जंगलों में तरह-तरह के जानवर रहते हैं. वृक्ष की टहनियां हों या मोटे तने, पहाड़ की गुफाएं हों या चट्टानों की ओट, पेड़ों से घिरा मैदानी भाग हो या घनी झाडिय़ां, पानी का जमाव हो या तेज बहती नदियां – सभी जगह जंगली जानवर पाये जाते हैं। आवासीय विभिन्नताओं के साथ ही इनके स्वभाव में भी भिन्नताएं पायी जाती हैं। इनका जीवन भी मनुष्य की भांति सह-अस्तित्व पर आधारित होता है।
लंगूर जंगलों में जिन वृक्षों के ऊपर कूदते-फांदते हैं, उसके नीचे हिरणों को कुलांचे भरते देखा जा सकता है। लंगूरों द्वारा तोड़े गये कुछ पत्ते या फल नीचे गिर जाते हैं, जिन्हें हिरण खा जाते हैं।
ऊंची टहनियों पर बैठे रहने के कारण लंगूरों और बंदरों को हिंसक जानवरों के आगमन की सूचना पहले मिल जाती है. वे सावधान होकर किलकना बंद कर देते हैं। उनकी किलकारियां बंद होते ही हिरणों में अलार्म कॉल बज उठता है और वे भी सावधान हो जाते हैं। जंगल में सभी जानवरों का अपना-अपना अलार्म कॉल होता है, जिसे वे समझते हैं और खतरे से सावधान हो जाते हैं। एक जानवर दूसरे जानवरों के अलार्म कॉल की भाषा भी समझते हैं।
जंगल में जानवरों का आवास पानी के निकट होता है। इसलिये जल-स्रोतों के आसपास जानवरों को आसानी से देखा जा सकता है। जो जानवर जल-स्रोत से दूर रहते हैं, वे भी वहां जल पीने आते हैं। हाथी को एक बार में काफी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। बाघ जब भर पेट खा लेता है तो घंटे-दो-घंटे पर ही उसे प्यास लगने लगती है. इसलिये खाने के बाद बाघ पानी के निकट करीब एक सौ मीटर के अंदर ही आराम करता है।
हाथी वैसे जंगल में रहना पसंद करता है, जहां उसे भरपूर भोजन और पानी मिल सके तथा साथ ही नमकीन मिट्टी भी मिल सके। हिरणों को भी नमक की जरूरत पड़ती है। इसीलिये चिडिय़ाघरों या अभ्यारण्यों में हिरणों के लिये जगह-जगह नमक की ईंटें तार से बांध कर लटका दी जाती हैं।
सिंह के शिकार करने का ढंग बहुत निराला होता है। सिंह शिकार को घेरता है, जिसे सिंहनी अपना शिकार बनाती है। मारे गये शिकार में से सबसे पहले सिंह खाता है। उसके भर पेट खाकर हट जाने पर सिंहनी खाती है और तब छोटे बच्चे खाते हैं. अंत में जो शिकार बच जाता है, उसे सियार आदि अन्य आनवर खा जाते हैं।
तेंदुआं अपना शिकार पकडऩे के बाद उसे पेड़ पर ले जाता है। वह मोटे तनों की जोड़ पर शिकार को टिका कर रख देता है और उसे आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा खाते रहता है। भेडिय़ां और जंगली कुत्ते समूह बना कर शिकार करते हैं।
जंगल में हाथी झुंड में पाये जाते हैं। अनुभवी और बुजुर्ग हाथी झुंड में आगे-आगे चलता है। अधिकतर झुंड का नेतृत्व हथिनी करती है। बच्चों को झुंड के बीच में रखा जाता है। बंदरी अपने बच्चा को पेट से चिपका कर तब तक घूमती रहती है, जब तक बच्चा बड़ा और पूर्ण समझदार नहीं हो जाये। शायद बंदरों की देखादेखी ही आदिवासी क्षेत्र की महिलाएं भी बच्चों को शरीर से बांधे रहती हैं। यह बात दूसरी है कि वे बदंरियों की तरह पेट से नहीं सटा कर पीठ से बच्चों को बांधे रहती हैं।
विचरने के लिये कुछ जानवर रात में निकलते हैं तो कुछ दिन में। कुछ जानवर रात और दिन दोनों में निकलते हैं। रात में मुख्यत: मांसाहरी जानवर घूमा करते हैं, जबकि शाकाहारी जानवर दिन में घूमा करते हैं. प्राय: सभी पक्षी दिन में घुमा करते हैं। लेकिन उल्लू ऐसा पक्षी है जो रात के अंधेरे में ही बाहर निकलता है। इस तरह के रात्रिचर कुछ और पक्षी हैं. रात में प्राय: सभी जानवरों की आंखें चमकती हैं। जो जानवर मांसाहारी होते हैं, उनकी आंखें लाल-पीली चमकती हैं. शाकाहारी जानवरों की आंखें नीली-हरी चमकती हैं। मांसाहारी और शाकाहारी जानवर पानी को जीभ से चाट कर पीते हैं, जबकि शाकाहारी जानवर पानी सुड़क कर पीते हैं।
