आयु में वृद्ध होने से मनुष्य बड़ा नहीं

आयु में वृद्ध होने से कोई भी मनुष्य बड़ा नहीं कहलाता। उसका अपना व्यवहार जो वह दूसरों के प्रति करता है, उसे छोटा या बड़ा बनाते हैं। बड़ा वही कहलाता है जो अपनी विद्वत्ता और अपने अनुभवजन्य ज्ञान का उपयोग देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए करे।


बड़प्पन उसी मनुष्य का माना जाता है जो अपने छोटों के प्रति सहृदय हो। उन्हें पूरा प्यार व सम्मान दे। उनकी समस्याओं को सुलझाने की सामर्थ्य रखता हो। उसके पास आने वाला हर व्यक्ति उसकी शीतल छाया का आनन्द ले सके। उसके ज्ञान और उसके सद््व्यवहार की छाप लेकर ही विदा हो। बार-बार उनसे सम्पर्क साधने के लिए उसका मन लालायित रहे।
आयु में बड़े होने के उपरान्त यदि मनुष्य में ओछापन हो तब भी कोई उसका आदर नहीं करता। लोग उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। यदि वह क्रोधी हो तो कोई उसके पास नहीं जाना चाहता। सभी उससे कन्नी काटकर निकलने का प्रयास करते हैं। यदि वृद्ध व्यक्ति मूर्ख हो तब भी उसका कोई सम्मान नहीं करता।


जिस बड़े व्यक्ति को अपने पद, ज्ञान, धन-दौलत आदि का घमण्ड हो, वह दूर की कौड़ी जैसा व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं बन पाता बल्कि सबके द्वारा नकार दिया जाता है। उस मनुष्य की स्थिति खजूर के पेड़ की तरह होती है, जिसके लिए निम्न दोहे में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा गया है-


बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।


यह दोहा हमें यही समझा रहा है कि खजूर के पेड़ के बड़े होने का लाभ न किसी इन्सान को होता है और न किसी पक्षी को होता है। खजूर के पेड़ की लम्बाई क्योंकि बहुत अधिक होती है, इसलिए वह धूप में तपे हुए किसी भी यात्रा को छाया नहीं दे सकता। उस पर लगने वाला फल इतनी ऊँचाई पर होता है जिसे कोई भी तोड़कर नहीं खा सकता और न ही अपनी भूख मिटा सकते हैं।


जो लोग ज्ञान या धर्मचर्चा में योग्य होते हैं, उनके विषय में मनीषी कहते हैं-
धर्मवृद्धेषु वयः न समीक्षते।


अर्थात् धर्म में वृद्ध लोगों की आयु नहीं देखी जाती।


इस सूक्ति के अनुसार यदि धर्म में वृद्ध लोगों की आयु नहीं देखी जाती तो फिर क्या देखा जाता है? उन लोगों की आयु न देखकर केवल ज्ञान ही परखा जाता है। इस विषय में हम कह सकते हैं कि साधु-सन्त या विद्वान चाहे छोटी आयु के हों या बड़ी आयु के सभी उनके चरण छूते हैं। यहाँ उनका ज्ञान ही महत्वपूर्ण होता है, उनकी आयु नहीं।


जो मनुष्य बड़े होने पर भी अपने छोटों को अपनी छाया में सुरक्षित नहीं रख सकता, उनका समुचित ध्यान भी नहीं रख सकता, उसे कोई पसन्द नहीं करता। हर इन्सान उससे दूरी बनाए रखने का प्रयत्न करता है, उससे कोई व्यक्ति रिश्ता नहीं रखना चाहता। उस समय वह बरगद के विशाल वृक्ष की तरह इस संसार में निपट अकेला ही रह जाता है।


बरगद के पेड़ की तरह मनुष्य को महान नहीं बनना चाहिए। वह बहुत विशाल होता है। उसकी छाया में कोई और पौधा नहीं पनप सकता। ऐसे उस बरगद की बहुत अधिक आयु होने का किसी को कोई लाभ नहीं होता। इसका कारण है कि अपनी छाया में अन्य पौधों के न होने से वह बड़ा होने पर भी निपट अकेला ही रह जाता है।


यदि कोई वयोवृद्ध दुर्वासा ऋषि की तरह क्रोधी हो तो भी वह पूज्य नहीं होता। क्रोधी व्यक्ति यदि गुणवान हो तब भी वह लोकमान्य नहीं बन पाता। जब तक उसके स्वभाव में मधुरता नहीं होगी तब तक कोई उसे नहीं पूछता। इसीलिए कहते हैं कि अपनी इज्जत अपने हाथ होती है।


इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य का सम्मान उसकी योग्यता, उसके ज्ञान, उसके जीवनभर के अर्जित अनुभवों के आधार पर होता है, उसके वयोवृद्ध होने से नहीं होता।