अपने दुख को न कुरेंदे

एक कवि ने कहा है-
यह जीवन क्या है? निर्झर है।
मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीयें लें।
चल रहा राह मनमानी है।


जीवन में सुख का पक्ष आसानी व आराम से कट जाता है, मगर दुख का पक्ष, बड़ा बोझिल हो जाता है। आज इस दुख वाले पक्ष को लेकर, कुछ बिन्दुओं में रखकर हम चर्चा करते हैं।
– हमेशा, हर कहीं, हर किसी के लिए अपना दुख सबसे बड़ा होता है। उसे लगता है कि उस पर दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा है।


अपना दुख जब हमें बड़ा व पहाड़ के समान लगता है तो हम रोने-बिलखने लगते हैं। जब हमें दुख बड़ा लगता है तो हम दुखी हो जाते हैं। हर आने-जाने वाले से अपने दुख का रो-रोकर, लंबा-चौड़ा बखान करने लगते हैं। घंटो पश्चाताप करते हैं। इतना भी याद नहीं रखते कि सामने वाले के पास भी समय नाम की चीज है। खुद भी खीज सकता है या तंग आ सकता है। हम लोगों के घर-जाकर व रास्ते पर रोककर कम पहचान व थोड़ी सी पहचान वालों को अपना दुखड़ा सुनाते हैं। वे तंग आते हैं। मगर उनके सामने मर्यादा का सवाल खड़ा रहता है।


– जब हम अपने दुख को बड़ा समझते हैं और बढ़-चढ़कर महसूस करते हैं तो लोगों की हमदर्दी व सांत्वना पा लेते हैं और हमदर्दी, सांत्वना पाकर हम शांत नहीं होते, वरन् और ज्यादा परिणाम में इन्हें प्राप्त करने के लिए ज्यादा जुझारू बन जाते हैं। फोन पर व सोशल मीडिया पर घंटो चैटिंग करते रहते हैं। हम ये कोशिश नहीं करते कि दुख से किस तरह उबरा जाए और सामान्य हुआ जाए, बल्कि हम घाव को कुरेदने में लगे रहते हैं।


– अपने दुख व कष्ट के पीछे हम इतना पागल हो जाते हैं कि सामने वाले के दुख-दर्द को जानने-समझने व धीरज बंधाने की कोशिश नहीं करते हैं या इच्छा नहीं करते हैं। तेरा दुख बड़ा या मेरा दुख बड़ा, इस बात पर हम कई बार तू-तू, मैं-मैं भी कर लेते हैं। हम दुख में हैं तो हमें दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है, यह हमें पता रहता है, मगर सामने वाला दुखी है तो उसे भी मदद की जरूरत है, यह ज्यादा ध्यान में नहीं रखते हैं। हम चुपचाप खिसक जाते हैं।


– हम जिस दुख के वश में होकर अपना सुख-चैन गवां देते हैं, वह दुख जब विराम नहीं पाता है तो हमें अंदर-बाहर से खोखला करने लगता है। जो दुख परिणाम में छोटा था वह  व्यापक व भयंकर हो जाता है।


उपरोक्त पांच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर हमें यह मत बनाना चाहिए कि दुख उस पीड़ादायक घाव जैसा होता है, जिसकी मरहम पट्टी कर देने पर दब जाता है और कुरेदने पर बढ़ जाता है। इसलिए इसे दबाना ही अच्छा है।


हां यादें आती है, मन को दुख भी पहुंचता है, आंसू भी बहते हैं, मगर आत्मनियंत्रण से उसे दमित कर देना व मन को बांट लेना सीख ही लेना चाहिए। (विभूति फीचर्स)
देवदासियां क्या प्रभु प्रेमिकाएं थी?


