हमारी चेतना में ‘राम’ शब्द इतना घुलमिल गया है कि समस्त भारत अभिवादन से प्रेरणा तक रामानुगामी हैं। बिना किसी जाति-धर्म भेद के खेत खलिहान से सड़क और रेल तक जब भी, जहां भी कोई मिला ‘राम-राम’, ‘राम-राम साहब’, ‘जय-जय राम’, ‘जयरामजी की’, ‘जयसिया राम’। जीवन ही क्यों इस जीवन के बाद भी ‘राम नाम सत्य है’। आखिर कहाँ नहीं है राम का नाम।
हमारे लोकमानस में राम की अनगिनत छवियां हैं। राम के कई भाव रूप हैं। इस देश की जितनी भाषाएं-बोलियां हैं, जितने भी प्रांत-जनपद हैं, जितने भी समुदाय-पंथ हैं, सभी राममय हैं। राम सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति तक सभी के अपने हैं। कोई राम को नर मानता है तो कोई नारायण। लेकिन राम हैं सभी के। श्री गुरुग्रन्थ साहिब में रामनाम की महिमा ढाई हजार से अधिक बार आई है। कबीर के राम विभिन्न रूपों में है –
एक राम दशरथ का बेटा
एक राम घट-घट में बैठा।
एक राम का सकल पसारा
एक राम सबहूँ ते न्यारा।।
भारत में इतनी रामकथाएं मिलती हैं कि उनमें अनेक बार काफी अंतर भी दिखाई देता है। यह अंतर देश से विदेश तक है तो इसका कारण स्थानीय परिस्थितियों में राम की तलाश, रामनाम आलंब जाना जाता है। पंजाब में तो रामकाव्य की अद्भुत परम्परा रही है। यहां केवल वहीं कवि कहलाने का अधिकारी था जो सम्पूर्ण रामकथा काव्य में प्रस्तुत करें। आश्चर्य तो यह है कि विभाजन के बाद पाकिस्तान में शामिल हुए पश्चिमी पंजाब में यह प्रथा बेशक आंशिक रूप से ही सही, आज भी विद्यमान है। पिछले दिनों पाकिस्तान की यात्रा पर गए एक विद्वान ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए बताया कि लाहौर लाईब्रेरी में आज भी अनेक रामकाव्य सुरक्षित हैं।
विश्व के प्राचीनतम ज्ञानकोश ऋग्वेद में भी राम-राज्य की चर्चा है-
यत्र राजा वैवश्वतो यत्रावरोधनं दिव:।
यत्रामूर्यास्वती राम: स्वथा च यत्र तृप्तिश्च।।
यत्रानन्दाश्व मोदाश्व मुद प्रमुद् आसते।
कामस्त यत्रासा: कामस्तत्र मामृतं कृधि:।।
अर्थात् जहां श्रीराम राजा हैं, जहाँ मानो समस्त स्वर्गीय सुखों का आवास हो गया था, जहाँ समय पर याचित वृष्टि होती थी। प्रजाजन स्वाहाकार और स्वधाकार में प्रवृत्त थे, सब तृप्त रहते थे तथा सर्वत्र आनन्द, मोद, हर्ष और प्रमोद छाया था।
महर्षि वाल्मिकी ने कहा है, ‘जब तक महीतल पर पहाड़ और नदियां हैं, तब तक लोक में रामकथा प्रचारित रहेगी।Ó
भारत भूमि पर जन्मा हर व्यक्ति कहीं-न-कहीं स्वयं को राम से जुड़ा हुआ महसूस करता है तभी इस्लामिक विद्वान और पाकिस्तान के वास्तविक पिता अल्लामा इकबाल भी राम के प्रति अपनी सद्भावना व्यक्त करते हैं –
है राम के वजूद पे हिन्दुस्तान को नाज।
अहल-ए-नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द।।
वास्तव में अविभाज्य भारत राम का वंशज है। इस देश की संस्कृति जो एक आत्मा में निवास करती है जो अलग-अलग रहन-सहन, बोली-भाषा, खान-पान, परिवेश के बावजूद एकात्मकता का साक्षात्कार कराती है। विद्वानों में इस बात पर सर्वसम्मति है कि राम तत्व इस एकात्मकता का आधार है। राम रूपी शब्द ने सनातन विविधता और भौगोलिक विविधता को अटूट भावात्मक एकता का सम्बल प्रदान किया है।
दुनिया भर में राम पर हुए शोध हो या जनश्रुति, राम के आदर्श रूप पर सर्वाधिक चर्चा सामने आती है। राम ने जीवन के हर रिश्ते को हर पात्र को स्वयं मर्यादा सहित निभाया है। आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श राजकुमार, आदर्श वनवासी, आदर्श मित्र, आदर्श शत्रु, आदर्श राजा, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक आखिर क्या नहीं रहे घट-घट के राम। ऐसे में राम को हम किसी धर्म विशेष की परिधियों में बांध नहीं रख सकते। वास्तव में राम से जुडऩे का अर्थ है सम्पूर्ण मानवता से जुडऩा। यह जुड़ाव संकीर्णताओं को तोड़ता है, राष्ट्रीयता को वैश्विकता की गरिमा प्रदान करता है। कौन नहीं जानता कि तुलसी के समकालीन अब्दुर्रहीम खानखाना अपने जीवन के संकटकालीन निर्वासन काल में उसी चित्रकूट में रहे जहां राम अपने 14 वर्षों के वनवास के 12 वर्ष रहे। उसी चित्रकूट के विषय में रहीम लिखते हैं –
