श्रीमद्भगवद्गीता एक शाश्वत, अत्यन्त पवित्र और विश्वभर में प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह धर्म, कर्म और प्रेम का पाठ पढ़ाती है। गीता के अनमोल वचन मनुष्य को जीने की सही राह दिखाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण के उन उपदेशों का वर्णन है, जो उन्होंने महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन को दिए थे। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं, जिनमें धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्म करने की शिक्षा दी गई है। भक्ति का ज्ञान से और अंततः इन दोनों का नित्य-व्यवहार के कर्म के साथ सुंदर मिलाप कर मानव मात्र को निष्काम कर्म में प्रवृत्त करने वाला है यह महान ग्रन्थ।
गीता में संपूर्ण जीवन दर्शन है और इसका अनुसरण करने वाला व्यक्ति जीवन में कभी निराश नहीं होता है। ऐसा कहा जाता है कि जब भी आप किसी दुविधा या परेशानी में हों तो श्रीमद्भगवद्गीता को पढ़ लें, क्योंकि इसके श्लोक आपको सही मार्ग दिखाने में सहायक होते हैं। इसे पढ़ने से हमें जीवन में सही राह चुनने में मदद मिलती है और यह ग्रन्थ हमें जीवन की बुरी परिस्थितियों से कैसे निकला जाये, इसका ज्ञान भी देता है। इसमें व्यक्ति को अपनी हर समस्या का समाधान मिल सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन एवं धर्म की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तक है। इसकी जितनी समीक्षाएं, अर्थ एवं टीकाएं की गयी हैं, उतनी शायद ही विश्व के किसी धर्मग्रंथ की की गयी हों। श्रीमद्भगवद्गीता केवल कंठस्थ करने के लिए नहीं है, न ही यह वृद्धों के लिए है। यह तो युवावस्था में ही अध्ययन कर तथा अनुभव और ज्ञान की कसौटी पर आत्मसात कर आचरण में लाने का अर्थात् कर्म शुद्ध करने का रहस्य है। इसमें मानवीय जीवन के आध्यात्मिक उत्कर्ष के सहज सरल सूत्र दिए गए हैं।
माता सर्वोपरि होती है – गुरु से भी ऊपर। गीता को माँ भी कहा गया है। गीता समस्त मानव जाति के लिए माता के समान है, जो अपनी शरण में आये हुए हर पुत्र की समस्याओं का समाधान करती है। जिस प्रकार माँ अपने बच्चों को प्यार-दुलार देती है और दिनोंदिन उसमें सुधार करते हुए उसे महानता के शिखर पर आरूढ़ होने का रास्ता दिखाती है, उसी तरह गीता भी इसका अध्ययन-मनन-चिन्तन करने वालों को सुशीतल शांति प्रदान करती है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गीता की महत्ता के बारे में लिखा है, “मैंने कहीं पढ़ा था कि केवल सात सौ श्लोकों की मर्यादा में गीता ने समस्त शास्त्रों तथा उपनिषदों का सार उड़ेल कर रख दिया है। गीता पढ़ सकूँ, इसलिए मैंने संस्कृत भाषा सीखी। अपनी लौकिक माता से तो मैं बहुत पहले ही बिछुड़ गया; परंतु गीता मैया ने उस रिक्तता की पूर्ण पूर्ति कर दी है। आपातकाल में मैं उसी का आश्रय लेता हूँ।”
श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्यों को सद्शिक्षा देने के साथ ही नर से नारायण बनने की राह पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करती है। गीता का ज्ञान अपने आप में इतना सक्षम है कि इसे पाने के बाद और कुछ पाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। तभी तो कहा गया है –
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिसृतः॥
गीता सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सभी दुःखों को हरने वाली कामधेनु जैसी है। गीता का जितना स्वाध्याय किया जाये, उतने ही जीवन को महान बनाने के नये-नये सूत्र हाथ लगते हैं। महान योगी, दार्शनिक और विचारक अरविन्द घोष कहते हैं, “गीता के उपदेश का प्रभाव केवल दार्शनिक अथवा विद्वज्जनों की चर्चा का विषय न होकर आचार-विचार के क्षेत्र में जीवंत तथा त्वरित अनुभव हो, ऐसा है। संसार के सर्वश्रेष्ठ शास्त्रीय ग्रंथों में गीता का एकमत से समावेश किया गया है।” संत विनोबा भावे कहते थे- “हर कष्ट, हर दुःख के लिए गीताई की शरण जाओ।”
न्यायालय के लिए सद्ग्रन्थों की कमी नहीं है, पर गीता तो माता है, सबकी माता। वह न कोई शास्त्र है, न ग्रन्थ है। वह तो सबको छाया देने वाली, ज्ञान का प्रकाश देने वाली माता है। इसी कारण शपथ भी ली जाती है तो गीता के ऊपर हाथ रखकर।
वर्तमान समय में मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान के अभाव से उत्पन्न अधूरे व्यक्तित्व के कारण ही तनाव, अवसाद जैसी परेशानियों से घिरा हुआ है। ऐसे में आज समाज में श्रीमद्भगवद्गीता की बहुत आवश्यकता है। श्रीमद्भगवद्गीता का मूल सिद्धांत है कि हम आत्मा हैं, मगर जन्म तथा मृत्यु के चक्र की अस्थायी अवस्था में बंधे हैं। इस अवस्था में हम मजा प्राप्त करना चाहते हैं जो कि अस्थायी है, जबकि हमें आनंद प्राप्त करना चाहिए जो कि सनातन अर्थात् स्थायी होता है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें अस्थायी चीजों का उपयोग करके स्थायी आनंद की प्राप्ति की शिक्षा देती है। इसमें साधक, गृहस्थ सबके लिए आध्यात्मिक-सामाजिक उन्नति के सहज, सरल सूत्र हैं। यह ऐसा सर्वकालीन ग्रन्थ है जो जीवन में पथदर्शक की भूमिका निभाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है।
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श्रीकृष्ण ने एकादशी को सुनाई थी गीता
द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष एकादशी यानी “मोक्षदा एकादशी” को अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर, मानव मात्र को गीता के ज्ञान द्वारा जीवनाभिमुख बनाने का चिरन्तन प्रयास किया है।
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गीता का ज्ञान
जीवन के सच्चे साथी दो ही हैं – पहला, अपना किया हुआ कर्म और दूसरा परमात्मा। शेष तो सब इस जन्म में मिले हैं और यहीं बिछड़ जाएंगे।
हमेशा सत्य के साथ खड़े रहो, भले अकेले ही क्यों न खड़ा रहना पड़े।
अपने बीते हुए कल को त्याग देना चाहिए क्योंकि उसका प्रभाव आने वाले कल को दूषित करता है।
मनुष्य के जीवन का मात्र एक ही सत्य है और वह है मृत्यु। जिसने जन्म लिया है, उसे एक दिन संसार को छोड़कर जाना ही है और यही अटल सत्य है।
मृत्यु से कभी डरना नहीं चाहिए। मृत्यु का भय ही मनुष्य के वर्तमान खुशियों को खराब कर देता है।
शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है, इसलिए नश्वर शरीर पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए।
जीवन के सच्चे साथी दो ही हैं – पहला, अपना किया हुआ कर्म और दूसरा परमात्मा। शेष सभी इस जन्म में मिले हैं और यहीं बिछड़ जाएंगे।
मनुष्य को उसके द्वारा किए गए कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसलिए सदैव सत्कर्म करने चाहिए।