ईमानदारी का फल

honesty

बहुत पुरानी बात है। किसी गांव में कालू नाम का एक बालक रहता था। उसकी उम्र उस समय बारह वर्ष की थी। वह एक लकड़हारे का पुत्रा था। उसका पिता बूढ़ा और बीमार था, इसलिये वह अधिक चलने फिरने और शारीरिक परिश्रम करने के योग्य नहीं था।


घर में बस दो ही प्राणी थे-कालू और उसका पिता। अपने पिता की देखभाल और सेवा करना तथा घर चलाने की सारी जिम्मेदारी कालू के कंधों पर थी। कालू सवेरे खा पीकर, कुल्हाड़ी कंधे पर रखकर, अपनी धुन में मस्त गाते हुए जंगल की ओर लकड़ी काटने के लिये निकल पड़ता था। जंगल में वह पेड़ों पर सूखी लकड़ियां ढूंढता, काटता और इकट्ठी करके एक गट्ठर बनाकर उन्हें बेच आता था। लकड़ियां बेच कर घर का गुजारा चलता था।


रोज की तरह, एक दिन कालू छोटी सी कुल्हाड़ी कंधे पर रखकर सवेरे जंगल में लकड़ियां काटने आया। जंगल में एक बहुत बड़ा सरोवर था। सरोवर के किनारे छोटे-बड़े अनेक वृक्ष उगे थे।


सरोवर के किनारे खड़े एक वृक्ष पर कालू की दृष्टि पड़ी। देखकर वह खुश हो गया। उस पेड़ पर बहुत सारी सूखी और मोटी टहनियां थी। उसने सोचा कि थोड़ी ही देर में एक ही पेड़ से उसे ढेर सारी लकड़ियां मिल जायेंगी। लकड़ियां काटने के लिये वह पेड़ पर चढ़ गया।
जब वह लकड़ी काट रहा था, उसकी कुल्हाड़ी अचानक हाथ से छूटकर गहरे सरोवर में गिरी पड़ी। निराश कालू पेड़ से उतर आया और बैठकर जोर जोर से रोने लगा। रोते हुए वह कह रहा था-‘कुल्हाड़ी तो सरोवर में डूब गई। अगर आज लकड़ियां काट कर न ले गया तो मुझे और बापू को भूखे ही सोना पड़ेगा।’


उस सरोवर में एक जलपरी रहती थी। जब उसके कानों में कालू के बिलख बिलख कर रोने की आवाज आई तो उसका हृदय दया से भर उठा। बालक की सहायता करने का मन बनाकर जलपरी सरोवर से बाहर आई। उसने कालू से पूछा-‘बच्चे! तुम रो क्यों रहे हों।’
कालू ने परी की तरफ सिर उठाकर देखा और कमीज के छोर से आंसू पोंछते हुए बोला-‘लकड़ी काटते समय मेरी कुल्हाड़ी सरोवर में गिर गई। मेरी कमाई का वही एक साधन थी। अब मैं लकड़ियां कैसे काटूंगा। हम तो भूखे मर जायेंगे।


‘ठीक है, मैं तुम्हारी कुल्हाड़ी ढूंढती हूं।‘ कहकर जलपरी सरोवर में उतर गई। कुछ देर बाद वह एक सोने की कुल्हाड़ी लेकर बाहर आई और उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली-‘लो अपनी कुल्हाडी।‘


कालू ने कुल्हाड़ी को हाथ में लेकर देखा और जल परी को लौटाते हुए बोला-‘यह कुल्हाड़ी मेरी नहीं है। मुझे तो मेरी कुल्हाड़ी चाहिये।’


जलपरी ने दूसरी बार पानी में डुबकी लगाई और कुल्हाड़ी लाकर उसे थमा दी। वह कुल्हाड़ी चांदी की थी। कालू ने जल परी को वह कुल्हाड़ी भी यह कहकर लौटा दी कि वह भी उसकी नहीं है।


इस बार जल परी कालू की ओर देखकर मुस्कुराई और पानी में जाकर उसकी लोहे की कुल्हाड़ी निकल कर ले आई। कुल्हाड़ी कालू को देते हुए बोली-लो, यही तुम्हारी असली कुल्हाड़ी है।


अपनी कुल्हाड़ी को देखकर कालू खुशी से भर उठा। बोला-‘‘यही तो मेरी कुल्हाड़ी है।
जलपरी कालू के भोलेपन और ईमानदारी से बुहत प्रसन्न और प्रभावित हुई। उसने उसे सोने और चांदी की तीनों कुल्हाड़ियां उपहार के रूप में दे दी और पानी में चली गई। अपनी ईमानदारी और सच बोलने के कारण कालू जल परी की कृपा का पात्रा बन गया।