जानवरों की देह की बनावट भी अलग-अलग होती है। कुछ जानवरों की देह मोटी और मजबूत खाल से ढंकी होती है। मगर कुछ की देह मुलायम होती है। गेंडे का शरीर तो ऐसा लगता है जैसे वह अपनी देह पर जगह-जगह ढाल लगाकर रखा हो। कछुए का शरीर भी मोटे और बड़े कवच में छिपा होता है। बज्रकीट का शरीर कड़े शल्कों से घिरा होता है। चींटी और दीमक की मांद में वह निर्भयतापूर्वक आ-जा सकता है। साही की देह पर लंबे-लंबे कांटे होते हैं, जिनसे वह दुश्मनों से अपनी रक्षा करता है।
गिलहरी, बंदर, लंगूर आदि जानवर पेड़ की टहनियों पर रहते हैं। हिरण झाडिय़ों में रहता है. बाघ घने जंगल के बीच स्थित मैदानी क्षेत्र में रहता है। मछली का जीवन जल में बीतता है। जबकि घडिय़ाल और मगर जल और स्थल दोनों जगह रहते हैं। खरगोश बज्रकीट, गोह, साही, सियार, लोमड़ी आदि जानवर बीवर में रहते हैं।
एक तरफ जंगल में हाथी जैसा विशालतम स्थलीय जानवर पाया जाता है तो दूसरी ओर चूहे से भी छोटे जानवर पाये जाते हैं। हाथी समतल और चढ़ान पर जितनी तेजी से दौड़ता है, ढ़लान की ओर चलने में उसे उतनी ही परेशानी होती है। चूहा जैसा छोटा प्राणी धरती के नीचे ढ़ाई हजार मीटर तक जा सकता है, जबकि मनुष्य अभी तक उसकी चौथाई गहराई तक ही जा पाया है।
जिर्राफ की गरदन बहुत लंबी होती है। चमेलियन और गिरगिट आवश्यकतानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। सभी जानवरों की दोनों आंखें एक साथ घूमती हैं, लेकिन सांप आदि रेंग कर चलने वाले अर्थात् सरिसृपी जानवरों की आंखें एक-एक कर अलग-अलग दिशाओं में स्वतंत्र रूप से घूम सकती हैं।
कुछ जानवर दौड़ कर शिकार करते हैं तो कुछ छलांग लगा कर। मेंढ़क और चमेलियन एक जगह बैठे-बैठे ही अपना शिकार पकड़़ लेते हैं, क्योंकि इनकी जीभ काफी लसदार और लंबी होती है। इनकी जीभ की जड़ मुंह में आगे की ओर होती है, जो उलट कर शिकार से सट कर उसे पकड़ लेती है। कुछ जानवर शिकार को अपनी श्वांस द्वारा खींच कर पकड़ते हैं।
सारस और मैनी एक पत्नीव्रती पक्षी हैं। नर या मादा के मर जाने पर जोड़ा का बचा हुआ पक्षी अपना बाकी जीवन एकाकी ही काट लेता है। यह विशेषता दूसरे सभी पक्षियों में नहीं पायी जाती।
कोयल अपना घोंसला नहीं बनाती। वह अपना अंड़ा कौवे के घोंसले में देती है। चातकी का अंडा सतबहिनी के अंडे से मिलता-जुलता है। चातकी भी घोंसला नहीं बनाती और सतबहिनी के घोंसले में अंडा दे देती है। बया पक्षी कीचड़ और रेशेदार पत्तियों की सहायता से बहुत ही कलात्मक और मजबूत घोंसला बनाता है। मादा धनेस अंडा देने के बाद घोंसला के अंदर बंद हो जाती है. केवल उसकी चोंच बाहर निकली रहती है। जिससे नर धनेस उसे भोजन कराता है।
मनुष्य में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक सुंदर होती हैं. लेकिन जानवरों में यह स्थिति उल्टी होती है। सिंह की गरदन के पास लंबे-लंबे बाल पाये जाते हैं, जिसे केसर या अयाल कहा जाता है। यह अयाल सिंहनी में नहीं पाया जाता। अयाल के कारण सिंह बहुत आकर्षक लगता है। मोर के पंख काफी लंबे और आकर्षक होते हैं. लेकिन मोरनी देखने में बदसूरत लगती है। हिरणों में सींग की तरह आकर्षक एंटलर हुआ करते हैं, जो हिरणियों में नहीं पाये जातें। हाथी के लंबे-लंबे दो बाहरी दांत होते हैं, जो उन्हें आकर्षक बनाते हैं। ऐसे दांत हथिनी को नहीं होतें।
किसी को नुकसान पहुंचाना जंगली जानवरों का ध्येय नहीं होता। छेडऩे पर ही वे मजबूर होकर हिंसक हो जाते हैं. बिना छेड़े हिंसक हो जाना जानवरों का स्वभाव नहीं, अपवाद है।