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेश।
जापर विपदा परत है, वह आवत यहि देश।।
सीमान्त गांधी के नाम से जाने-जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान ने भी कभी कहा था- ‘आर्य जाति ने इस देश (पख्तूनिस्तान, अविभक्त भारत) में अम नदी के किनारे अपनी आँखें खोली थीं, जहां पवित्र वेदों की ऋचाओं ने जन्म लिया। यही वह देश है, जिसके एक सपूत पाणिनी ने संस्कृत का व्याकरण लिखा। यहां की एक नदी और पश्तो भाषा के जिस शब्द से हिन्दू शब्द की उत्पत्ति हुई, वह सिंध है।
पाकिस्तान के प्रसिद्ध शायर जनाब फैज अहमद जब हिन्दुस्तान तशरीफ लाए तो उन्होंने दिल्ली के एक समारोह में बहुत गर्व से कहा था, मैं हजारों सालों से हिन्दुस्तानी हूं। पाकिस्तानी तो महज पचास बरसों से हूं। इसी तरह मैं हजारों सालों से हिन्दू भी हूं, मुसलमान तो पंद्रह सौ बरसों से हूं।
भारत के केन्द्रीय मंत्री रहे मुहम्मद करीम छागला भी कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि इस देश में जो भी लोग रहते हैं और इसे अपना घर समझते हैं, वे चाहे किसी भी पंथ को मानने वाले क्यों न हों, हिन्दू ही है। मैं हिन्दू हूं क्योंकि मेरी वंश परम्परा हिन्दू है। मेरे पूर्वज हिन्दू ही थे। हिन्दू तत्वज्ञान और संस्कृति की छाप मेरे हृदय पर आज भी अंकित है।Ó
प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया लिखते हैं, ‘सत्य का इससे अधिक आभास क्या मिल सकता है कि सौ से अधिक शताब्दियों से भारत की हर पीढ़ी के दिमाग पर राम की इतनी कहानियां लगातार दुहराई जा रही हैं। देश के बड़े से बड़े कवि ने अपनी प्रतिभा से इनका परिष्कार किया है और निखारा है तथा लाखों करोड़ों लोगों के सुख और दुख इनमें घुले हुये हैं। जैसे पत्थर और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है वैसे ही रामकथा लोगों के दिमागों पर अंकित हैं जो मिटाई नहीं जा सकती है। भारत ही क्यों, दुनिया भर में राम की महिमा है। बेशक कुछ आक्रांताओं के कारण कुछ पंथ पनपे लेकिन राम को विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज भी अफगानिस्तान में रामबूट, अलास्का में रामीज, अमेरिका में रामो, रामह, रामटीओ, रामीरेज नामक नगर हैं तो आस्ट्रेलिया में रामसे, इराक में रमन, रामूटा, रामा, रामाला, ईरान में रामरोद, रामसार, रामिस्क, रामिया, इंग्लैंड में रामसगबेट, राम्सगिन, राम टेक्सपासाइड, इटली में रोम, केन्या में रामा, रामू, डेनमार्क में रामी, रामसी, रामटेन, फिलस्तीन में रामल्लाह, फ्रांस में रामट्युवेल, सेन्ट रामवर्ट, सेन्ट रामबाउलर, मैक्सिकों में रामीनेज रामोनल, जर्मनी में रामबर्ग, रामस्टीन, रामर्बो, जिम्बाब्बे में रामक्काड़, बेल्जियम में इवोरजरामेट, रामसेल, लीबिया में रामलहर, लेबनान में रामाथी, रूस में रामासुख, रामेसा, रामेस्क, स्पेन में रामाल्स डला विक्टोरिया, सीरिया में रामर, रामट आदि प्रमुख नगर हैं जिनके नाम से राम शब्द जुड़ा होना राम के विश्वव्यापी प्रभाव का संकेत होने के अतिरिक्त आखिर क्या है। नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम जिंदा हैं। दुनिया भर में बिखरे शिलालेख, भित्ति चित्र, सिक्के अन्य पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन भाषाओं के ग्रंथ आदि से राम के होने की पुष्टि होती है।
