अपने शौक को हर हाल में जिंदा रखें

निर्मलाजी जीवन के छह दशक पूरे कर चुकी हैं। खाते-पीते घर की महिला हैं । शॉपिंग, पिकनिक, पार्टी, घूमना-फिरना उनकी जवानी के दिनों के शौक थे। उन्होंने काफी ऐशोआराम में जवानी गुजारी। अब बच्चे अमेरिका में व्यवस्थित हो गए। पति भी चल बसे। तन्हाई काटे नहीं कटती। उनका दुर्भाग्य यह रहा कि उन्होंने कभी कोई शौक या हॉबी नहीं पाली। काश! उन्होंने दूरदर्शिता से काम लेते हुए कोई ऐसा शौक पाला होता, जिससे उपलब्धि का अहसास भी होता और तन्हाई उन्हें यूं न डंसती कि वे अपना मानसिक संतुलन खोने की कगार पर आ पहुंचती।


संगीता की मां काफी समझदार निकलीं। उन्होंने अधेड़ावस्था में आयुर्वेद चिकित्सा का कोर्स पूरा किया और इससे पहले कि बच्चे अपनी दुनिया अलग बसाते उन्होंने प्रैक्टिस शुरू कर दी। उनकी मेहनत और स्वभाव की मधुरता का उन्हें अच्छा सिला मिला। मरीजों की भीड़ रहने लगी। अब उन्हें अपने बुढ़ापे की जरा भी चिंता न थी। आर्थिक सुरक्षा और व्यस्तता ने उन्हें इस सोच से उबार लिया।


अक्सर गृहिणियां अपने को घर-परिवार में इस कदर उलझा लेती हैं कि अपनी अस्मिता तक भूल जाती हैं। इस कारण उनका हर तरफ से शोषण होता है। मजे की बात तो यह है कि भ्रमजाल में रहते हुए ये अपने को त्याग और बलिदान की देवी समझते हुए स्वतंत्र नारियों को अपने आगे बहुत हीन समझती हैं। उस समय वे इस बात से कतई अनभिज्ञ रहती हंै कि अपनी ही बनाई कैद में आगे चलकर उन्हें सिसक-सिसककर दम तोडऩा है।


आज की संतान कितनी खुदगर्ज, अनैतिक, रुपए पैसे की ही पूजा करने वाली है, यह सभी जानते हैं कि सिवाय इन गृहिणियों के जो ईश्वर की तरह अपने बच्चों के नाम का हर समय जप करती हैं। अगर कोई समझदार व्यक्ति उनसे बच्चों से कुछ मोह कम करने को कहेगा तो वे उसे पागल समझेंगी जो कि एक भयानक नैतिक अपराध है।


स्कूल-कॉलेज में जो बहुत प्रतिभाशाली छात्राएं समझी जाती थीं, कोई गाने-बजाने, कोई पेटिंग व सिलाई-कढ़ाई तो कोई पढऩे-लिखने में। ब्याह के बाद वे अपने शौक को पूरी तरह उपेक्षित कर देती हैं। कारण बाहरी कम, भीतरी ज्यादा होते हैं।


अपवाद तो हर जगह है। अब शशिकला की बात ही लें। बिल्कुल पुरातनपंथी दकियानूसी परिवार में ब्याही गई थी, लेकिन लिखने-पढऩे का शौक था तो अपने शयनकक्ष में ही यह कार्य करती रही। बाद में पति ने भी प्रोत्साहन दिया तो उसके लेख-कहानी खूब प्रकाशित होने लगे। फिर किताब छपीं और उसे पुरस्कार भी मिला। प्रौढ़ावस्था तक पहुंचते वह एक स्थापित लेखिका बन गई थी। घर के बुजुर्ग सभी एक-एक कर चल बसे। बच्चे अपने घर-संसार में लीन, पतिदेव दूसरी औरत के साथ रहने लगे। ऐसे में शशिकला के पास लेखन कला का साथ न होता तो वह अकेलेपन से घबरा कर टूट कर बिखर जाती।


कहते हैं कि कला ईश्वरीय देन होती है, लेकिन ईश्वर ने किसी को भी महरूम नहीं रखा है। कोई न कोई शौक पालने की क्षमता हर एक में विद्यमान होती है। बागवानी और पालतू पशु भी मानव के एकाकीपन को दूर करते हैं। पाश्चात्य देशों में बूढ़ी प्रौढ़ कुमारियां अक्सर कुत्ता-बिल्ली पाल लेती हैं, ताकि वे अपने को व्यस्त रख सकें। प्रौढ़ावस्था में खाली रहने से बढ़कर दूसरा अभिशाप नहीं, क्योंकि ऐसे में भूतकाल की यादें हर पल उनका पीछा कर उन्हें चैन से नहीं रहने देतीं। खाली बैठा व्यक्ति दूसरे की आंखों में भी खटकता है, इसलिए यह बेहद जरूरी है कि अपने शौक को बरकरार रखते हुए अपना जीवन सार्थक ढंग से गुजारें, जिससे आपको गहन आत्मसंतुष्टि भी मिले।