प्रकृति के जितने करीब जाओ, उतना ही वह नए रुप में हमारे सामने आती है। बात उतराखण्ड की हो तो इस देवभूमि मे अनेक ऐसे रहस्यमय स्थान है, जिनके दर्शन आपको चकित एवं मंत्रमुग्ध कर देंगे। ऐसा ही एक स्थान कुमाऊं मण्डल के पिथौरागढ़ जनपद में गंगोलीहाट कस्बे के समीप भुवनेश्वर गाँव में है। यह है पाताल भुवनेश्वर गुफा। प्रकृति का एक अनबूझ रहस्य जिसके लोक में पहुँच कर युगों युगों का इतिहास एक साथ प्रकट हो जाता है।
गुफा के भीतर ऊबड़-खाबड़, टेढे मेढ़े पत्थरों पर पैर टिका कर 84 सीढिय़ों से होकर गुजरते हुए आप पाताल लोक मे पहुँच जाते हैं। अंदर की अद्भुत दुनिया रोमांचित कर देती है। छोटी बड़ी विभिन्न देवी देवताओं व पशु पक्षियों के आकार की शिलाएँ। एक ऐसा रचना संसार जिसकी बाहर रहते आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। धरती के भीतर बड़ी गुफा जो कई भागों में बंट जाती है। बीच में मैदानी हिस्से भी फैले हुए हैं।
पहले लोग मशाल जला कर गुफा में जाते थे। लंबे समय तक मशाल के धुएं से गुफा के भीतर कालिख की परत जम गई। 1989 में सेना के सहयोग से जेनरेटर की व्यवस्था कर गुफा के अंतिम छोर तक रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था कर दी गई है। गुफा के रास्ते के दोनों ओर जंजीर लगाई गई है, जिसे पकड़ कर यात्री प्रवेश करते और बाहर आते हैं। गुफा में जाने के लिए फीस भी रखी गई है।
स्कंद पुराण में भी उल्लेख
स्कंद पुराण के 103 वें अध्याय में पाताल भुवनेश्वर गुफा का वर्णन है, जिसमें व्यास जी ने कहा है कि मैं एक ऐसी जगह का वर्णन करता हूँ , जिसके पूजन करने के संबंध में तो कहना ही क्या, जिसका स्मरण और स्पर्श मात्र करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह सरयू रामगंगा के मध्य पाताल भुवनेश्वर है।
वर्ष 2007 से यह गुफा भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है। हालांकि गुफा में प्रवेश व जनरेटर की व्यवस्था का कार्य मंदिर कमेटी द्वारा किया जाता है।मुख्य व्यवस्थापक दान सिंह भंडारी ने विशेष रुचि व प्रयासों से गुफा स्थल को विकसित किया है।
भुवनेश्वर गाँव निवासी स्वर्गीय मेजर समीर कोतवाल की स्मृति में गाँव से गुफा की ओर जाने वाले मार्ग में बने प्रवेश द्वार को ‘ समीर द्वार ‘ नाम दिया गया है। मेजर समीर 28 अगस्त 1999 को आसाम में उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए थे। द्वार के बगल में मेजर की प्रस्तर प्रतिमा भी स्थापित है।
कहते हैं कि इस अद्भुत गुफा के दर्शन त्रेता युग में अयोध्या के राजा ऋतुपूर्ण ने पहली बार किये थे। राजा चौपड़ खेलने के बहुत शौकीन थे। उनके मित्र राजा नल भी इस खेल के महारथी थे। पर एक बार वे इस खेल में अपनी पत्नी दमयंती को हार गए। राजा नल इस हार से बहुत शर्मिंदा हुए और वे राजा ऋतुपूर्ण को साथ लेकर हिमालय की यात्रा पर निकल पड़े।
एक दिन घने जंगल में उन्हे असाधारण हिरण दिखा। राजा नल ने कहा इस हिरण को जिंदा पकडऩा है। दोनों उसे पकडऩे के लिए उसके पीछे लग गए। हिरण का पीछा करते हुए वे भुवनेश्वर गाँव जा पहुंचे। शाम हो गई और हिरण भी कहीं दिखलाई नहीं दिया। राजा रास्ता भटक गए। रात में उन्हे स्वप्न हुआ और आवाज़ सुनाई दी- तुम क्षेत्रपाल देवता की तपस्या करो, वही तुम्हें रास्ता बताएंगे। राजा तपस्या करने लगे। कुछ दिनों बाद क्षेत्रपाल ने दर्शन दिए और कहा कि इस स्थान पर एक बड़ी सुरंग है, जहाँ कई गुफाएं है और जहां कण कण में भगवान शिव निवास करते हैं। क्षेत्रपाल ने राजा को इस दिव्य लोक में पहुँचा दिया।
