शक्तिपीठों का भक्तगणां की दृष्टि से अलग ही महत्त्व है। मन की श्रद्धा और साधना के बल पर भक्त यह चाहता है कि शक्तिपीठों से संबंधित देवी को प्रसन्न अवश्य ही किया जावे अथवा कृपा का पात्रा बनने में सफलता प्राप्त की जावे।
शक्तिपीठों की संख्या 51 मानी गई है। कारण यह कि अपने सुदर्शन चक्र से भगवान विष्णु ने सती के मृत शरीर के विभिन्न अंग काटकर भगवान शिव को मोहपाश के बंधन से मुक्त कराया था। जहां-जहां सती के अंग गिरे, उन सभी स्थानों की गणना शक्तिपीठों के रूप में की जाती है। हिमाचल प्रदेश में स्थित नैना देवी भी एक महत्त्वपूर्ण शक्तिपीठ है।
पहाड़ों पर भी पहाड़, कुछ सुनने में अजीब सा लगता है मगर नैना देवी का मंदिर पहाड़ों के ऊपर के पहाड़ पर स्थित है यानी पहाड़ पर जाने के बाद फिर पहाड़ पर पहुंचना पड़ता है। नैनादेवी की जब यात्रा की जाती है तब बेसकैम्प तक पहुंचने में यात्रियों को मुश्किल चढ़ाई का सामना करना पड़ता है। जब वह धर्मशाला इत्यादि के ठिकाने तक पहुंच जाता है, तब वह यही सोचता है कि शायद मंजिल आ गई है मगर बाद में उसे जब यह पता चलता है कि चढ़ाई के ऊपर और खड़ी चढ़ाई का सामना करना है। आगे का सफर पैदल भी है जो खड़ी चढ़ाई के रूप में है।
दूसरा माध्यम है जीप इत्यादि जिनके द्वारा मंदिर के अहाते से पूर्व तक पहुंचा जा सकता है। जब जीप में यात्रागण बैठते हैं, जीप सरपट दौड़ती है। तब आस-पास के नजारों को देखकर यात्रा घबरा-सा जाता है। कारण यह है कि एक तो कम चौड़ा मार्ग तथा दूसरे मार्गों के नीचे स्थित दोनों ओर की भयावह खाइयां। इन सब स्थिति को देखकर फीचर लेखक ने भी यात्रा के दौरान आंखें मूंद ली थीं। बाद में जीप का सफर तय करने के पश्चात बहुत सारी पैड़ियों को लांघने के बाद मां नैनादेवी का मंदिर आता है जहां पहुंचने के बाद यात्रा सुकून-सा महसूस करता है।
इस स्थान पर देवी सती के दोनों नैन गिरे थे, ऐसी जन मान्यता है। यह स्थान हिमाचल प्रदेश के पास होने के बावजूद भी पंजाब की सीमा के पास स्थित है। मंदिर में भगवती नैनादेवी के दर्शन पिण्डी के रूप में होते हैं। चैत्रा तथा शारदीय नवरात्रों के अलावा श्रावण मास की अष्टमी को यहां मेला लगता है। पंजाब में भाखड़ा नांगल लाइन पर आनन्दपुर साहिब प्रसिद्ध स्टेशन है। यहां से उत्तर दिशा की ओर शिवालिक पर्वत स्थित है जिसके शिखर पर नैनादेवी विराजमान हैं। नैनादेवी के लिए नांगाल से बस सेवा उपलब्ध है जहां से लगभग तीन-चार घंटे का सफर है।
नैनादेवी की कथा
नैना नाम का एक गूजर था जो देवी का परमभक्त था। वह भैंस चराने के लिए पहाड़ की ओर जाया करता था। पहाड़ी स्थान पर एक पीपल का पेड़ था जहां पर उसकी अनब्याही गाय के थनों से दूध झरता था। यह प्रतिदिन का क्रम था। एक दिन नैना ने उस पीपल के पेड़ के नीचे जाकर उस स्थान का अवलोकन किया जहां गाय दूध गिराती थी। उस स्थान पर हल्की-फुल्की खुदाई के पश्चात नैना को मां भगवती की प्रतिमा दिखाई दी जो पिण्डी रूप में थी।जिस दिन नैना गूजर को पिण्डी से साक्षात हुआ था, उसी रात मां भगवती ने नैना को स्वप्न में दर्शन दिये और कहा कि पीपल के पेड़ के नीचे ही मेरा स्थान बनवा दे। मैं तेरे नाम से जानी जाऊंगी। अगले ही दिन नैना ने मंदिर की नींव रख दी। थोड़े ही समय अंतराल में इस स्थान की विशेष प्रसिद्धी हो गई। भक्तगण दूर-दूर से आने लगे। इस प्रकार से सभी भक्तगणों ने मिलजुलकर मंदिर को भव्य रूप प्रदान कर दिया।
इस स्थान का महत्त्व इस कारण से भी बढ़ जाता है कि सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह भी यहां प्रायः आया-जाया करते थे। माता के दरबार से प्रभावित होकर दुर्गा सप्तशती का अध्ययन करने के उपरांत उसका दो बार चण्डी चरित्रा के नाम से काव्यानुवाद उन्हांने किया। इसके साथ ही पंजाबी में भी 55 छंदों में ’चण्डी दी वार’ नामक रचना में देवी महात्मय का वर्णन किया है। श्री गोविंद सिंह यहां यज्ञ इत्यादि किया करते थे। इसी कारण से यह हिन्दुओं और सिक्खों का वर्तमान में सांझा तीर्थ बन गया है।
नैना देवी का तीर्थ जिला विलासपुर में स्थित है। इतिहास के अनुसार 8 वीं शताब्दी में बिलासपुर के चंद्रवंशी राजा वीरचंद ने यहां मंदिर बनवाया था। वीरचंद व गंभीरचंद दोनों ही चंद्रवंशी राजा थे। एक बार वे ज्वालामुखी आये थे। लौटते वक्त उन्हें बिलासपुर का प्राकृतिक स्वरूप इतना भाया कि उन्होंने वहां बस जाने का निर्णय किया। अपने बाहुबल से वीरचंद ने स्थानीय शासक को पराजित कर सत्ता हथिया ली। अपने भाई गंभीरचंद को राज्य विस्तार का हुकुम दिया। गंभीरचंद ने भी राज्य का विस्तार करते हुए मानतलाई तक अधिकार कर लिया। उक्त दोनों राजा देवी के परम भक्त थे। समयकाल के अनुसार वे मंदिर स्थान की उन्नति में संलग्न रहे।
कुछ वर्षों से स्वामी कृष्णानंद के द्वारा तीर्थ को विकसित करने के लगातार प्रयत्न प्रशंसा योग्य हैं।