परमार्थ – परमार्थ का मार्ग है।

हिंदी साहित्य को जब भी पढ़ा या जाना तो उसके युग और परिवर्तन का काल तीर्थ नगरी ही रही। भक्ति काल तो काशी, चित्रकूट, वृंदावन, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि के ही आसपास रचा बसा सा लगता है। कबीर काशी से चले और विश्व प्रसिद्ध हो गए। कबीर के भक्ति भाव पर जितनी भी चर्चा की जाए उतनी ही कम लगती है। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अयोध्या में की और चित्रकूट में भी। गोस्वामी तुलसीदास ने तीर्थाटन करके, भक्ति का भाव जगाकर ही रामचरितमानस महाकाव्य लिखा। आज भारतवर्ष या विश्व के किसी भी देश में जहाँ भी रामकथा होती है, उसमें रामचरितमानस का ही पाठ होता है। महाकवि सूरदास ब्रजभूमि और वृंदावन के कण-कण में दिखाई देते हैं। भगवान के बाल्य, साख्य और वात्सल्य भाव को प्रकट करने वाले महाकवि सूरदास को कौन भूला सकता है। भक्तिकाल के कवि केवल कवि नहीं है, बल्कि भगवान के शिरोमणि  भक्त हैं। इन तीर्थ स्थलों से ही इन भक्त कवियों में भक्ति का भाव फूटा और भगवान का ऐसा सुंदर मनोहारी वर्णन कर दिया जो युगों-युगों तक याद किया जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण के हर एक रूप और लीला का वर्णन करने में रीतिकाल के कवियों को भी नहीं भूलाया जा सकता।



आधुनिक काल को जब हम पढ़ते हैं तो उसमें सबसे पहले भारतेंदु युग जो काशी अर्थात् शिव की नगरी वाराणसी के आसपास रचा बसा। द्विवेदी युग और उसकी सरस्वती पत्रिका प्रयागराज से चली। यहाँ गंगा-यमुना-सरस्वती तीनों का संगम है। छायावाद काव्य भी प्रयागराज और काशी में ही दिखाई देता है। इसके बाद भी साहित्य की अलग-अलग धाराओं और विचारों को पढ़ा तो वह भारतीय तीर्थ नगरों के पास ही लिखा गया ऐसा जान पड़ता है।
उपर्युक्त चर्चा से एक बात तो स्पष्ट होती है कि यह सभी तीर्थ नगरी मनुष्य की विचार शक्ति को आत्मबल-आत्मसंतुष्टि के साथ-साथ लिखने को प्रेरित करती हैं। भारतीय साहित्य और संस्कृति को जानना है तो इन तीर्थ नगरों को भी जानना और समझना होगा।


संस्कृत साहित्य को पढ़ें और अपने धर्म ग्रंथों को भी जाने तो वह भी तीर्थ नगरों से जन्में हैं। भगवान वेदव्यास ने श्रीबदरी विशाल के समीप गुफा में समाधि लगाई और उसी के समीप गणेश गुफा है, जिसमें भगवान गणेश ने समाधि लगाई। इन दोनों की समाधि-ध्यान ने कितने ही धर्म ग्रंथों की रचना कर डाली, इससे भी हम परिचित हैं। यह ध्यान-चिंतन-मनन साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। गीता का उपदेश स्थल कुरुक्षेत्र है। भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ गीता उपदेश दिया। गीता के प्रथम श्लोक में कहा गया है- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवाः। यह गीता उपदेश भारतवर्ष में ही नहीं पूरी दुनिया के लिए पथ प्रदर्शक है। गीता को विद्वान पंचम वेद भी कहते हैं। हम जितना गहन-चिंतन-मनन करेंगे, तो हमें पता चलेगा की इन तीर्थों ने भारतवर्ष ही नहीं विश्व की दशा और दिशा बदली है। बिना तीर्थों के जाने भारतीय साहित्य, समाज, संस्कृति को जानना संभव नहीं है।



पतित पावनी ऋषिकेश की भूमि, माँ गंगा के तट पर परमार्थ निकेतन आश्रम है। परमार्थ निकेतन में आचार्य स्वामी पूज्य श्री चिदानंद जी महाराज हैं। महाराज श्री के दर्शन और आश्रम के रमणीय मनोरम दृश्य को देखकर श्रीमद्भागवत के दसवें अध्याय के बारहवें श्लोक में अर्जुन जो कहते हैं, वह पंक्तियाँ याद आ जाती हैं- परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परम भवान् अर्थात् परम धाम पवित्रम परम सत्य है, आप शाश्वत दिव्य आदि पुरुष अजन्मा तथा महानतम हैं, श्री चिदानंद जी महाराज एक दिव्य आत्मा हैं। कहते हैं कि जो गंगाजल का पान करता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। विचारणीय बात यह है कि यह दिव्य संत (स्वामी श्री चिदानंद जी महाराज) रहते ही गंगा तट पर हैं, स्नान गंगा में करते हैं। आरती गंगा की करते हैं, गंगा के तट पर भजन और ध्यान करते हैं। जो रहते ही गंगा की गोद में हैं। जो गंगा के पुत्र हैं, उसे तो इच्छा मृत्यु का ही वरदान होता है। उसकी मुक्ति के लिए तो स्वयं भगवान को ही आना पड़ता है। ऐसे दिव्य पुरुष के दर्शन मात्र से कितने ही जन्मों के बंधन कट गए हैं। इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। स्वामी जी के बारे में कहा जा सकता है कि, वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर। परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर।। इनकी सुमधुर वाणी से अध्यात्म की बातें सुनकर यह लोक और परलोक दोनों ही सुधर गए हैं। गंगा, गीता, गाय, योग-योगी, संत आदि का मिलन जीवन का सबसे श्रेष्ठ क्षण कहा जा सकता है।


परमार्थ निकेतन में स्वामी जी की अध्यात्मिक अनुभूति हर क्षण और हर वस्तु में दिखाई पड़ती है। मुझे तो लगता है कि जीवन में कोई ऐसा पुण्य जरूर किया था, जिसके चलते हमें परमार्थ में इतने साधु-संतों, विद्वानों, योगाचार्यों आदि के दर्शन हो गए। साथ ही उनकी दिव्य वाणी से सुविचार सुनकर जीवन सफल हो गया।


परमार्थ निकेतन देवनगरी ऋषिकेश में एक दिव्य और रमणीय आश्रम है। संध्या गंगा आरती हर व्यक्ति के कष्ट, शोक, रोग, ताप, संताप, काम आदि को काट देती है। गंगा आरती व्यक्ति में नवऊर्जा-नवसंचार-नवप्राण भर देती है। महाराज श्री की दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि वहाँ उपस्थित सभी लोगों के संकट हर लेती है। योग-अध्यात्म-साधना की ऐसी अद्भुत छवि के दर्शन मात्र से कितने ही कष्टों का निवारण हो गया है। परमार्थ में पत्ता-पत्ता रमणीय है, यहाँ हर चीज भक्ति-शक्ति और योग में गुनगुनाती तथा डूबी सी दिखाई देती हैं। परमार्थ का कण-कण रोम-रोम में बस जाने वाला है। संध्या समय माँ गंगा का मधुर स्वर, दूर तलक फैली शांति, वृक्षों की खुशबू, रमणीय ध्यान कक्ष और मन को शांत कर देने वाली पवन, इस दिव्य स्थल को मनमोहक बना देती है। यह दिव्य स्थल बार-बार अपनी ओर खींचता रहता है। गीता के अध्याय चार के 38वें श्लोक में कहा गया है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। कहने का भाव है कि इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है।