रिपोर्ट आकर दर्ज कराना होगी। गांव में चोरी, डाकेजनी, मारपीट, बलवा और खून हो जाए तो उसकी रिपोर्ट तुरत-फुरत थाने में देना होगा। इसके अलावा कुछ और बातें उसे थाने में बताना होंगी, जैसे गांव में जुआ खेलने, शराब और चरस पीने के  शौकिनों के बारे में भी उसे खबर थाने में देनी होगी।
मुंशीजी से यह गुरुज्ञान प्राप्त करके तथा सारे थाने का मुंह मीठा कराके कल्लू अपने गांव लौट आया। उसे गांव में जो भी मिला, उसे उसने बता दिया कि वह चौकीदार हो गया है। उसने सरपंच साहब को भी जाकर यह खबर सुनाई।
सरपंच साहब यह सुनकर बहुत खुश हुए और बोले हमारी कोशिश कभी बेकार नहीं जाती। अब तू मन लगाकर अपने बाप की तरह काम करना। कल्लू हाथ जोड़कर उनके उपदेश सुनता रहा और लौटकर घर आ गया। रात को वह चैन की नींद सोया, आखिर महीनों पुरानी चिंता दूर हो गई थी।
दूसरे दिन सुबह उठकर उसने एक मटके में रखी अपने बाप की पुरानी बर्दी को निकाला। बेल्ट को कपड़े से रगड़ा तथा कपड़ों को धोकर सूखने के लिये डाल दिया। तीन-चार दिन बाद सोमवार को उसे थाने में हाजिरी देने जाना है और कल्लू इतना जानता था कि हाजिरी के लिये वर्दी पहिनना बहुत जरूरी है।
वह अपनी वर्दी की इस चिंता से मुक्त हुआ ही था कि उसे सरपंच साहब के यहां से बुलावा आ गया। उनके बरामदे में पटवारी साहब बैठे हुए थे। सरपंच ने कल्लू से कहा कि पटवारी साहब लगान वसूल करने के लिए आए हैं, इसलिये गांवों के सभी किसानों को खबर कर दो कि अपना-अपना लगान लेकर आ जाएं। गांव के अधिकांश घर किसानों के थे। नतीजे में कल्लू ने हर घर की कुण्डी खटखटाई। जो लोग एक बार के बुलाने पर नहीं आए, उन्हें वह दूसरी बार बुलाने गया। कई लोगों को बुलाने के लिये उसे चार-चार, पांच-पांच बार जाना पड़ा। वह दिन भर भाग-दौड़ करता रहा। शाम को भूख और थकान से उसका बुरा हाल था और इस तरह कल्लू उर्फ कालूराम वल्द रामलाल साकिन (निवासी) बेरखेड़ीखुर्द तहसील ग्यारसपुर जिला विदिशा ने ग्रामरक्षक उर्फ चौकीदार उर्फ सरकार के सबसे जिम्मेदार आदमी के रूप में अपनी नौकरी का पहला दिन पूरा किया। दूसरे दिन सुबह होते ही एक नई जिम्मेदारी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। पंचायत के मुंशी जी ने उसे कागजों का एक पुलिंदा थमाते हुए कहा ये डाक आज ही तहसील के पंचायत दफ्तर में पहुंचानी है और इसकी रसीद लेकर आना है। वह इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये दस मील पैदल तहसील गया और वहां पंचायत दफ्तर तलाश करके कागज सौंपे, पर यहां भी उसे जिम्मेदार आदमी मान लिया गया। दफ्तर का चपरासी छुट्टी पर था, इसलिये बाबुओं ने उसे चाय-पान और सिगरेट लाने की जिम्मेदारी सौंप दी। हां, इस काम में उसे भी दो-तीन बार चाय पीने का मौका मिल गया।
तीसरे दिन ग्रामसेवक जी आ धमके, उन्हें अपने दफ्तर तक जरूरी डाक पहुंचना थी। चौथे दिन जब वह थाने में हाजिरी देने जा रहा था कि गांव की मिडवाइफ जिसे लोग नर्स बाई कहते थे, पास के अस्पताल से दवाएं लाने का एक कागज दे गयीं। मगर जब उसने थाने में हाजिरी की मजबूरी बताई तो उन्होंने बहुत दयाभाव से कहा कोई बात नहीं, कल ले आना।
थाने में वह वर्दी लगाकर हाजिर हुआ। मुंशी जी उसके इंतजार में ही बैठे थे। कल्लू उन्हें गांव की खैरियत रिपोर्ट दे पाता इसके पहले ही मुंशी जी ने कहा जरा थानेदार साहब के बंगले में चला जा वहां से दो-तीन खबरें आ चुकी हैं। थानेदार साहब थाने के अहाते में एक क्वार्टर में रहते थे, जिसे बंगला कहा जाता था। बंगले में कई जिम्मेदारी के काम उसका इंतजार कर रहे थे। इनमें से कुछ काम थे थानेदार के सारे घर के कपड़ों को धोना, उनकी गाय के लिये घास काटकर लाना, बंगले के आसपास की सफाई करना।
 शाम को उसे खुद थानेदार साहब ने एक जिम्मेदारी का काम सौंपा। यह काम था थानेदार साहब का नाम लेकर बिना पैसा दिए शराब की दुकान से एक बोतल शराब लाना। दिन भर वह दौड़-दौड़कर काम करता रहा, किसी ने उससे यह भी नहीं पूछा कि उसने कुछ खाया-पिया भी है या नहीं।
रात को थका-हारा वह लौटा। ग्राम बेरखेड़ी खुर्द का वह सबसे जिम्मेदार सरकारी आदमी चोरों की तरह अपने घर में घुसा और सो गया। उसे डर था कि कहीं कोई और जिम्मेदार काम उससे आकर नहीं चिपट जाए।