कहानी- बदले हुए पल

शाम के मुश्किल से छह बजे होंगे कि सब तरफ ठोस अंधेरा पसर गया। आकाश में बादल एक विशाल काले छाते की तरह तने हुए थे। उनसे निरंतर पानी रिस रहा था। ठंडी हवा के झोंके देह में झुरझुरी पैदा कर जाते थे। दूर सड़क के बल्ब की रोशनी धुंधली पड़कर छोटे दायरे में टिमटिमा रही थी।


मिसेज शर्मा ने बरामदे से झांक कर देखा। सब तरफ गहरा सन्नाटा खिंच गया था। इससे वे कुछ आश्वस्त हुई। परंतु शीघ्र ही उन्हें एकांत निराशा ने घेर लिया। दिन का वक्त तो कॉलेज में पढ़ाते और संगी साथियों के बीच कट जाता था परंतु रात का वक्त काटना मुश्किल हो जाता था। वे खाना तैयार करने में काफी वक्त लगाती, रिकार्ड प्लेयर पर मनपंसद संगीत सुनती या कोई उपन्यास पढ़ती रहती। फिर भी एक सीमा के बाद अकेलेपन का अहसास और तेजी से उन पर हावी होने लगता।


उन्होंने अपने क्वार्टर के दरवाजे और खिड़कियां सब बंद कर ली। वे एक फिल्म पत्रिका पलटने लगी। उसमें मन न लगा तो उपन्यास खोला। कुछ देर बाद उससे भी मन उचट गया। अंदर का अकेलापन इतना विकराल प्रतीत होने लगा कि उनके हाथ पैर सुन्न पडऩे लगे। आवाज सुनने के लिए उन्होंने टी.वी. लगा दिया। गिलास में थोड़ी ब्रॉडी उडेली और पानी मिलाकर पी ली। शरीर में थोड़ी सी स्फूर्ति महसूस हुई परंतु मन में कुहांसा-सा घिरता चला गया।  


उनके मानस पटल पर फिल्म की रील की तरह सारा अतीत क्रमश: प्रतिबिम्बित होने लगा। वह अतीत जो उनके हाथ से  निकल गया था। अपनी जिद और जवानी के जोश में जिसकी उन्होंने रंच मात्र परवाह न की थी। माता-पिता के लाड़-प्यार ने जिस पर और शान चढ़ा दी थी। अब जब उनके बाल सफेद होने लगे थे, तब अपनी गलतियों के अहसास के साथ वह अतीत उनका मुंह चिढ़ा रहा था। जितना वे उसे नकारने की कोशिश करती, उतना वह उनकी स्मृति को अधिक झकझोर देता।


उनके पिता शासन में उच्च पदाधिकारी थे। घर में सारी सुख-सुविधायें उपलब्ध थी। दो पुत्रों के बाद वे सबसे छोटी लड़की थी। संगमरमर की गुडिय़ा की तरह उनका एक-एक अंग सांचे में ढला हुआ था। यौवन की देहरी में प्रवेश करते-करते उनकी कुन्दनवर्णी देह में सौंदर्य जैसे छलक पडऩा चाहता हो। उनके विकसित रूप कमल के आकर्षण में अनेक भौरे मंडऱाने लगे थे। उन्हें अपने रूप पर बड़ा गर्व था।


पिता उदार विचारों के थे परंतु उनमें उच्चवंशीय मर्यादा का बोध था। इसलिए बी.ए. पास सुशील सजातीय युवक से उनकी शादी कर दी थी। वे केवल तीन महीने अपने पति के साथ रहीं। इतने लंबे अर्से के बाद तो पति का रूप चित्र ही उनकी स्मृति से धुल गया था।
पति का भरा-पूरा परिवार था, माता-पिता, भाई-बहिन सब थे। पति ने तमाम दूसरी नौकरियां छोड़कर शिक्षक की नौकरी अपनायी थी। इसलिए वे जो शादी के बाद आशा करती थी, उन्हें वह नहीं मिला। पति बेहद ठंडे किस्म के  व्यक्ति थे। जबकि उनके खुद के स्वभाव में एक पैनापन था। सौन्दर्य के कंटीलेपन और यौवन के उद्दाम वेग ने उनके अंदर और गर्मी ली दी थी। पितृ गृह के आभिजात्य-बोध ने उन्हें पति-गृह को अंगीकार नहीं करने दिया।
उन्होंने देखा कि पति-गृह में डाइनिंग टेबल नहीं है। सब चौके पर पटे पर बैठकर भोजन करते हैं। भोजन भी जैसे गोबर की तरह निस्वाद। चटपटा और मिर्च मसाला नहीं। नहाने-धोने का कड़ा बंधन। अलग से कोई श्रृंगार कक्ष नहीं, प्रसाधन के  नये उपकरण गायब। कपड़ों-लत्तों का कोई सलीका नहीं। यहां तक कि कोई अलग शयन कक्ष नहीं। सुहागरात में वे जिस कमरे में पति के साथ सोई थी, उसमें सामान भरा था। सबेरे से ही बच्चों की धमा-चौकड़ी ने उन्हें सोने नहीं दिया था। इस सबसे उनका मन खिन्न हो गया था।
उन्हें अपने पितृ-गृह की याद आ गयी थी, जिसमें सबके लिए अलग कमरे थे। ड्राइंग रूम, स्टडी रूम, डाइनिंग रूम आदि सब व्यवस्थित। बाहर सुन्दर लान और बगीचा। नौकर-चाकर बेड टी से लेकर रात के बिस्तर लगाने तक सब काम समय पर किया हुआ। यहां कुछ नहीं था। बेड टी तक गायब थी। उनके मन में खिंचाव आता गया था और वे पति को दुत्कार कर चली आयी थी। पति ने कई बार समझाने की कोशिश की थी परंतु उनकी अकड़ और बढ़ गयी थी। अंतत: यह संबंध कच्चे धागे की तरह टूट गया था। उन्होंने इसकी कोई  परवाह नहीं की थी। उस वक्त उनके आगे-पीछे अनेक भौरे मंडरा रहे थे और रस का प्याला छलक रहा था।


