दूषित जल की देन: अमीबियासिस

अमीबियासिस परजीवों द्वारा फैलाई जाने वाली अत्यधिक आम बीमारी है जो सारे संसार में पायी जाती है। यह भारत जैसे विकासशील और विश्व के अन्य पिछड़े देशों में पेट से संबंधित सबसे अधिक प्रचलित रोग है।


इस रोग का सीधा संबंध और अनुपात आदमी के रहन-सहन, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति, साफ-सफाई के स्तर व जनसंख्या पर निर्भर करता है।


भारत जैसे देश में जहां बहुसंख्य जनता को शौचालय की सुविधा नहीं है और वे खुली जगह का इस्तेमाल करते हैं, वहां इस बीमारी को फैलने, बढऩे में मदद मिलती है। इसी तरह झुग्गी-झोपडिय़ों में और गंदी बस्तियों में जहां मल के निकास की समुचित व्यवस्था न हो, वहां की जमीन, उसमें उगायी जाने वाली सब्जियों और पीने के पानी का इन परजीवों से दूषित होना एक आम समस्या है।


मानव स्वयं परजीवों का प्रमुख आश्रयदाता है और वह इस बीमारी को निम्नलिखित तरीकों से अन्य लोगों में फैला सकता है-


यदि वह भोजन पकाने या परोसने की क्रिया में लिप्त हो जैसे घरों में गृहणियां, उपहार गृहों व होटलों में रसोइये व बेयरे व वेटर, जिन संस्थानों में बड़ी मात्रा में भोजन बनता और वितरित किया जाता हो वहां भोजन परोसने वाले व्यक्ति, रेहडिय़ों और ठेलों पर खाद्य पदार्थ बनाकर बेचने वाले विक्रेता और इसी तरह के व्यवसाय से जुड़े व्यक्ति अनेक लोगों को एक साथ इस बीमारी के जीवाणु प्रदान कर सकते हैं।


मक्खियां व तिलचट्टे खुले पड़े मल पर बैठते हैं और यहां से वे परजीवों के अंडे अपने साथ ले आते हैं, यही जब खुले भोजन पर बैठते हैं तो अंडे भी भोजन में मिल जाते हैं।


दूषित जल इस रोग के फैलाव का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है, मल त्याग के बाद हाथों को ठीक से न धोना और पीने के पानी को छू लेना, पीने के पानी के स्त्रोत जैसे कुएं, नदी, तालाब या नल के पास ही शौच स्थान का होना जहां से पानी को दूषित होने में आसानी हो जाती है। मल-मूत्र बहाकर ले जाने वाली नालियों के रिसाव व उसका जल पीने के पानी में मिलना इत्यादि अनेक कारण पानी को दूषित करने के लिये उत्तरदायी हैं।


इसी तरह उन खेतों में जहां खाद के रूप में मानव मल-मूत्र का प्रयोग किया जाता है, ये सब्जियों व फलों को परजीवों के अंडों से दूषित कर देते हैं, विशेषकर हरी पत्तों वाली सब्जियों को जो अधिकतर कच्ची खाई जाती हैं।


रोग का प्रसार- यह बीमारी एक परजीवी जिसे (एंटअमीबा डीस्टोलायटीका) कहते हैं, के द्वारा फैलती है। इस परजीवी के दो रूप होते हैं। एक तो जीव स्वयं जो आंतों में विकार पैदा करता है और दूसरा उसके अंडे जो एक व्यक्ति से दूसरे  व्यक्ति तक पहुंचते हैं। इसका परजीवी रूप केवल आंतों में ही जिंदा रहता है और मानव शरीर के बाहर मृत हो जाता है। मगर इनके अंडे काफी कड़े व मजबूत होते हैं और आसानी से नष्ट नहीं होते। ये मल के साथ शरीर से बाहर आ जाते हैं और गीले मल में दस दिनों तक जीवित रह सकते हैं।


यही अंडे जब दूषित पानी या भोजन के द्वारा पेट के भीतर पहुंचते हैं तो उदर में स्त्रावित रस में इनका ऊपरी कवच धुल जाता है और भीतरी परजीवी आजाद हो जाता है। यह परजीवी बड़ी आंत में पहुंचने के बाद एक द्रव उत्पन्न करता है जो आंत की भीतरी दीवार को खोखला कर देता है। इस खोखले भाग में जीव प्रवेश कर जाता है और वहां के आसपास के भाग को भी कुरेदने लगता है, इससे आंत में घाव पैदा हो जाते हैं इसके फलस्वरूप आंत में सूजन आ जाती है व स्त्राव होने लगता है जिससे मल पतले हो जाते हैं व उनके निकलने की मात्रा बढ़ जाती है। ये परजीवी सूखे मल में जीवित नहीं रह सकते इसलिये स्थूलांत्र और बड़ी आंत के अंतिम भाग में जहां मल अपेक्षाकृत सूखे होते हैं इस तरह के घाव पैदा नहीं हो पाते।


ये परजीवी अकेले जीवित नहीं रह सकते, इन्हें अन्य जीवाणुओं का साथ चाहिए जो इनको जीवित रखने के लिये एक विशेष वातावरण एवं भोजन तैयार करते हैं, इसलिए उन व्यक्तियों में जिन्हें कुपोषण हो, रोग प्रतिकार क्षमता कम हो या प्रतिजैविक औषधियों के सेवन से जीवाणु नष्ट हो गये हैं, इस बीमारी से ग्रसित होने का खतरा अधिक होता है।


