श्रीराम का अलौकिक व्यक्तित्व भारतीय जनमानस पर विशाल वटवृक्ष के सदृश छाया हुआ है, जिसकी सुशीतल छाया में धर्म, आध्यात्म, नैतिकता, सच्चरित्रता तथा परोपकार आदि सद्ïगुण पलते और बृद्धि को प्राप्त होते हैं। वैदिक ऋषियों से लेकर नरेन्द्र कोहली तक के साहित्यिक सफर में रामकथा के इतने रूप हमारे सामने आए हैं कि उन सभी का दिग्दर्शन किसी एक निबंध या ग्रंथ में संभव नहीं है। प्रस्तुत लेख में संस्कृत के महान नाटककार भवभूति के नाटक उत्तर रामचरितम् में चित्रित श्रीराम के करुण स्वरूप का चित्रण किया जाएगा। श्रीराम का जीवन प्रारंभ से ही कठिनाइयों व अग्नि परीक्षा जैसी विभीषिकाओं से ग्रस्त रहा है। युवावस्था प्रारंभ होते ही उन्हें 14 वर्ष का वनवास भोगना पड़ा था। राजमहलों में पली-बढ़ी जनकनन्दिनी सीता व अनुज लक्ष्मण के साथ वन-वन भटकते राम ने कितने कष्ट सहे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
उन्हें कभी राजमहलों की कुत्सित मनोवृत्तियों ने छला और कंटकाकीर्ण मार्गों पर भटकने के लिए विवश किया। वन में भी वे शान्तिपूर्वक नहीं कर सके। सूर्पणखा, मारीच, सुबाहु, खरदूषण और रावण ने षड्यंत्र करके सीता का अपहरण कर लिया। सीता की खोज और रावण जैसे महा पराक्रमी शत्रु से युद्ध करने के लिए उन्हें सुग्रीव से मित्रता करनी पड़ी थी। इस घटना में उनको हनुमान जैसा महाबलशाली, बुद्धिमान और विश्वासपात्र भक्त मिल गया, जिसने उनका साथ हर परिस्थिति में दिया। वनवास अवधि की यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही।
रावणवध के पश्चात सीता को लेकर जब वे अयोध्या गए तो अयोध्या ने पुन: उनके विरुद्ध षड्यंत्र प्रारंभ कर दिए।
नाटककार भवभूति ने श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद की उस दु:खद घटना को अपने नाटक का विषय बनाया है जो उनके जीवन का महान धर्मसंकट पूर्ण एवं करुण से करुणतर और करुणतम प्रसंग है। राज्याभिषेक के पश्चात राम धर्म एवं नीति के अनुसार राज्य का संचालन करने लगे। इसी अवधि में सीता गर्भवती हुई और यह सुखद परिसंवाद राजकुल में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न कर गया। राम को भी प्रसन्नता हुई और उन्होंने सीता से उनकी हार्दिक अभिलाषा जानने की इच्छा व्यक्त की। सीता ने पवित्र तपोवन देखने तथा ऋषियों आदि के दर्शनों की इच्छा व्यक्त की
‘स्मितं कृत्वा तु वैदेही रामं वाक्यमथाब्रवीत।
तपोवनानि पुष्यानि दृष्टुमिच्छामि राघव॥’
यहां उल्लेखनीय है कि श्रीराम ने सीता की इच्छा के कारण एक दिन के लिए वन जाने की अनुमति तो दे दी किन्तु वियोग होने की संभावना से दु:खी भी हो गए। भवभूति ने अपने नाटक की कथावस्तु वाल्मीकि रामायण से अवश्य ली है किंतु नाटक को प्रभावग्राही बनाने के लिए अनेक मौलिक उद्भावनाएं भी उसमें समाहित कर दी हैं। श्रीराम और सीता अत्यंत प्रसन्न हैं और एक-दूसरे से अलग या दूर जाने की कल्पना से ही सिहर उठते हैं। इन्हीं दिनों वशिष्ट सपत्नीक तथा राम की माताओं के साथ ऋषि शृंगी के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए उनके आश्रम गए हैं। ज्ञातव्य है ऋषि शृंगी दशरथ के जामाता थे। दशरथ की पुत्री शान्ता जिन्हें राजा रोमपाद ने गोद ले लिया था, शृंगी ऋषि से ब्याही गई थी।
अस्तु, गुरु वशिष्ट व माताओं आदि ने महर्षि अष्टावक्र को अयोध्या इस आशय से भेजा कि श्रीराम राजकाज और गर्भवती सीता का विशेष ध्यान रखें। ऋषि मैत्रावरुणि (वशिष्ट) ने प्रजानुरंजन पर विशेष ध्यान देने का निर्देश दिया है। अत: श्रीराम प्रतिज्ञा करते हैं-
‘स्नेह दया च सौख्यं च यदि वा जानकी मपि।
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति में व्यथा॥’
उत्तररामचरितम्
अर्थात् प्रजा की प्रसन्नता के लिए स्नेह, दया और सुख ही नहीं सीता का त्याग करने में भी मुझे कोई संकोच न होगा। उपर्युक्त श्लोक नाटककार भवभूति की काव्य-प्रतिभा, नाटकीय निपुणता तथा श्रीराम के जीवन दर्शन, राज्यादर्शों एवं सदाशायित त्यागपूर्ण जीवन का सम्यक परिचय देता है। श्रीराम का संपूर्ण जीवन इन्हीं उच्चादर्शों के अनुपालन में व्यतीत होता है।