उन्हें कई चेहरे याद आये। परंतु जब इस रस-धारा में अनचाहे गर्भ की चट्टान व्याघात बनकर खड़ी हो गयी, तब कोई इसे हटाने नहीं आया। उनकी आंखें खुल  गयी। परंतु तब वक्त बहुत आगे निकल गया था।


पिता उनके आचरण से दुखी थे। परंतु उनके सामने सामाजिक मर्यादा और भविष्य का सवाल था। उन्होंने एबार्शन की व्यवस्था करके उस चट्टान को हटाया और कॉलेज में प्रवेश दिलाकर एम.ए. करवाया। इसके बाद वे कॉलेज की ही नौकरी  में आ गयी और तरक्की करते-करते विभागाध्यक्ष बन गयी। माता पिता दोनों उनकी चिंता में घुल  घुल कर मर गये। भाई उनका कुछ ख्याल करते पर भाभियों की भोंहे चढ़ जाती थी। यह मूक तिरस्कार उन्हें असहनीय था। इसलिए उन्होंने भाईयों के पास जाना भी बंद कर दिया था। कभी भूले भटके भाई उन्हीं के पास आ जाते थे।


पति की क्षीण स्मृति रह-रहकर उनके मानस में उथल-पुथल उत्पन्न कर देती थी। अब उनको डाइनिंग टेबल पर खाने में कोई मजा नहीं आता था। सोफे पर जैसे कांटे चुभते थे। कही किसी चीज का आकर्षण नहीं रह गया था। हर्ष उल्लास के गीतों के स्थान पर रिकार्ड प्लेयर से वेदना की धुनें बजती थी। उन्हें रूपये की तंगी नहीं थी। पर्याप्त वेतन, अकेले का खर्च और बैंक बैंलेस। लेकिन मन के तार छिन्न भिन्न पड़े थे। पहले उन्होंने अपने को भुलाने के लिए खूब व्यस्त रखा। संगीत नाटक काव्य, भाषण आदि में भाग लिया। तमाम तरह के कार्यक्रम आयोजित करती रही। होस्टल की वार्डन भी रहीं। अब शारीरिक शिथिलता के कारण सब बंद करना पड़ा। इसकी पूर्ति के लिए प्राचार्य को  खुश करने और उनसे निकटता स्थापित करने के प्रयत्न में लगी रहती। इसलिए उन्होंने बस्ती का मकान छोड़कर प्राचार्य के बगल वाले क्वार्टर में शिफ्ट कर दिया।


उन्हें रात में नींद नहीं आयी। मन इधर-उधर की बातों में भटकता रहा। छत पर पानी की बूंदों की धीमी-धीमी ‘टप-टप’   की आवाजें आती रहीं। उनकी लय पर उनकी सांसे ऊपर नीचे होती रही और धीरे धीरे वे शून्य में घिरती चली गयी।


