मनुष्य के लिए मनुष्य से भी जरूरी पशु पक्षी

मौर्यवंश के तृतीय राजा अशोक को भारत का महानतम शासक कहा गया है। कलिंग विजय उनकी प्रथम और अंतिम लड़ाई थी। लड़ाई से प्रभावित महिलाओं और ब’चों का क्लेश देख कर उन्हें अपार दुख हुआ था, जिससे उन्होंने आजीवन युद्ध नहीं करने का संकल्प ले लिया था। उसके बाद वे जीवनपर्यंत धर्म प्रचार एवं शांति की स्थापना के लिये प्रयत्नशील रहे। उन्हें न केवल युद्ध से घृणा हो गयी, बल्कि उन्हें पशु-पक्षियों से भी बेहद प्यार हो गया। उन्होंने बैल, हाथी, सिंह, घोड़ा आदि जानवरों की आकृतियां अपने उपदेश वाली स्तंभ-शिलाओं पर लगवाई। वे चाहते थे कि लोग मांस नहीं खायें। मौर्यवंश की परम्परानुसार उनकी रसोई में प्रति दिन राजा के लिये दो मोर और एक हिरण पकाये जाते थे। अशोक ने उस पर रोक लगवा दी। यह तीसरी शताब्दी के उत्तराद्र्ध की बात है।


भारत भगवान् बुद्ध और महावीर की भूमि है। ”जीओ और जीने दोÓÓ की वाणी को महात्मा गांधी ने भी अहिंसा के रूप में अपनाया हुआ था। यह वह भूमि है जहां एक कपोत के प्राण रक्षार्थ राजा शिवि ने अपने को अर्पित कर दिया था। गौ-रक्षक रघुवंशी राजा दिलीप को हम भूल नहीं सकतें।


अब जब पर्यावरण छिन्न-भिन्न होने को आया है तो हम पशु-पक्षियों और वनों के संरक्षण के लिये चिंतित हो गये हैं। एक बार फिर उनकी चर्चा हर तरफ होने लगी है। लेकिन हमारे प्राचीन साहित्यकारों ने पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की चर्चा अपने साहित्य में की है, जो उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। विश्व का कोई भी ऐसा प्राचीन साहित्य शायद ही हो जिसमें पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों या वनों की कमोवेश चर्चा न हो।


रामायण के रयचिता वाल्मीकि ने क्रौचवध की चर्चा की है। वे पक्षी मिथुनरत थे, जब उन्हें वाण लगा। मुत्यु के समय क्रौंच ने श्राप दिया,”हे बहेलिये! तूने कामोन्मत्त क्रोंच पक्षी को मारा है। इसलिये तुझे चिर काल तक सुख-शांति नहीं मिलेगी।ÓÓ पक्षी की हत्या का यह चित्रण देख कर किसका मन विचलित नहीं हो जाता! कौन पक्षियों के संरक्षण की बात नहीं सोचने लगता!


रावण पंचवटी से सीता का हरण करके ले जा रहा था। रास्ते में जटायु नामक एक गिद्ध सीता को बचाने के लिये अपनी अंतिम सांस तक लड़ा था। लेकिन रावण ने अपनी तेज तलवार से उसके पंख कुतर दिये तो वह लाचार होकर जमीन पर गिर पड़ा। बाद में सीता की खोज में उधर से गुजरते हुए राम ने उस पक्षी का अंतिम संस्कार किया। इससे पक्षियों के प्रति राम के स्नेह का पता चलता है। पालतू पशु-पक्षियों के मरने पर उनके कुछ पालकों द्वारा आज भी उनके अंतिम संस्कार करने के उदाहरण देखने-सुनने को मिल जाते हैं। इससे पशु-पक्षियों के प्रति मानवीय सम्वेदना का आभास मिलता है।


रामायण में तुलसीदास द्वारा राम के वन गमन के समय घोड़े की हिनहिनाहट का चित्रण पशु-पक्षियों के मानवीय संबंधों की पराकाष्ठा है। महाभारत में एक दृश्य वर्णित है। युघिष्ठिर को समझ में नहीं आ रहा था कि वे अब क्या करें। तभी कहीं से एक नेवला आकर उन्हें उपदेश देता है। इस तरह महाभारत में एक नेवला को युधिष्ठिर के गुरु के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है।