सामान्य तौर पर ये परजीवी आंतों में ही निवास करते हैं और वहीं पलते, बढ़ते रहते हैं। जब आंत का भीतरी वातावरण इनके अनुकूल हो तो ये असंख्य रूप से अपना कार्य करते रहते हैं मगर उपचार के पश्चात या प्रतिकारक शक्ति के मजबूत हो जाने की दशा में ये अंडों को जन्म देकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं मगर इनके अंडे पूर्ववत् हर मल त्याग के साथ बाहर आते रहते हैं।


किंतु कभी-कभी  ये  परजीवी आंत की दीवार में स्थित रक्त वाहिनियों में प्रवेश कर रक्त में मिल जाते हैं जहां से ये यकृत (लीवर), फेफड़ों, दिमाग, प्रजनन अंगों या त्वचा तक पहुंच सकते हैं और विकार पैदा कर सकते हैं।


लक्षण- अंडों को आंत में प्रवेश करने के बाद करीब दो हफ्ते लगते हैं जब वह लक्षण दिखाना शुरू करते हैं।


मरीज को पेट में मरोड़ उठती है और दो या उससे अधिक पतले दस्त लगते हैं। इन दस्त में श्लेष्मा आम तौर पर मौजूद होती है तो कभी-कभी खून भी दिखाई देता है। मल की दुर्गन्ध बहुत महसूस होती है और अक्सर उसमें झाग दिखाई देता है।


कुछ व्यक्तियों को पेट फूलना और बार-बार गैस निकलना जैसी तकलीफ भी महसूस होती है।


कभी पतले दस्त के बीच एक दो दिन कब्ज होना और मल सूखे और कड़े होना जैसे लक्षण भी इस बीमारी में आम है।


रोग की अधिकता में बुखार, भूख न लगना, कमजोरी भी महसूस की जाती है।
आंतों में उत्पन्न घाव में यदि जैविक संक्रमण हो जाय तो स्थिति और भी बिगड़ जाती है। ऐसे में दस्त की मात्रा बढ़ जाती है, दस्त पतले व खून से लिपटे होते हैं। ऐसे में शरीर में पानी की कमी (डीहाइड्रेशन) हो जाती है। मरीज को अस्पताल में दाखिल कराना जरूरी हो जाता है।
कुछ व्यक्ति मसालेदार भोजन, दूध और दूध से बने पदार्थों के सेवन के बाद इन लक्षणों में तीव्रता महसूस करते हैं।


रोग और जटिलताएं- रोग के समय पर उपचार न करने पर निम्नलिखित पेचीदगियां उत्पन्न हो सकती है।


आंत के घाव का फूट जाना- परजीवी आंत में जो घाव पैदा करते हैं, यदि उनकी गहराई बढ़ती जाये तो एक समय ऐसा भी आता है जब यह घाव आंत को चीर डालें और फूट कर बाहर निकल आये, ऐसे में आंतों में जमा दूषित अन्न, परजीवी एवं अन्य जीवाणु पूरे पेट में फैल सकते हैं जिससे गंभीर नुकसान हो सकता है।


घाव से रक्त स्राव- वैसे तो इन घावों से मामूली रक्त स्राव होता ही रहता है और मरीज रक्ताल्पता का शिकार हो जाता है। मगर कभी-कभी यही घाव रक्त वाहिनी तक पहुंचकर भीषण रक्तस्राव उत्पन्न कर सकता है।


ट्यूमर की उत्पत्ति- परजीवों द्वारा उत्पन्न घाव के इर्द-गिर्द नवकोशिकाएं जन्म लेती हैं, यदि ये कोशिकाएं तेजी से बढऩे लगे तो वे परजीवों पर, अन्य जीवाणुओं एवं आसपास के मज्जा तंतुओं को अपने आप में समा लेती हैं। ऐसे में उस स्थान पर पिंड तैयार हो जाता है जो आंत को अवरूद्ध कर सकता है।


यकृत में घाव- जैसा कि पहले बताया गया है कि परजीवी रक्त वाहिनी द्वारा यकृत में भी पहुंच सकते हैं।


यहां पहुंचकर ये एक भाग को नष्ट कर उसे खोखला कर देते हैं। जिनमें पीब भर जाता है।
अन्य अंगों में प्रसारण- यकृत से ये परजीवी फेफड़ों में निमोनिया, हृदय के आवरण पटल में संक्रमण, दिमाग में ट्यूमर, त्वचा में घाव और मूत्रपिंडों में संक्रमण पैदा कर सकते है।
उपचार- रोग निदान के लिये मल परीक्षण किया जा सकता है। जिसमें परजीवी और उनके अंडे दिखाई पड़ सकते हैं।


इस बीमारी के लिये आमतौर से मेट्रानिडाझोल, टीनाडाझोल और डायलेक्सनेट फ्यूरेट जैसी दवाइयां इस्तेमाल की जाती हैं।


इसके अलावा सादा ताजा पकाया भोजन, फलों का रस, आलू व चावल, ब्रेड, बिस्किट व अंडे दस्त की मात्रा को कम कर, स्फूर्ति प्रदान करते हैं।


इस बीमारी के लक्षणों से पीडि़त मरीजों से दस गुना अधिक ऐसे व्यक्ति है जो स्वयं इन लक्षणों को महसूस नहीं करते मगर अपनी आंतों में इन परजीवों के अंडों को असंख्य रूप में पैदा कर अपने मल के साथ नित्य इन्हें खुली जगह में छोड़ते रहते हैं। बीमारी की रोकथाम ही रोग मुक्त होने का सबसे सरल उपाय है।