अन्नामलाई ने भाजपा के लिए उगा दी दक्षिण में सियासी फसल?

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दक्षिण राज्यों के चुनावी समर में एक ही नाम चारों ओर गूंज रहा है, वो है अन्नामलाई। वहां की राजनीति में ये एक नया सितारा उभरा है। पूर्व आईपीएस अधिकारी अन्नामलाई ने अपने बूते भाजपा के लिए दक्षिणी राज्यों में सियासत की उपजाऊ जमीन तैयार कर दी है। उधर का सियासी भूगोल देखें तो तमिलनाडु उन अनूठे राज्यों में से एक है जहां, करीब 87 फीसदी से अधिक आबादी हिंदू है। ये उन राज्यों में एक है जहां राष्ट्रीय दलों यानी भाजपा और कांग्रेस की उपस्थिति कोई खास नहीं रही है। हां, बीजेपी कोयंबटूर और कन्याकुमारी में जरूर वोट जुटाती रही है। सन्-1998 के कोयंबटूर बम विस्फोट के अलावा तमिलनाडु में धार्मिक दंगे कम हुए हैं।

 

तमिलनाडु में भाजपा मजबूत नहीं हुईं, इसका सबसे बड़ा राज्य में नेतृत्व का अभाव रहा, कई बीजेपी नेता विवादास्पद बयान के लिए जाने जाते रहे पर, पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने इस धारणा को बदल दिया है और फिर पूर्व आईपीएस अधिकारी के अन्नामलाई को तमिलनाडु का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद द्रविड़ पार्टी के प्रभुत्व वाले दक्षिणी राज्य में बीजेपी की संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं। अन्नामलाई राज्य में पार्टी के लिए जमीन तैयार करने में काफी हद तक सफल भी हुए हैं। मोदी और अमित शाह लगातार अन्नामलाई के नेतृत्व को अपना समर्थन दे रहे हैं। भाजपा ने इसी आधार पर तमिलनाडु में अकेले 23 सीटों पर चुनाव लड़ने का साहस दिखाया है। बीजेपी अपनी योग्यता और जनता में अपील के आधार पर मतदाताओं के विश्वास के लिए जा रही है।


भाजपा को इस समय तमिलनाडु में मछुआरों, महिलाओं या समाज के अन्य वर्गों से वोट मिलने की संभावना है। बीजेपी मतदाताओं के सामने भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के मुद्दों को लेकर जा रही है। इस समय अन्नामलाई के साथ तमिलनाडु के युवा भी साथ आ रहे हैं और द्रमुक सरकार को उखाड़ फेकने के नारे का खूब समर्थन भी कर रहे हैं। अन्नामलाई ने एन मन, एन मक्कल की जो पदयात्रा पूरे तमिलनाडु की, वह भाजपा का समर्थन बढ़ाने में सहायक रही। सात महीने की लंबी यात्रा का समापन स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। अब तमिलनाडु के लोग द्रमुक और अन्नाद्रमुक का विकल्प तलाशने लगे हैं। कोयंबटूर से खुद अन्नामलाई चुनावी मैदान में हैं। अमित शाह का दावा है कि 4 जून को आप तमिलनाडु में सांसदों की बढ़ी हुई संख्या और बढ़ा हुआ वोट शेयर भी देखेंगे।


बहरहाल, कर्नाटक भारत के दक्षिण में स्थित ऐसा राज्य है जहां बीजेपी की बड़ी मौजूदगी है। भाजपा ने पहली बार 2008 में कर्नाटक में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी  जिसका मुख्य कारण एच.डी. कुमारस्वामी.की विफलता थी। 2008 में बीजेपी ने 110 सीटें जीतीं। बीजेपी वास्तव में तटीय कर्नाटक क्षेत्र और मुंबई कर्नाटक क्षेत्र में मजबूत है। कर्नाटक में बीजेपी के मजबूत होने का एक और कारण जाति है। कर्नाटक में लिंगायत और ब्राह्मण हमेशा बीजेपी का समर्थन करते हैं जबकि वोक्कालिगा, दलित और अल्पसंख्यक या तो कांग्रेस या जनता दल सेक्युलर को वोट देते हैं। कर्नाटक वास्तव में भाजपा के लिए एक गढ़ है। यह भारत के दक्षिण में एक ऐसा राज्य है जहां बीजेपी अपनी राजनीतिक पैठ बनाने में अकेले सक्षम है।


