लघुकथा – खोल दी आंखें

विराम के पास एक बड़ा फार्म हाउस है। उसकी महानगर में सौन्दर्य साबुन तथा सुरक्षा चक्र लिए टूथपेस्ट की दो फैक्ट्रियां चल रही हैं। दोनों का अच्छा काम व नाम है। …भला उससे मेरा क्या मुकाबला! वह तो सचमुच अमीर है और मैं सचमुच गरीब! ‘आप गरीब कैसे? ‘मेरे पास फार्म तो है, पर उसमें हाउस नहीं। मेरी दो पॉलीथिन बैग तथा लैदर की फैक्ट्रियां तो जरूर हैं, पर हैं जिला मुख्यालय पर, किसी महानगर में नहीं। कोठी उसकी भी एक है, मेरी भी एक… पर हूं तो मैं गरीब ही। ‘ओह! ठीक कहा आपने। आपको क्या पता गरीबी किसे कहते हैं। तन ढकने को कपड़ा नहीं। पेट भरने को सूखी रोटी नहीं। छत के नाम पर झोपड़ी तक अपनी नहीं।…ऐसे में भी जो सन्तुष्ट है, आपकी तरह असन्तुष्ट नहीं… वही सबसे बड़ा अमीर है। आप सचमुच बहुत गरीब हैं। …केवल असन्तुष्ट होने के कारण ही। इस वाक्य ने चक्षु को झकझोर कर रख दिया। सोते से जगा दिया। वह सुन रहा था- ‘एक मजदूर जो आपके कारखाने में सबसे कम तनख्वाह पाकर भी संतुष्ट है, वहीं, वही सचमुच अमीर है। नरेश ने कहा। उसे अब लगा कि किसी ने उसकी आंखें खोल दी हैं। यह और कोई नहीं उसी का बेटा नरेश ही है। वह सदा पिता चक्षु को कम भागदौड़ करने की राय देता रहा है।