यह भी माना जाता है कि अपने अज्ञात वास में पाण्डव भी यहाँ आए थे। उन्होंने कुछ समय इस गुफा में वास किया था। गुफा के भीतर चौपड़ की आकृति भी बनी हुई है। 822 ई मे अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान आदि गुरु शंकराचार्य भी यहाँ आए। उन्होंने गुफा के अंदर एक जगह पर तांबे का शिवलिंग स्थापित किया। गुफा में जाने वाले श्रृद्धालु इस शिवलिंग की पूजा अर्चना करते हैं।
भुवनेश्वर गाँव से कुछ ही दूर देवदार के घने वन के मध्य स्थित है- पाताल भुवनेश्वर गुफा। गुफा का प्रवेश द्वार लगभग चार फिट लंबा और डेढ फिट चौडा है।अत्यंत संकरी , फिसलनदार गुफा में टेढे मेढ़े पत्थरों की सीढ़ी पर सावधानी से साकंल पकड़कर तीस फिट नीचे उतरना पडता है। एक बार मे एक ही व्यक्ति उतर पाता है। उतरते ही नीचे एक बड़े मैदान मे आप खुद को पाते हैं जहां से तीन ओर को लंबी लंबी सुरंगें चली जाती हैं। धरती के भीतर एक अनोखी दुनिया जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
यहाँ चट्टानों मे प्राकृतिक कलाकृतियां है, जिन्हे पौराणिक कथाओं व मिथकों से जोड़ा गया है। गाइड बताता है कि आप शेषनाग के शरीर की हड्डियों पर चल रहे हैं और आपके सिर के ऊपर शेषनाग का फन है। सुनते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। गहराई से देखेंगे तो आप वास्तव में महसूस करेंगे कि कुदरत द्वारा तराशे पत्थरों में नाग फन फैलाए है। फन के दाएं तरफ ऐरावत हाथी विराजमान हैं। जमीन में बिलकुल झुक कर भूमि से चंद इंचों की दूरी पर चट्टानों में हाथी के तराशे हुए पैरों को देखकर आप को मानना ही पडेगा कि आप जो सुन रहे हैं वो सच है।
कुछ आगे बढ़े तो आप उस जगह पहुँच जाते हैं, जिसके विषय में कहा जाता है कि शिवजी ने गणेश जी का कटा हुआ मस्तक यहीं पर रखा था। गणेशजी के कटे मस्तक के शिलारुपी प्रतीक के ठीक ऊपर 108 पंखुडियों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल सुशोभित है।इस ब्रह्मकमल से पानी की बूंदे गणेश जी के मस्तक पर टपकती है। मुख्य बूंद आदिगणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है।
जनमेजय के नाग यज्ञ का हवन कुण्ड भी गुफा के भीतर है। कहा जाता है कि अपने पिता राजा परीक्षित को श्राप मुक्त करने के लिए जनमेजय ने सारे नाग मार कर हवन कुण्ड में जला दिए थे लेकिन तक्षक नामक नाग बच निकला था , जिसने बाद में बदला लेते हुए परीक्षित को डस कर मौत के घाट उतार दिया था। नाग यज्ञ कुण्ड के ऊपर शिला पर इस नाग का चित्र उभरा हुआ देख सकते हैं।
एक जगह गुफा की छत पर गाय के थन की आकृति नजर आती है। यह कामधेनु गाय का स्तन है। आगे बढे तो एक मुड़ी गर्दन वाला गरुड़ एक कुण्ड के ऊपर बैठा दिखाई देता है। लोकश्रुति है कि शिवजी ने इस कुण्ड को अपने नागों के पानी पीने के लिए बनाया था। इसकी देखरेख गरुड़ के हाथ में थी लेकिन जब गरुड़ ने ही इस कुण्ड से पानी पीने की कोशिश की तो शिवजी ने गुस्से में उसकी गरदन मोड़ दीऔर उसे श्राप देकर जड़वत बना दिया।
गुफा में एक स्थान पर शिवजी का मनोकामना कुण्ड भी है। मान्यता है कि इसके बीच बने छेद से धातु की कोई चीज पार करने पर मनोकामना पूर्ण होती है। उसके साथ कमली बिछी है और उसके नीचे बाघंबर बिछा है। वहीं पर पाताल भैरवी भी है, जो मुण्डमाला पहने खड़ी है। मान्यता चाहे कुछ भी हो पर एकबारगी गुफा में बनी आकृतियों को देख लेने के बाद उनसे जुड़ी कथाओं पर भरोसा किए बिना नहीं रहा जाता।
आश्चर्य यह है कि जमीन के इतने अंदर होने के बावजूद यहां घुटन महसूस नहीं होती अपितु शान्ति का अनुभव होता है। दूर दूर से सैलानी इस अद्भुत गुफा को देखने आते हैं। कुछ श्रृद्धा से , कुछ रोमांच के अनुभव के लिए तो कुछ शांति की तलाश में।