नसीरूद्दीन शाह (अल्‍बर्ट पिंटो) को गुस्‍सा क्‍यूं आता है ?

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तीन नेशनल अवार्ड, तीन फिल्मफेयर अवार्ड, पद्मभूषण और पद्मश्री से सम्मानित किए जा चुके 68 वर्षीय बॉलीवुड के दिग्गज एक्टर नसीरूद्दीन शाह फिल्मों में अभी भी उतने ही सक्रिय हैं जितने पहले हुआ करते थे।

‘कुत्‍ते’ (2023) ‘गहराइयां’ (2022) मी रक्‍सम’ (2020) के पहले वो सीमा पाहवा निर्देशित ’रामप्रसाद की तेरहवी’ (2019) और विवेक अग्निहोत्री व्दारा निर्देशित ’द ताशकंद फाइल्स’ (2019) में नजर आए थे लेकिन उनकी यह फिल्म कब आई, कब चली गई, किसी को पता नहीं चल सका ।

1971 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से आर्ट में ग्रेजुएशन करने के बाद दिल्‍ली के एनएसडी से होते हुए 1977 में वो, मुंबई आकर टॉम अल्टर और बेंजामिन गिलानी के ग्रुप के साथ जुड़ गए थे। उस दरमियान उन्होंने शशि कपूर के पृथ्वी थियेटर में अनेक नाटकों में भी अदाकारी की।

श्याम बेनेगल की ’निशांत’ (1975) से सिनेमाई कैरियर की शुरूआत करने के बाद, नसीरूद्दीन शाह ने लगभग 05 बरस तक ‘मंथन’ (1976) ‘भूमिका’ (1977) ‘जुनून’ (1978) ‘स्‍पर्श’ (1979) ‘आक्रोश’ (1980) ‘अल्‍बर्ट पिंटो को गुस्‍सा क्‍यूं आता है’ (1980) और भवानी भवई’ (1980) जैसी  पेरलल सिनेमा वाली फिल्में ही कीं।

बापू निर्देशित ’हम पांच’ (1980) के साथ उन्होंने बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम सिनेमा की ओर  अपना रूख किया। इसके बाद पेरलल सिनेमा और मेनस्ट्रीम दोनों तरह के सिनेमा में उनके झंडे गाड़ने का सिलसिला शुरू हो गया । वह हिंदी फिल्म जगत के पहले ऐसे कलाकार थे, जिन्हैं दोनों तरह के सिनेमा में, एक जैसी सफलता हासिल हुई।

सुभाष घई व्दारा निर्मित-निर्देशित मल्टी स्टारर फिल्‍म ’कर्मा’ (1986) में दिलीप कुमार के साथ जोरदार अभिनय के लिए नसीरूद्दीन शाह को खूब तालियां मिली थीं।

नेगेटिव किरदार वाली ’मोहरा’ (1994) ने बॉलीवुड में  उन्हें एक खास पहचान दी। उसके बाद ’सरफरोश’ (1999) में गुलफाम हसन वाले उसी तरह के नेगेटिव रोल में भी उन्‍हैं काफी पसंद किया गया।

हिंदी फिल्मों के अलावा नसीरूद्दीन शाह ने कन्‍नड़, गुजराती, बंगाली और मलयालम फिल्‍मों के लिए भी काम किया। उन्होंने कुछ हॉलीवुड और पाकिस्तानी फिल्में भी कीं। पाकिस्‍तानी फिल्‍म ’खुदा के लिए’ में  उनके काम की खूब सराहना हुई।

साउथ की फिल्मों में काम करने के दौरान उनकी दोस्ती कमल हासन के साथ हुई। उसके बाद उन्होंने कमल हासन की ’हेराम’ (2000) में काम किया।

1988 में नसीरूद्दीन शाह ने, दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर प्रसारित, गुलजार व्‍दारा निर्देशित धारावाहिक ‘मिर्जा गालिब’ से छोटे पर्दे पर डेब्‍यू किया। उसी साल वो ‘भारत एक खोज’ (1988) में नजर आए।

1998 में ’महात्मा वर्सेस गांधी’ में नसीरूद्दीन शाह व्दारा महात्मा गांधी का किरदार निभाया। 1999 में जी टीवी के धारावाहिक ’तरकश’ में उनके काम की काफी प्रशंसा हुई । ’इकबाल’ में उन्होंने 24 घंटे नशे में डूबे रहने वाले शराबी का यादगार किरदार निभाया था।

पिछले साल वो ‘ताज: डिवाइडेट बाई ब्‍लड’ (2023) सास बहू और फ्लैमिंग’ (2023) और हाल ही में  ‘शो टाइम’ (2024) जैसी वेब सीरीज में नजर आए।

हिंदी सिने जगत में अब तक न जाने कितने ही शानदार अभिनेता हुए, जिन्‍होंने अपनी अपनी अलहेदा अभिनय शेलियों से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई लेकिन उन सभी में नसीरूद्दीन शाह एक ऐसे एक्‍टर हैं जिन्‍होंने शायद पहली दफा, अभिनय की तमाम बारीकियों से दर्शकों को अवगत कराया।

नसीरूद्दीन शाह को पता नहीं किस तरह मुगालता हो गया कि वह एक एक्‍टर के साथ ही साथ बहुत अच्‍छे डायरेक्‍टर भी हैं और इसी मुगालते में उन्‍होंने कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल, इरफान खान, आयशा टॉकिया और रवि वास्वानी जैसे कलाकारों के साथ फिल्‍म ’यूं होता तो क्या होता’ (2006) के साथ बतौर निर्देशक अपनी शुरूआत की।

लेकिन खासकर डायरेक्‍शन में तमाम तरह की खामियों को इंगित करने वाली यह फिल्‍म बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई । उसके बाद नसीर फिर कभी डायरेक्‍शन में आने की हिम्‍मत नहीं जुटा सके।

पहली पत्नी मनासा सीकरी की मौत के बाद नसीरूद्दीन शाह ने ’जाने तू या जाने ना’, ’मिर्च मसाला’ और ’द परफेक्ट मर्डर’ जैसी फिल्‍मों की को-स्‍टार रत्ना पाठक से 1982 में दूसरी शादी की।

नसीरुद्दीन शाह अक्सर अपने एक्टिंग करियर से ज्‍यादा अपनी बेबाक बयानबाजी के लिए सुर्खियों में रहते हैं। उनकी बयानबाजी में लोगों को  उनका छुपा हुआ गुस्‍सा, साफ तौर पर नजर आता है। और इस तरह वह अपनी ही फिल्‍म ‘अल्‍बर्ट पिंटो को गुस्‍सा क्‍यूं आता है’ (1980) के किरदार की तरह नजर आने लगते हैं हालांकि अब तक यह पता नहीं चल सका है कि आखिर नसीर का यह गुस्‍सा किस पर और क्‍यों है ?