जातक कथाओं और पंचतंत्र की कथाओं में पशु-पक्षियों को ही पात्र बनाया गया है. दुनिया भर की बातें जितनी कुशलतापूर्वक इन कथाओं में वर्णित हो पायी हैं, इसका एक मात्र प्रमुख कारण है उन कथाओं में पशु-पक्षियों का पात्र होना है।


वस्तुत: सृष्टि की शुरूआत ही पशु-पक्षियों से हुई है। डार्विन महोदय के अनुसार मनुष्य के पूर्वज बंदर थे। जो वनों के अंदर पेड़ की मोटी-पतली टहनियों पर उछला करते थे। बंदर से मनुष्य बनने का क्रम भी स्वाभाविक रूप से पशु-पक्षियों के साथ बीता। और तो और, जब मनुष्य सभ्य होकर अपनी आदिम प्रवृतियों और स्थानों को छोड़ कर जंगल से बाहर आ गया तब भी वह पशु-पक्षियों के सह-अस्तित्व के बिना कभी न रह सका।


राम-रावण युद्ध में मनुष्य रूपी राम को बंदर, हनुमान, भालू, गिलहरी, हिरण, गिद्ध आदि अनेक पशु-पक्षियों ने सहायता की थी।


स्वयं भगवान भी पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेते रहे हैं। मछली, वराह कछुआ, आदि अनेक रूपों में भगवान के अवतार का वर्णन मिलता है। अवतार सर्वथा सोद्देश्य होता है. मान्यता है कि जो काम मनुष्य के रूप में नहीं हो पाता, उसे पूरा करने के लिये भगवान विभिन्न पशु-पक्षियों के रूप में अवतार लेते हैं।


पशु-पक्षियों को महत्व प्रदान करने के लिये उनसे संबंधित अनेक पर्व-त्योहार बनाये गये हैं। जैसे गाय के लिये गोपाष्टमी, नाग के लिये नागपंचमी आदि। कार्तिक महीने में एक जाति विशेष द्वारा घोड़ा की पूजा की जाती है। देवी-देवताओं के वाहन एवं धार्मिक प्रतीकों के रूप में भी अनेक पशु-पक्षियों को अपनाया गया है। ये सारे प्रावधान पशु-पक्षियों को धार्मिक संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था है।


आज वन्यप्राणियों को पर्यटनीय महत्व दिया जाने लगा है। खजुराहो, ताजमहल, कुतुबमीनार, आदि स्थलों की तरह वन और वन्यप्राणी भी दर्शनीय जीव साबित हो गये हैं। मनुष्य जब औद्योगीकरण और शहरीकरण से उब जाता है तब वह वनों की ओर भागता है। विदेशों में तो इसका प्रचलन-सा हो गया है। अमेरिका और यूरोप के लोग छुट्टियों में अफ्रीका के राष्ट्रीय उद्यानों में पहुंच जाते हैं। वन और वन्यप्राणियों का पर्यटन आज एक  उद्योग साबित हो रहा है।


दरअसल पशु-पक्षियों में जो प्राकृतिक सौंदर्य एवं निश्छल व्यवहार पाया जाता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। आकाश में स्वाभाविक रूप से उड़ते हुए पक्षी और वनों में कुलांचे भरते हिरण, मधुर कूक वाली कोयल और काले मेघ के साथ थिरकते मोर को देख कर भला किसका मन-मयूर नहीं नाचने लगेगा? उद्यान में रंग-बिरंगे फूलों की ओट से जब नन्ही चिडिय़ाओं की मधुर आवाज सुनाई पड़ती है तो लगता है कि सुगंधित फूल चहकने लगे हों।


सभ्यता के विकास और आधुनिकता के दौर के कारण हमारे पशु-पक्षियों को विशेष कष्ट झेलने पड़े हैं। यदि पशु-पक्षी हमारी तरह बोल पाने में समर्थ होते तो हमें पता चलता कि उनका करूण-क्रंदन हमारे कानों को फाड़ देगा और हम अपने कुकृत्य की क्षमा मांगने के लिये उन्हें वन-वन ढूंढ़ते फिरते। मगर अफसोस! हम उनकी भाषा नहीं समझ पातें। उनकी भाषा मनुष्य से भले भिन्न हो, मगर उनकी उपादेयता और धरती पर उनके रहने की अनिवार्यता मनुष्य से किसी भी मायने में कम नहीं है। बल्कि धरती पर भरपूर पशु-पक्षियों का होना मनुष्य के लिये मनुष्य से अधिक जरूरी है।