सबरे वे जल्दी उठ गई। उनका मन और शरीर दोनों भारी थे। आकाश में बादल  अब भी घिरे थे। उन्होंने गैस पर चाय का पानी चढ़ाया ही था कि उन्हें खिड़की से डॉ. पाण्डेय आते हुए दृष्टिगोचर हुए। केतली में एक कप पानी और डालकर वे बरामदे में निकल आयी। उनका पहले का अवसाद बहुत कुछ छूट गया और होठों पर आशापूर्ण उल्लास की एक हल्की मुस्कान थिरक उठी। डॉ. पाण्डेय उनके आत्मीय और अंतरंग सहयोगी थे।
डॉ. पाण्डेय में कोई खास गुण नहीं था। पी-एचडी होने के बावजूद उनके मुख पर मूर्खता की छाप स्पष्ट दिखायी देती थी। उन्होंने बंधे-बंधायें ढर्रे पर एक फ्रेम वर्क पेश कर दिया था और डिग्री मिल गई थी। वे अधेड़ उम्र के थुल-थुल व्यक्ति थे। चेहरे पर कोई आकर्षण नहीं था। उन्हें अपनी बातों से दूसरों को खुश करने की कला अवश्य आती थी। उनकी शादी काफी अर्से पहले हो चुकी थी, परंतु वे पिता नहीं बन सके थे। शायद यही बात मिसेज शर्मा को डॉ. पाण्डेय के अधिक निकट खींच लायी थी। उन्होंने डॉ. पाण्डेय के समक्ष अपने अंदर की पर्ते खोल दी थीं। डॉ.पाण्डेय भी उनकी गहरी आत्मीयता में डूब गये थे।


मिसेज शर्मा पैतालिस पार कर गयी थी। जीवन के काफी चढ़ाव-उतार देख चुकी थी। उनमें दुनियादारी का सारा कौशल आ गया था। फिर भी डॉ. पाण्डेय को देखकर उनके मन में एक उमंग की तरंग छा जाती थी। उनसे कोई  खतरा भी नहीं था। डॉ.पाण्डेय मिसेज शर्मा की भावना का पूरा लाभ उठाते थे। मिसेज शर्मा विश्व विद्यालय के बोर्ड ऑफ स्टडीज की चेयरमैन थी। इससे परीक्षक बनवाने, पाठयक्रम में पुस्तक लगवाने जैसे  काम आसानी से हो जाते थे। कॉलेज में विभाग का टाइम टेबिल भी वे अपनी सुविधानुसार बनवा लेती थी।
‘आइये, पाण्डेय, यही आ जाइये।‘   कहती हुई मिसेज शर्मा बेड रूम में आ गयी। वहां से किचन में से भी बात की जा सकती थी। डॉ. पाण्डेय ने आत्मीयता पूर्ण विनय की मुद्रा से मुंह लंबा करके मिसेज शर्मा से नमस्ते की और उनकी पीछे-पीछे चलते हुए अंदर आ गये।
मिसेज शर्मा ने चाय का प्याला  डॉ. पाण्डेय की ओर बढ़ाकर पूछा- ‘आज इस मौसम में सबेरे-सबेरे कैसे?’


डॉ. पाण्डेय ने मुस्कुराते हुए कहा- मैडम इस माहौल को देखते हुए मुझे रात भर नींद नहीं आयी। आपकी चिंता सताती रही। आप अकेली है। कहीं कुछ हो जाय, तो आपका यहां कौन है? मुझसे रहा नहीं गया। इसलिए आपकी खोज खबर लेने चला आया।


 डॉ. पाण्डेय की इस बात से मिसेज शर्मा गद्गद् हो उठी। वे डॉ. पाण्डेय के बिलकुल करीब पंलग पर बैठ गयीं। और चाय सिप करते हुए बोली-‘पाण्डेय क्या बताऊं? मुझे वाकई रात को नींद नहीं आयी। यहां पहले जो प्रिसिपल थे वे बड़े अच्छे थे, रात-दिन खोज खबर रखते थे। मालूम ही नहीं पड़ता था कि हम दो परिवार हैं।


इन नये प्रिंसिपल का तो मिजाज ही नहीं मिलता। सोचती हूं कि यहां से कहीं बस्ती में चली   जाऊं, यहां वाकई वक्त जरूरत के  लिए कोई नहीं है। विभाग का भी कोई प्राध्यापक नहीं आता। आप ही हैं जो मेरे लिए इतना कष्ट उठाते हैं।‘


इसमें कष्ट की बात क्या है, मैडम अपनों के लिए कष्ट होने लगे तो फिर हो चुका। आप तो इस दास को अपना समझिये और सेवा का मौका दीजिए।‘


मिसेज शर्मा केतली उठाकर बची हुई चाय डॉ. पाण्डेय के प्याले में उड़लने लगीं। ”बस-बस, आप लीजिए।‘ कहते हुए डॉ. पाण्डेय ने जैसे ही हाथ ऊपर उठाया कि मिसेज शर्मा की कोहनी के स्पर्श से उनके शरीर में सनसनी दौड़ गयी और उन्हें सहज होने में कुछ समय लग गया।