विजेन्द्र कोहली गुरदासपुरी – विभूति फीचर्स
प्राचीन भारत में मंदिरों में देवदासियों को रखने की प्रथा थी। तब ईश्वर सेवा में अपनी लड़कियों को मंदिर को दान करना धार्मिक प्रथा थी, कुछ लोग गरीबी में दान करते थे- अमीर लोग खरीद कर लड़कियां दान करते थे। भारत ही नहीं यूनान, मिस्र, रोम में देवदासियों की प्रथा पायी जाती थी।


देवदासियों का नृत्य एवं संगीत के साथ विशेष लगाव रहता- भजन-कीर्तन, नृत्य-संगीत द्वारा वे ईश्वर स्तुति किया करती। इसके साथ-साथ वे मनोरंजन भी करतीं। मिस्र में इन्हें क्रिस्टोफर कहते थे। रोम में भगवान वेस्ता को वे समर्पित होतीं।


वे ईश्वर की दासियां मानी जाती। उनका झूठा विवाह देव प्रतिमा या घुंघरुओं से कर दिया करते थे ताकि वे किसी पुरुष से विधिवत विवाह न कर सकें।


कालान्तर में मंदिरों में पंडित, पुजारी भी उनका उपयोग करने लगे। समाज का अंधविश्वास, लोगों की अंध श्रद्धा इस बलि की जिम्मेदार थी। अनैतिक भी न माना जाता था। वे गर्भगृह में रहतीं- नाट्य मंदिर में नृत्य करती। शारीरिक सौन्दर्य के लिए व्यायाम नृत्य योग करती। सभी क्षेत्र की महिलाएं- देवदासियों के रूप को स्वीकारती थीं।


राजा भी अंत:पुर में देवदासियां रखते थे। जो नृत्य संगीत- नाट्य कला में पारंगत रहतीं। 1014 में महमूद गजनवी सोमनाथ के मंदिर से लाखों के हीरे-मोती भी ले गया। देवदासियां भी ले गया। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के सभी मंदिरों में देवदासियां रखने की प्रथा थी। अंधविश्वासी अभिभावक अपनी पुत्रियों को मंदिरों को समर्पित कर देते थे। आज भी कई मंदिर ऐसे हैं जहां गुप्त रूप से स्त्रियां समर्पित हैं, लड़कियां सेवा के नाम पर गुप्त देवदासियों के रूप में वेश्यावृत्ति करती हैं।


आज की बार बालाएं, काल गर्ल और लिव इन रिलेशनशिप, न्यूड डांस इसी की मार्डन रूप है। स्त्री पहले भी बिकती थी आज भी बिकाऊ है। उसने कभी विरोध नहीं किया। पुरुष तो सदा- धर्म, नियोग के नाम पर बहाने ढूंढ़ता रहा है। अंग्रेजी राज्य में यह प्रथा समाप्त हुई। उत्तर भारत के मंदिरों से मुसलमान देवदासियां लूटकर ले जाते थे। दक्षिण तक वे नहीं पहुंच सके। दक्षिण में गुप्तरुप में आज भी देवदासियों की प्रथा है।


भारत की सदियों पुरानी प्रथा तो समाप्त है परन्तु आज इसका रूप- विकृत हो गया है। पुरातन में कुछ भक्त देवदासियां थीं जो नृत्य पूजा-अर्चना करती थी। जो परोक्ष में वेश्यावृत्ति भी करती थी। कुछ इच्छा से बन जाती। दूसरी पथ भ्रष्ट होकर समाज से तिरस्कृत होकर देवदासी बन जाती- अपहरण द्वारा भी लड़कियां देवदासी बनाई जाती।


आज देवदासी प्रथा तो बंद है परन्तु वेश्यावृत्ति जोरों पर है। वहां भी कुछ लड़कियां मजबूरी गरीबी के कारण, कुछ शोक के कारण, कुछ समाज में परित्यक्त के कारण कुछ पैसे की दौड़ में वेश्यावृत्ति करती है। गरीब क्या अमीर लड़कियां भी शौक एवं खर्च के लिए इस दलदल में कूदी है।