भारतीय जनता पार्टी ‘अबकी बार, 400 पार’ का नारा देकर लोकसभा चुनाव में जाने को तैयार है। उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी), बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) जैसे पुराने सहयोगी फिर से एनडीए में वापसी कर चुके हैं तो वहीं तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी), बीजू जनता दल (बीजेडी) जैसी पार्टियां भी गठबंधन में वापसी की कगार पर हैं। भाजपा 400 सीटों के टारगेट तक पहुंचने के लिए राज्य दर राज्य अपना और गठबंधन का कुनबा बढ़ाती जा रही है।’
सीटें कम हैं, साथी ज्यादा हैं और इस वजह से बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक एनडीए के लिए सीट बंटवारा सिरदर्द बन गया है। लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में भाजपा के साथ जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी, ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, संजय निषाद की निषाद पार्टी, अनुप्रिया पटेल की अपना दल सोनेलाल गठबंधन में हैं। 80 सीटों वाले उत्तरप्रदेश में चार सहयोगियों को भाजपा ने छह सीटों पर एडजस्ट कर दिया। पार्टी इसी तरह का फॉर्मूला अन्य राज्यों में भी लागू करना चाहती है लेकिन समस्या यह है कि हर राज्य की परिस्थितियां अलग हैं और इस वजह से बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पेच फंस रहा है।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं और भाजपा समेत एनडीए में छह पार्टियां शामिल हैं। एनडीए में भाजपा के साथ चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास (एलजेपीआर), पशुपति पारस के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकजनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी), उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम), जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू शामिल हैं। अब समस्या यह है कि 2019 के चुनाव में भाजपा के साथ जेडीयू और एलजेपी ही थे। अब पेच यह है कि एलजेपी दो दलों में बंट गई और दोनों दल एनडीए में हैं ही, उपेंद्र कुशवाहा और मांझी की पार्टियां भी एनडीए में आ चुकी हैं।
पशुपति और चिराग, दोनों ही चाचा-भतीजा 2019 के फॉर्मूले पर छह-छह सीटें मांग रहे हैं। पशुपति हाजीपुर सीट छोड़ने को तैयार नहीं हैं तो वहीं चिराग भी इस सीट से अपनी मां रीना पासवान को चुनाव लड़ाना चाहते हैं। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी काराकट और सीतामढ़ी सीट के लिए दावा कर रही है तो वहीं मांझी की पार्टी अपने लिए गया सीट चाहती है। ये तीनों ही सीटें 2019 के चुनाव में जेडीयू जीती थी। जेडीयू को सीटिंग सीटें छोड़ने के लिए कैसे तैयार किया जाए? सहयोगियों को एडजस्ट करने के बाद भाजपा -जेडीयू के लिए बचेगा क्या?
महाराष्ट्र में भाजपा के साथ एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना और अजित पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का गठबंधन है। शिंदे अपनी पार्टी के लिए 2019 के फॉर्मूले को आधार बनाकर 23 सीटें मांग रहे हैं तो वहीं अजित भी 10 सीटों पर दावेदारी कर रहे हैं। अमित शाह ने हाल ही में मुख्यमंत्री शिंदे और अजित पवार के साथ ही महाराष्ट्र भाजपा के नेताओं के साथ भी बैठक की थी जिसके बाद यह फॉर्मूला सामने आया था कि भाजपा 32, शिंदे की पार्टी 10 और अजित पवार की पार्टी को तीन सीटें मिल सकती हैं। बाकी बची तीन तीन सीटों पर भी शिंदे और अजित पवार की पार्टी के नेताओं को चुनाव लड़ाया जा सकता है।
अब पेच यह है कि पिछले चुनाव में शिवसेना के 18 उम्मीदवार सांसद निर्वाचित हुए थे। इनमें से 13 सांसद शिंदे के साथ आ गए। पांच सांसद उद्धव ठाकरे की पार्टी के साथ ही रह गए। अब पेच यही है कि अगर शिंदे को 10 सीटें ही मिलती हैं तो तीन अन्य सीटिंग सांसदों का क्या होगा? अजित के साथ भी यही समस्या है। अगर वह कम सीटों पर मान जाते हैं तो उनके साथ आए नेता कहीं शरद पवार के पाले में न चले जाएं, एनसीपी को यह आशंका है। इसके ठीक उलट, भाजपा को लगता है कि दोनों ही दल फुल स्ट्रेंथ के साथ नहीं आए हैं। ऐसे में इनको 15 से 18 सीटों पर एडजस्ट कर दिया जाए, जितनी सीटें पिछली बार शिवसेना जीती थी।
आंध्र प्रदेश में भाजपा और टीडीपी में गठबंधन की चर्चा के बीच सीट शेयरिंग फॉर्मूला भी सामने आ गया है। सूबे में लोकसभा की 25 सीटें हैं और टीडीपी पवन कल्याण की जनसेना को पहले ही तीन सीटें दे चुकी है। चंद्रबाबू नायडू ने भाजपा को पांच सीटें ऑफर की हैं। टीडीपी खुद बाकी 17 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है। हालांकि, इसे लेकर अभी आधिकारिक ऐलान नहीं हुआ है।
दूसरी तरफ, ओडिशा में भाजपा अधिक लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है। भाजपा 14 सीटों पर दावा कर रही है लेकिन यहां दिक्कत यह है कि बीजेडी ने 2019 के चुनाव में 12 सीटें जीती थीं। क्या बीजेडी अपनी पांच सीटिंग सीटें भाजपा के लिए छोड़ने और 24 साल से जिस राज्य की सत्ता में है, वहां छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करने को तैयार होगी?
