मनुष्य का दुर्भाग्य है कि वह कुसंगति में पड़कर जब दुर्जनों के व्यवहार को बहुत करीब से देखता है। उनकी निर्दयता के कारण उन पर विश्वास नहीं कर पाता कि किस समय वे क्या-से-क्या कर डालें? कहते हैं दुर्जनों के साथ की गई न दोस्ती अच्छी होती है और न ही दुश्मनी। वे किसी के विश्वासपात्रा नहीं होते। उनके लिए किसी की भी जान ले लेना मानो खेल होता है।
इसी कारण दुर्जन की संगति करने वाला मनुष्य सज्जनों पर भी विश्वास नहीं कर पाता। उसका मन यह बात मानने के लिए तैयार नहीं हो पाता कि कोई स्वार्थ रहित होकर भी किसी की भलाई के विषय में सोच सकता है। वे इस बात से अनजान रहते हैं कि दूसरों का सदा ही हित साधने वाले लोग सज्जन कहलाते हैं। उनके मन किसी भी जीव के लिए भिन्न भावना नहीं होती।
दुर्जनों की संगति से पीड़ित व्यक्ति सज्जनों के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाता। इसी बात को किसी विद्वान ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है कि दूध का जला छाछ को फूँक मारकर पीता है-
दुर्जनदूषितमनसः सुजनेष्वपि नास्ति विश्वासः।
बाल पायसदग्धो दध्यपि फूतकृत्य भक्ष्यति।।
अर्थात दूषित मन वाले दुष्ट लोग सज्जनों पर भी विश्वास नहीं करते जिस प्रकार गरम दूध से जला हुआ बच्चा दही को भी फूँक मारकर खाता है अथवा छाछ को फूँककर पीता है।
दुर्जनों की संगति में रहने वाला हर मनुष्य उनके ही रंग में रंग जाता है। वह भी कठोर व निर्दय बन जाता है। अपना स्वार्थ साधना ही उसका एकमात्रा लक्ष्य होता है। उसके इस लक्ष्य में जो भी बाधक होता है वह उसे गाजर-मूली की तरह काट फैंकता है। दया, ममता और सहानुभूति जैसे शब्द उसके शब्दकोश में मानो निकाल बाहर कर दिए जाते हैं। यदि वे इन मानवोचित गुणों का पालन करते रहें तो कठोर व निर्दय नहीं बन सकते।
इनके विपरीत सज्जन अपने सद् गुणों के कारण ही महान बनते हैं। उन पर आँख बंद करके विश्वास किया जा सकता है। सभी लोग एकस्वर से उनको सज्जन इसीलिए कहते हैं कि वे बिना किसी निजी स्वार्थ के सबसे जुड़ते हैं।
उनके लिए सभी जीव अपने होते हैं, कोई भी पराया नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो- ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ इस उक्ति को चरितार्थ करते हैं जिसका अर्थ सारी पृथ्वी अपना घर है। जब सारी धरती अपनी है तो वहाँ रहने वाले सभी जीव भी तो अपने होते हैं।
सज्जनों की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि वे हर किसी के दुख-दर्द में स्वयं ही शामिल होते हैं। उनके पास कोई भी कैसी भी समस्या क्यों न लेकर जाए, उसे निराश नहीं करते। सबके रहस्यों को सदा ही गुप्त रखते हैं और किसी के भी समक्ष उन्हें प्रकट करके उसे तिरस्कार का पात्रा नहीं बनने देते।
दुर्जनों में सज्जनों जैसी विशेषताओं का अंश मात्रा भी गुण नहीं होता। उन्हें तो हर किसी की छिछालेदार करने में आनन्द आता है। ऐसे दुर्जन मित्रों से सदा ही सावधान रहना चाहिए क्योंकि वे किसी के सगे नहीं होते। केवल स्वार्थ पूर्ति उनका लक्ष्य होता है उसके बाद तो वे पहचानने से भी इन्कार कर देते हैं। उनके साथ मैत्रा हमेशा मनुष्य के पतन का कारण होती है। इस बात को भूलना उसकी भूल कहलाती है।
सज्जनों पर अविश्वास करके मनुष्य स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा कार्य करता है। उसे सज्जनों और दुर्जनों के स्वभाव का अंतर समझना चाहिए और उसी के अनुरूप ही उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।