कभी सृष्टि के मध्य मानव अकेला या छोटे समूह में घूमा करता था। अब तो वह लाखों-करोड़ों के समुदाय के मध्य रहता है। परिवार, राष्ट्र और विश्व के मध्य यदि वह सुख-शांति से रहना चाहता है तो उसे कुछ कर्तव्यों का भी पालन करना होगा। कर्तव्य ऊपर से थोपे नहीं जा सकते। अंतरमन से उत्पन्न स्नेह-संबंध ही हमें परिवार, राष्ट्र या विश्व से जोड़ सकते हैं। इसके लिए राम का चरित और चरित्र दोनों ही प्रकाश-स्तम्भ है। निरंतर कष्ट सहकर राम ने कर्तव्य का पालन किया, उन्होंने पिता की आज्ञा पालन के लिए वनवास स्वीकार किया और लोक विश्वास की रक्षा के लिए प्राणप्रिया विशुद्धा सीता को वनवास दिया।
कठिनाईयों में पडऩे पर भी वे विचलित नहीं हुए बल्कि निर्भय होकर अन्याय से जुझते रहे। राम के मुख से कभी कातर वाणी नहीं निकल सकती। तुलसी के राम सताये हुए लोगों की रक्षा का प्रण बांह उठा कर करते हैं। उनका यही रूप शायद उन गिरमिटिये (मजदूरों) को संबल और प्रेरणा देता रहा है, जिन्हें धोखा देकर धूर्त अंग्रेजों ने देश से हजारों मील दूर अनजाने देशों में फेंक दिया था। उन्होंने राम के सहारे ही आततायी शक्ति पर विजय पायी और भी मोरिशस, सुरीनाम, जावा आदि देशों में भारतीय संस्कृति जीवित है तो उसका आलंब रामचरित मानस के माध्यम से राम ही तो है।
राम नाम लौकिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत कर जीवन और समाज को सुव्यवस्थित करता है। साथ ही सुख-दु:ख में सहनशीलता, प्रति-अनीति, पाप-पुण्य का बोध कराता है। राजनीतिक और धर्मनीति का पाठ भी पढ़ाता है। प्रत्येक परिवार के लिए राम कथा आचार संहिता की तरह है। आज जहां परिवार बिखर रहे हैं। माता-पिता की भक्ति बीती बात हो चुकी है और मर्यादाओं की सारी सीमाएं टूट चुकी है, ऐसे में राम का चरित्र ही हमें कठिन समस्या से मुक्ति दिला सकता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन चरित युगों-युगों से सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए अनुकरणीय रहा है। उनके चरित्र का हर पक्ष उज्ज्वल है। एक पुत्र, पति, भ्राता, स्वामी, राजा तो क्या शत्रु के रूप में भी उन्होंने जिन जीवन मूल्यों आदर्शों व मर्यादाओं का पालन किया वह अनुकरणीय हैं। श्रीराम के चरित्र की महिमा हमारे मनीषी सदैव से जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं।
नारी जाति के सम्मान को पुनस्र्थापित करना यथा देवी अहिल्ला का उद्धार, आजीवन एक पत्नी-व्रत का कठोरता से पालन जैसे प्रसंग जन-जन के संज्ञान में हैं। जबकि उस युग में बहुपत्नी-विवाह आम बात थी। स्वयं उनके पिता राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। आज भी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। रामराज्य में सब नागरिक मिल जुलकर अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। सभी वर्णों में आपसी सदभाव था-
वर्णाश्रम निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहीं सदा पावहीं सुखही नहीं भय शोक न रोग।
राम-राज्य में दु:ख तो लेश-मात्र भी न था। सब ओर शांति का साम्राज्य था-
सब नर करहीं परस्पर प्रीति।
चलत स्वधर्म निरत श्रुति रीति।।
नहीं कौउ अवुध न लक्षण हींना।
नहीं कौउ दुखी न दीना।।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम शाश्वत थे, हैं और रहेंगे। राम अनुकरणीय थे, है और हर युग, हर काल में अनुकरणीय रहेंगे। जरूरत है हम उनके वास्तविक एवं तात्विक रूप को पहचाने। उनके जीवन चरित्र से लोक मंगलकारी जीवन दृष्टि एवं मूल्यों को अपने जीवन में उतारने से हम परपीड़ा को अनुभव करते हैं जो कि धर्म का अनिवार्य स्थिति है।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।