मनुष्य को स्वयं अकेले ही अपने सभी पाप-पुण्य कर्मों के लेखे-जोखे का भुगतान करना होता है। वहाँ कोई उसका साथी नहीं बनता। भरी भीड़ में भी वह अपने आपको अकेला ही पाता है।
‘एकला चलो रे‘, गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर की यह पंक्ति सदा ही प्रेरणा देती है और मार्गदर्शन करती है। यह पंक्ति हमें हमारे जीवन जीने के लिए महत्त्वपूर्ण संदेश देती है कि अकेले चलने में घबराना नहीं चाहिए।
दुनिया में अकेले वही चलते हैं जो साहसी होते हैं। जैसे शेर को जंगल में अकेले चलने के लिए किसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार मनुष्य को भी सहारों की बैसाखी नहीं तलाशनी चाहिए।
मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है, तो अकेला ही होता है और इसी प्रकार जब विदा लेता है तब भी अकेला होता है। न उसके साथ कोई आता है और न ही कोई जाता है। जब मृत्यु से जन्म की यात्रा वह एकाकी कर सकता है, तो जन्म से मृत्यु की यात्रा में उसे कभी अकेले परेशानी होनी ही नहीं चाहिए।
विचार कीजिए कि इस संसार में हम कब-कब अकेले होते हैं? यदि इस का हल हम कर लेते हैं तो फिर सारी समस्या ही हल हो जाती है।
मनुष्य अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के फल स्वयं ही भोगता है। उसकी खुशी में तो सब शामिल हो सकते हैं पर उसके दुखों और परेशानियों को कोई नहीं बाँट सकता। यह सच है कि जो भी कष्ट उसके शरीर के होते हैं या उसके मन के अवसाद होते हैं उनमें चाहकर भी कोई भागीदारी नहीं कर सकता। उन सबको अकेले ही भोगता रहता है। अन्य सभी परिवारी जन, मित्रा या बन्धु उससे सहानुभूति रख सकते हैं। उसके पास भी खड़े हो सकते हैं पर अपने भोगों का भुगतान तो अकेले ही करना पड़ता है।
अपने पत्नी, बच्चों या अन्यों के लिए जो भी स्याह-सफेद वह करता है उसका जिम्मा केवल उसी का होता है किसी अन्य का नहीं।
यहाँ मुझे महर्षि वाल्मीकि की घटना याद आ रही है। जंगल में लूटने के उद्देश्य से रत्नाकर डाकू ने ऋषियों को रोका। तब उन्होंने कहा कि घर जाओ और जिनके लिए तुम यह पापकर्म करते हो उनसे पूछो कि वे इसमें तुम्हारे साथी होंगे। रत्नाकर को यह सुनकर विचित्रा लगा उसने कहा कि वे मेरे अपने हैं और मेरा ही साथ देंगे।
ऋषियों के जोर देने पर घर जाकर उसने अपने माता, पिता, पत्नी और बच्चों से वही प्रश्न किया। उन सबका यही एक उत्तर था कि परिवार के पालन-पोषण का दायित्व उसका है। वह पैसा कैसे कमाता है। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं। इसलिए वे सब उसके पापकर्म में भागीदार कदापि नहीं बनेंगे। यहीं से महर्षि के जीवन का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ और वे युगों-युगों तक गाई जाने वाली पवित्रा रामकथा के रचयिता बने।
मनुष्य के सुख और दुख के समय के अतिरिक्त उसके अकेलापन की पीड़ा भी उसकी अपनी होती है। जितना वह जीवन की ऊँचाइयों पर पहुँचता जाता है, उतना ही अकेला होता जाता है। उसके सभी साथी एक-एक करके पीछे छूटते जाते हैं। वे हाथ बढ़ाकर तब उसे छू भी नहीं पाते।
हमारे ऋषि-मुनि इसीलिए पुण्यकर्मों को करने और पापकर्पमों को त्यागने पर बल देते हैं ताकि जब उन कर्मों को भोगने का समय आए, तो मनुष्य को रोना न पड़े। इस उक्ति को सदा स्मरण रखना चाहिए-
‘सुख के सब साथी दुख में न कोई।‘
अकेले ही अपने सारे कृत कर्मों को भोगना होता है। अतः शीघ्र जाग जाएँ तो बहुत ही अच्छा है।