मिसेज शर्मा कई बार डा. पाण्डेय के घर भी हो आयी थी और उनके सम्बन्ध बिल्कुल घरेलू बन गये थे। उस वक्त भी वे अनौपचारिकता बरत रही थी। वे तकिये पर उढ़कते हुए बोली- ‘पाण्डेयजी, बड़ा खराब मौसम है।‘ मेरा तो अंग-अंग टूट रहा है। आज तो कॉलेज जाने का भी मन नहीं कर रहा। देखिए, कैसा घटाटोप छाया हुआ है? ठंडी हवा हड्डियों को छेद रही है।


”वाकई आज बड़ी ठंड है और फिर यह मौसम’ डॉ. पाण्डेय ने समर्थन किया।
”आपको भी ठंड लग रही है?’
मिसेज शर्मा ने एक रहस्यात्मक अंदाज में पूछा।
”क्यों मुझे क्यों नहीं लगेगी।‘
मिसेज शर्मा जानती थी कि यह छलावा है।
यह जीवन का वास्तविक संबल नहीं है। वे इसी तरह हमेशा अपने को छलती रही है और वे इसी छलावे में बनी रहना चाहती है।
डॉ. पाण्डेय बहुत खुश हो रहे थे। मिसेज शर्मा की प्रशंसा में उनकी जीभ लटक पड़ रही थी। वे मिसेज शर्मा से हल्के-फुल्के मजाक भी करने लगे थे और अपनी इस प्रतिभा पर मन ही मन झूम रहे थे। बातें घूम-फिर कर नये प्रिंसिपल पर आ गयी।
”यह प्रिंसिपल कुछ घोंचू किस्म का मालूम पड़ता है। सुना है कॉलेज को सुधारने की योजनाएं बना रहा है।‘
”कुछ दिनों में सब फिस्स हो जायेगा। परंतु बड़े जीवट का आदमी मालूम पड़ता है।‘
”दकियानूसी बहुत है।‘
”अपने को क्या करना है।‘
”ही-ही-ही-ही….


जब काफी देर बाद पाण्डेय मिसेज शर्मा के क्वार्टर से बाहर निकले, तब उनकी गर्दन गर्व से तनी हुई थी। मिसेज शर्मा ने उस दिन की छुट्टी ले ली थी। वे शाम को फिर आने का वादा करके चले आये।


अब तक प्रत्येक प्रिंसिपल मिसेज शर्मा के इशारे पर चलता था। इसलिए कॉलेज में मिसेज शर्मा की धाक थी। परंतु नये प्रिंसिपल ने जब मिसेज शर्मा को घांस नहीं डाली और उल्टे उनकी हास्यापद चेष्टाओं के कारण उन्हें दुत्कार दिया, तब कॉलेज में भी छीछालेदार होने लगी। डॉ. पाण्डेय भी उनकी बदनामी के कारण बन गये। इससे मिसेज शर्मा अधिक उदास और अंतर्मुखी हो गयी।


उस दिन मिसेज शर्मा सारी दोपहर बिस्तर पर आंखें बंद किये पड़ी रही। वे शाम को अलस भाव से अपने क्वार्टर के फाटक पर खड़ी हो गयी। शायद डॉ. पाण्डेय के इन्तजार में। उसी समय कॉलेज का चपरासी एक फोटो लेकर प्रिंसिपल के बंगले की तरफ जा रहा था।
मिसेज शर्मा ने कौतुहलवश चपरासी को बुलाया और उनके हाथ से फोटो लेकर देखने लगी।
चपरासी ने बताया- ”यह साहब का बहुत पहले का फोटू है, फ्रेम कराने के लिए दिया था।‘
मिसेज शर्मा एकटक उस फोटो को घूर रही थी। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। परंतु यह सत्य था कि वह उनके पति का फोटो था। डिग्री लेते हुए नीचे लिखा था- रामचन्द्र शर्मा। यह नाम अब आर.सी. शर्मा हो गया था और असली नाम जैसे तस्वीर के बदलाव के साथ गुम हो गया था। यह फोटो एक स्निग्ध चेहरे वाले इकहरे शरीर के युवक का था और आर.सी. शर्मा मूंछों वाले भरे हुए चेहरे के अधेड़ व्यक्ति एवं तीन बच्चों के पिता थे। समय सब कुछ कितना बदल देता है?


मिसेज शर्मा के हृदय की धड़कन तेज हो गयी। उन्होंने सोचा कि अच्छा हुआ जो परिचय अपरिचय ही बना रहा। जिसे वे तीन महीने भी बर्दाश्त न कर सकीं उसे खुश करने के लिये वे कितने पापड़ बेल रही थी। कुछ देर में उन्होंने महसूस किया कि वे अतल गहराई में डूबी जा रही है और सब लोग इसे खेल समझकर हंस रहे हैं। उनका चेहरा एकदम स्याह पड़ गया। चपरासी को फोटो वापस करके मिसेज शर्मा तेजी से अन्दर की ओर मुड़ी और अपना इस्तीफा लिखने लगी।