एनडीए का कुनबा बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार दौरे कर कर रहे है ।5 मार्च को ओडिशा के दौरे पर थे और उसी दिन सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की जयंती भी थी। प्रधानमंत्री ने बीजू बाबू को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इसे अपना सौभाग्य बताया और लगे हाथ मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को अपना मित्र कहकर संबोधित किया, जमकर तारीफ की। इसके बाद से ही यह कयास लगाए जा रहे थे कि क्या नीतीश कुमार की जेडीयू, जयंत चौधरी की आरएलडी के बाद अब बीजू जनता दल (बीजेडी) की भी पुराने गठबंधन में वापसी होने वाली है?
हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में बीजेडी ने भाजपा उम्मीदवार अश्विनी वैष्णव का समर्थन किया था। इसे नवीन पटनायक की पार्टी की ओर से गठबंधन के लिए भाजपा को सॉफ्ट सिग्नल की तरह देखा गया। प्रधानमंत्री मोदी के हालिया दौरे के दौरान उनकी नवीन पटनायक के साथ दिखी केमिस्ट्री ने इस चर्चा को और हवा दे दी। अब दोनों दलों का गठबंधन तय बताया जा रहा है लेकिन सवाल भी उठ रहे हैं कि 2000 से ही ओडिशा का पावर सेंटर बने रहे नवीन पटनायक को 15 साल बाद अब आखिर फिर से गठबंधन की जरूरत क्यों पड़ रही है?
दरअसल, नवीन पटनायक 2000 से ही ओडिशा के मुख्यमंत्री हैं। भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां बीजेडी की 24 साल पुरानी सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी को वोट के रूप में कैश कराने की कोशिश में हैं। बीजेडी की अंगुली पकड़कर 2009 तक चलती रही भाजपा के लिए ओडिशा में सबसे बड़ा संकट नेतृत्व का था। पार्टी ने रणनीतिक रूप से धर्मेंद्र प्रधान और अश्विनी वैष्णव के रूप में दो मजबूत नेता खड़े किए ही, जुएल ओराम, जय बैजयंत पांडा, मनमोहन सामल जैसे नेताओं को भी आगे किया।
बीजेडी ने साल 2009 के चुनाव से पहले भाजपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया था। 2009 में भाजपा को 15.1 फीसदी वोट शेयर के साथ छह सीटों पर जीत मिली थी और तब से अब तक, चुनाव दर चुनाव पार्टी का ग्राफ बढ़ा है। बीजेडी 2009 में 38।9 फीसदी वोट शेयर के साथ 146 सदस्यों वाली विधानसभा में 103 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन 2014 और 2019 चुनाव के एक ट्रेंड ने पटनायक की पार्टी की टेंशन बढ़ा दी। भाजपा का ग्राफ चुनाव दर चुनाव चढ़ा है। 2014 और 2019 के ओडिशा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो बीजेडी का वोट शेयर बढ़ा जरूर है लेकिन मामूली ही सही, सीटें घटी हैं।
साल 2014 में बीजेडी का वोट शेयर पांच फीसदी इजाफे के साथ 43.9 फीसदी पहुंच गया और 117 सीटें जीतकर पार्टी ने फिर से सरकार बना ली। 26 फीसदी वोट शेयर के साथ 16 सीटें जीतकर कांग्रेस दूसरे और भाजपा 18।2 फीसदी वोट शेयर के साथ 10 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही थी। 2014 की हार के बाद भाजपा ने ओडिशा में सक्रियता बढ़ा दी। नतीजा 2019 के विधानसभा और लोकसभा, दोनों ही चुनाव में देखने को भी मिला। भाजपा 32।8 फीसदी वोट शेयर के साथ 23 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और कांग्रेस 16।3 फीसदी वोट के साथ नौ सीटें जीत तीसरे स्थान पर खिसक गई। बीजेडी का वोट शेयर 1।3 फीसदी इजाफे के साथ 45 फीसदी के पार पहुंच गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले पांच सीटें कम हो गईं।
बीजेडी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 44.8 फीसदी वोट शेयर के साथ 21 में से 20 सीटें जीती थीं। तब भाजपा 21.9 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट ही जीत सकी थी। 2019 में बीजेडी का वोट शेयर 43.3 फीसदी पर आ गया और पार्टी को 2014 के मुकाबले आठ सीट का नुकसान उठाना पड़ा वहीं इसके ठीक उलट भाजपा का वोट शेयर बढ़कर 38.9 फीसदी पहुंच गया और पार्टी की सीटें भी एक से बढ़कर आठ हो गईं। तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। बीजेडी में नवीन पटनायक के बाद कौन? उत्तराधिकार का सवाल और गहरा हुआ है।
अशोक भाटिया