मानवेन्द्र मनु द्वारा बसाई गई अयोध्या बेहद कठोर स्वभाव वाली है। तभी तो वह शंबूक के वध और निष्पाप साध्वी सीता के परित्याग का आदेश राम को देती है, जिसे वे भारी मन से, महानकष्टï सहते हुए पूर्ण करते हैं। यहां तक राम अपनी आयु का भोग भी नहीं कर पाते हैं अन्त में उन्हें जलसमाधि लेनी पड़ती है। सच भी है अयोध्या अर्थात् वह नगरी जिससे कोई युद्ध करने में सक्षम न हो, उसे तो कठोर होना ही चाहिए। अस्तु, अयोध्या राम व सीता के प्रति सदैव कठोर व निर्दयी ही रही है। भवभूति ने अपने नाटक उत्तररामचरितम् में राम को विष्णु का अवतार या भगवान न कहकर रामभद्र के संबोधन को उचित माना है। अत: रामभद्र जब शंबूक वध के लिए दोबारा वन में पहुंचते हैं तब सीता के प्रति उनका प्रेम व राम की करुण दशा दर्शनीय है। वे सीता के साथ वन में व्यतीत किए क्षणों, घटनाओं का स्मरण करके बेसुध हो जाते हैं। राज्य के सर्वोच्च पद की मर्यादा के निर्वाह, ऋषियों के उपदेश व आकाशवाणी से प्रभावित हो शंबूक का वध करने के लिए प्रस्तुत होते हैं किन्तु उसके वध के लिए उनका दक्षिण हाथ तैयार नहीं है, तब वे अपने हाथ को संबोधित करते हुए कहते हैं-
‘रे हस्तदक्षिण: मृतस्य शिशेद्र्घिजस्य
जीवातवे विसृज शूद्र मुनौकृपाणम्।
रामस्य बाहुरसि निर्भर गर्भ खिन्न
सीता विवासनपटो: करुणा कुतस्ते॥’
अर्थात्ï राम अपने दक्षिण हस्त से कहते हैं तू वही हाथ है जिसने सीता जैसी सती, निरपराध, गर्भवती पत्नी को निष्कासित करने का आदेश दिया, उसे करुणा कैसे आ रही है।
सीता निष्कासन की पीड़ा राम के जीवन की स्थायी पीड़ा बन गई। सीता की सखी बासन्ती जब राम को उलाहना देती हुई कहती है- ‘आपने सीता के प्रति यह कहते हुए अलौकिक प्रेम का प्रदर्शन किया था कि तुम मेरा जीवन हो, तुम मेरा दूसरा हृदय हो, तुम मेरी नयनों की चंद्रिका (ज्योति) हो, तुम मेरे अंगों के लिए अमृत हों फिर आपने इतना कठोर कर्म क्यों किया? बासंती के उपर्युक्त आरोपों का राम के पास कोई उपयुक्त उत्तर तो न था, किंतु उन्होंने लोकेच्छा की बात कहकर उसे टालना चाहा। मगर उनका हृदय रो रहा था। उन्हें अपने उस कठोर कर्म पर पश्चाताप भी हो रहा था।
अस्तु, संपूर्ण उत्तररामचरितम् नाटक में श्रीराम अत्यन्त दु:खी व विवश दिखाई देते हैं। उनके चरित्र को देखकर ही नाटककार भवभूति ने ‘एकोरस करुण एव’ कहकर करुण रस की सर्वोपरि प्रतिष्ठा की है। वे अन्य श्रृंगारादि रसों को कारणभेद से भिन्न मानते हैं जैसे लहरें, जल के भंवर व बुलबुले सभी जल का ही परिणाम होते हैं किंतु अन्ततोगत्वा सब जल ही होता है। अस्तु, भवभूति करुण रस को ही रसों का राजा स्वीकार करते हैं। किसी कवि ने ‘कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते’ कहकर उनके करुण रस की बहुत प्रशंसा की है। राम पंचवटी वन में जाने पर जानकी के साथ बिताए क्षणों का स्मरण करते हुए रोते हैं और बेसुध हो जाते हैं-
हा हा देवि: स्फुटति हृदयं-ध्वंसते देह बन्ध:
शून्यं मन्ये जगदविरत ज्वालमन्तज्र्वलामि।
सीदन्नन्धे तमसि विधुरो मज्जही वान्तरात्मा
विष्वड्:मोह: स्गयति कथं मन्दभाग्य: करोमि॥
श्रीराम, सीता का स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘हे देवि सीता! मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है, मेरे अंगों का जोड़ ढीला पड़ रहा है, मैं संसार को शून्य समझ रहा हूं, भीतर ही भीतर अविश्रान्त ज्वाला में जल रहा हूं मेरी विरही दु:खी अन्तरात्मा अवसाद ग्रस्त होकर प्रगाढ़ अंधकार में डूब रही है और मूर्छा मुझे चारों और से आवृत कर रही है, ऐसी दशा में मैं क्या करूं।’श्रीराम जैसे धीर-वीर-गंभीर, धीरोदात्त नायक, मर्यादा पुरुषोत्तम द्वारा ऐसा प्रलाप उन्हें दयनीय-सा बना देता है। वे साक्षात् करुणा की प्रतिमा दिखाई पड़ते हैं। भवभूति को अपने उक्त नाटक में राम व सीता का ऐसा ही करुण रूप प्रस्तुत करना इष्ट था, जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। अस्तु, हम कह सकते हैं, जब तक राजा अपने सुखों का त्याग जनहित में नहीं करता तब तक उसे ‘राजा’या ‘सम्राट’ कहना उचित नहीं है। ‘रंजयति जनान इति राजा’ अर्थात्ï राजा वही है जो जनरंजन करे। भवभूति हमें यह संदेश ही देना चाहते थे, जिसमें भी वे सफल हुए हैं।