नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा संशोधित कर बनाया गया नागरिकता संशोधन अधिनियम, वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करता मानवता को परिपुष्ट करने वाला एक भारतीय कानून है। यह कानून भारतीय संसद द्वारा 11 दिसंबर, 2019 को बनाया गया था जिसके बाद असम समेत पूरे देश में इसके विरोध में प्रदर्शन प्रारंभ हो गया। विपक्षी दलों द्वारा मुसलमानों को यह कहकर भ्रमित किया गया कि सीएए से उनकी नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी एवं धर्मगुरुओं के द्वारा भी कुछ इसी प्रकार की बातें समाज में प्रचारित और प्रसारित की गयी लेकिन क्या यह सत्य है?
इस मामले में केंद्रीय गृहमंत्रालय कई बार स्पष्टीकरण दे चुका है। सीएए द्वारा किसी की भी नागरिकता खत्म नहीं की जा सकती है बल्कि यह नागरिकता देने वाला कानून है। चूंकि विपक्ष द्वारा बार-बार मोदी सरकार को मुस्लिम विरोधी कह कर प्रचारित किया जाता रहा है, इसीलिये मोदी विरोध में मुसलमानों को भ्रमित कर सीएए के खिलाफ जगह-जगह धरना, विरोध प्रदर्शन आयोजित किये गए। अगर कोरोना महामारी ना आती, तो संभव था कि सीएए विरोध में होने वाला आन्दोलन लंबा खिंचता।
खैर! अब केंद्र सरकार ने सीएए को धरातल पर उतार दिया है। हालांकि यह प्रश्न जरूर है कि आखिर इतने प्रभावशाली और व्यापक चिंतन को आत्मसात किए इस कानून को धरातल पर उतारने में इतना वक्त क्यों लगा? यह सवाल न केवल प्रतिपक्षियों के द्वारा पूछे जा रहे हैं अपितु मुसलमान बुद्धिजीवी भी इस प्रकार के सवाल पूछ रहे हैं। चलो जब यह कानून लागू कर दिया गया तो इससे आपत्ति किसे होनी चाहिए? विपक्षी पार्टियां तो इसलिए आपत्ति दर्ज करा रही है कि उन्हें सत्ता फिर से प्राप्त करना है लेकिन बिना कुछ समझे मुसलमान मुसलमान लामबंद होने लगे हैं। सपा के प्रवक्ता ने सीएए के विरोध में शाहीनबाग दोहराने की चेतावनी दी तो कई अन्य संगठन व व्यक्तियों द्वारा सीएए के विरोध में आंदोलन की चेतावनी दी जा रही है। सवाल यहीं से पैदा होता है? जब सीएए से किसी की नागरिकता जाने का सवाल ही नहीं तो फिर इसका विरोध किसलिए? जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह स्पष्ट कह चुके हैं कि, “हमारे मुस्लिम भाइयों को गुमराह किया जा रहा है और भड़काया जा रहा है। सीएए सिर्फ उन देशों के अल्पसंख्यक लोगों को नागरिकता देने के लिए है जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीड़न का सामना करने के बाद भारत आए हैं। यह किसी की भारतीय नागरिक की नागरिकता छीनने के लिए नहीं है।” ऐसे में इस मामले में विरोध का मामला पूरी तरह राजनीतिक प्रतीत होता है।
केंद्रीय गृहमंत्री के इस आश्वासन के बावजूद सीएए के विरोध में लोगों को भ्रमित करने का षड़यंत्र जारी है। वास्तविकता यह है कि मुद्दाविहीन विपक्ष और नरेन्द्र मोदी को हराने में अभी तक पूरी तरह नाकाम रहने वाले नेता अपनी लड़ाई मुसलमानों के सिर थोपने की कोशिश कर रहे हैं। मुसलमानों को इस षड़यंत्र को पहचानना होगा और एक बार खुद से भी सवाल करना होगा कि अभी तक मोदी सरकार जितनी भी योजनाएं लेकर आई है क्या उसमें मुसलमानों से भेदभाव किया गया है? मेरी समझ में तो ऐसा कुछ नहीं है। बावजूद इसके कुछ सियासी दल अपने निजी स्वार्थ के लिए मोदी सरकार को मुस्लिम विरोधी साबित करने पर तुले हैं। जहां तक सीएए का सवाल है, वह नागरिकता देने का कानून है, ना कि नागरिकता लेने का। क्या इस सच्चाई से इंकार किया जा सकता है कि पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं। इन तीनों पड़ोसी देशों से प्रताड़ित होकर अपनी जान बचाकर भारत आए शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जा रही है, तो इसमें गलत क्या है? यहां के मुसलमानों को इसका स्वागत करना चाहिए और मानवीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
मुसलमानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब यूरोप में यहूदियों के खिलाफ अत्याचार होने लगा तो खुद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोहम्मद पैगंबर साहब ने उन्हें अरब में आकर बसने की बात कही थी। यूरोप में जब यहूदियों पर अत्याचार बढ़ा तो औटोमन सुल्तान ने यहूदियों को तुर्की के इस्ताबुल और कस्तूतूनिया में लाकर बसा दिया था। भारतीय हुक्मरान यही तो कर रहे हैं। जहां तक मुसलमानों की बात है तो इन तीन देशों में मुसलमान उतने प्रताड़ित नहीं हैं जितने ईसाई, हिन्दू, पारसी, सिख, जैन और बौद्ध। इसका मुसलमानों को ख्याल रखना होगा। फिर विदेशी मुसलमानों के लिए अलग से नागरिकता का कानून भारत सरकार ने बना कर रखा है। उसके तहत बाहर के देशों के मुसलमान नागरिकता प्राप्त भी कर रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश की जमीनें हमेशा तंग रही हैं, उन्हीं सताए हुए लोगों को भारत की सरकार भारत की नागरिकता देने के लिए सीएए लेकर आई है। जाहिर है, उन धार्मिक अल्पसंख्यकों में मुस्लिम नहीं हैं, इसलिए मुस्लिमों को सीएए से बाहर रखा गया।
सीएए के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 से पहले आए गैर मुस्लिम छह समुदायों को नागरिकता देने का प्रावधान किया है। गृह मंत्रालय की 2021-22 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक एक अप्रैल 2021 से 31 दिसंबर 2021 तक इन गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदायों के कुल 1414 विदेशियों को भारतीय नागरिकता दी गई है। जिन 9 राज्यों में नागरिकता दी गई है, उनमें गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और महाराष्ट्र का नाम शामिल है। अब सरकार व्यापक स्तर पर सीएए लागू करेगी ताकि प्रताड़ित होकर भारत में शरण लेने वाले उक्त धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देकर उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सके।
भारत की संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम् की रही है, आज दुनिया हसरत भरी निगाह से भारत की ओर देख रही है। शायद इसीलिये पड़ोसी देशों में प्रताड़ित होने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, जैन और पारसी ने शरण लेने के लिए भारत को चुना। उनकी उम्मीदों पर खरा अगर वसुधैव कुटुम्बकम् जैसी महान संस्कृति वाला देश नहीं उतरा तो फिर कौन उतरेगा? इस सवाल के साथ ही यहां फिर से दोहराना जरूरी है कि किसी मुसलमान को सीएए का विरोध करने की जरूरत नहीं है। यह मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। इस मुद्दे पर भारतीय मुसलमान विपक्षी दलों का हथियार बनने से बचें। उनके भ्रमजाल में न फंसे और तहे दिल से इस कानून का स्वागत करें।
गौतम चौधरी