वहीं, केरल भारत के दक्षिण में एकमात्र राज्य है जहां करीब 54 फीसदी आबादी हिंदू है पर केरल में हिंदू, ईसाई और इस्लाम की समान उपस्थिति है। यह दक्षिण भारत का एकमात्र राज्य है जहां किसी भी एक दल को अकेले राज्य विधानसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिलता। केरल का चुनाव गठबंधन से ही जीता जाता है। कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट है तो कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व वाला लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट। भाजपा केरल में अपनी जगह बनाने में लगी है। बीजेपी के खिलाफ केरल में यह प्रचार किया गया है कि यह हिंदी पार्टी है। स्थानीय स्तर पर भाजपा कैडर धार्मिक उन्मादियों से लड़ रहे हैं। केरल में ईसाई समुदाय तेजी से बीजेपी की ओर आ रहे हैं। केरल का ईसाई समुदाय कैथोलिक और गैर कैथोलिक के बीच विभाजित है। कैथोलिक वेटिकन के साथ पूरी तरह नहीं जुड़े हैं। केरल में मोटे तौर पर 8 प्रमुख ईसाई समुदाय हैं ।

 

सबसे दिलचस्प बात यह है कि प्रत्येक ईसाई समुदाय के बीच दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्विता है। ऑर्थोडॉक्स और जैकोबाइट के बीच लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच चुकी है। वहाँ कोई भी एक पार्टी पूरे ईसाइयों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती और अधिकांश ईसाई ऐतिहासिक रूप से कम्युनिस्ट विरोधी हैं। कैथोलिकों के भीतर कुछ समुदायों ने धीरे-धीरे भाजपा को एक संभावित विकल्प के रूप में तलाशना शुरू कर दिया है। ज़ीरो मलंकरा कैथोलिक, जो मध्य केरल ग केरल और वायनाड के आसपास हैं, मार्थोमा चर्च के कुछ लोग जो अमेरिका और यूरोप में रहने के कारण भारत से बाहर हैं, ये सब अब बीजेपी के साथ दिखने लगे हैं। धीरे धीरे ये समुदाय भाजपा के प्रति सकारात्मक हो रहे हैं और कांग्रेस की विचारधाराओं से दूर होते जा रहे हैं। इन ईसाई समुदाय के बीच बड़े पैमाने पर हृदय परिवर्तन हुआ है। हालांकि चर्च हमेशा राजनीति में भागीदारी से इनकार करता रहा है।


इस्लाम में धर्म परिवर्तन आम संस्कृति नहीं थी और ज्यादातर असाधारण मामलों तक ही सीमित थी लेकिन 1990 के दशक के बाद से, मुस्लिम इंजीलवाद का उदय हुआ। सऊदी द्वारा ऐसे उद्देश्यों के लिए पेट्रो डॉलर की भारी फंडिंग की गई। इसने बहुत सारे ईसाई मिशनरी आंदोलनों को परेशान कर दिया। इस्लामोफोबिया आम ईसाइयों के दिमाग में घुस गया। इस बीच लव जिहाद के कई मामले आए और इस विचार ने ईसाई समुदायों के मन में डर बिठा दिया। ईसाई संवेदनाओं की बात करें तो वे अभी भी अंतर-जातीय विवाह की अनुमति नहीं देते। ईसाई पादरी लव जिहाद के खिलाफ अपने समुदाय के लोगों को आगाह कर रहे हैं और वे केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के करीब आ रहे हैं। बिशप और विकर्स जैसे सैकड़ों वरिष्ठ पादरी भाजपा के साथ जुड़ते जा रहे हैं। ईसाई समुदाय परंपरागत रूप से राजनीतिक शक्ति समीकरणों में एक प्रमुख खिलाड़ी रहे हैं। वे लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते, इसलिए उनसे तालमेल बिठा रहे हैं जिनके पास शक्ति है। पादरी वर्ग के कई सदस्य सीपीएम से मिले अपमानों को दृढ़ता से याद करते हैं और अपना भविष्य भाजपा के साथ देखते हैं। इस मामले में गृह मंत्री अमित शाह की सक्रियता देखने लायक है, वह लगातार इन पादरियों के साथ बने हुए हैं। उनकी विशेष भूमिका केरल में बीजेपी के लिए वरदान साबित हो सकती है।