मंदाकिनी बताती है केदारनाथ का रास्ता

यात्राएं मुझे हमेशा से लुभाती रही है। यही कारण है कि   कालेज के दिनों में स्कूटर से तीन बार बद्रीनाथ और एक बार केदारनाथ की यात्रा की। बद्रीनाथ यात्रा के दौरान हेमकुण्ड साहिब और फूलों की घाटी के भी  दर्शन किए।


पहाड़ तो जन्म से ही मुझे प्रिय हैं। हो भी  क्यों न, ऊँची ऊँची पर्वतमालाओं, मनोरम झीलों, गुफाओं, सरित तटों, कल कल करते झरने, रंग बिरंगे उद्यानों, विपुल आखेटक स्थलों और आसमान में कलरव करते पक्षियों के झुंड से पहाड़ परिपूर्ण है। इन खूबसूरत वादियों में पैदा हुआ मैं, एक दिन इन्ही में समा जाना चाहता हूँ।


अधिकांश पर्यटक केदारनाथ की यात्रा हरिद्वार से शुरू करते हैं। कुमाऊं के रास्ते  बहुत कम लोग जाते है पर मैं इसी रास्ते से जाने को विवश हूँ।  नब्बे के दशक में मैंने यह यात्रा स्कूटर से की। केदारनाथ मेरे निवास स्थान से तकरीबन पौने चार सौ किलोमीटर दूर है।  मैदानी क्षेत्र से पहाड़ की ओर चले  तो प्रकृति व वातावरण में अथाह परिवर्तन है। ऊंचे आसमान छूते पहाड़, गहरी घाटियाँ, सर्पिला मार्ग, ठंडी हवाओं का झोंका ,निर्मल बहती नदियों का स्वर, मकानों की छतों से निकलता धुआं, सीढ़ीदार खेत, सब कुछ मन को मोह लेने वाला।


सुबह सात बजे हमने यात्रा आरंभ की। आठ बजे हम गरमपानी पहुँच जाते हैं। हल्का नाश्ता और फिर रानीखेत की ओर चलना। चढ़ाई शुरु हो जाती हैं। सुबह का समय होने के कारण इक्का दुक्का वाहन ही नजर आते हैं। अचानक हमारे आगे चल रही बस ने ब्रेक लगाए। मैंने देखा  घबराया हुआ एक बछड़ा उछल कूद कर रहा था। ड्राईवर कुछ बड़बड़ाता है पर नया नया आया शिव का नंदी बसों के बारे में क्या कुछ जानता होगा। सड़क के बांई ओर पहाड़ है तो दाई तरफ छोटी नदी। ऊपर पहाड़ी पर चित्र लिखित लगते एक घर में रहने की इच्छा मेरे मन मे सिर उठाने लगती हैं।


ग्यारह बज चुके है और हम रानीखेत में है। यहां से 56 किलोमीटर दूर है कत्यूरीयो की नगरी द्वाराहाट। दूर दूर तक  मंदिर बिखरे पड़े हैं। यहां भोजन करने के बाद हम गनाई की ओर चल पड़ते है। कभी सीधी चढाई तो कभी ढलान,  फिर एकाएक तीव्र मोड़। पग पग पर लगता है जैसे सड़क मेरी ड्राइविंग की परीक्षा ले रही है।


दोपहर हो चुकी है पर बादलों के छाने के कारण सूरज लगातार आंख मिचौली खेल रहा है। चिडिय़ों की चहचहाट, पत्तों की सरसराहट और रंग बिरंगे फूलों से सुवासित वातावरण से मन प्रफुल्लित हो जाता है। मेरे लिए यह यात्रा भले ही कौतूहल से भरी हो, पर यहाँ के निवासियों के लिए जीवन चट्टानों के समान एक कठोर संघर्ष है। इस संघर्ष के कारण ही लोग पलायन करने को विवश है।


आगे एक मोड़ पर हम रुक जाते है। इस मोड़ के नीचे प्रकृति अपने बाल खोले सुंदरता के सारे खजाने दिखाते नजर आती हैं। बारिश के आसार होने पार एक टिटहरी टी-टी करती आकाश का चक्कर लगाती शायद अपने साथी को खोज रही थी। मेरा मन हुआ इन खूबसूरत वादियों में मैं भी  आकाश के चक्कर लगाते हुए  सौन्दर्य का रसपान करुँ। इस प्राकृतिक छटा का वर्णन नहीं हो सकता। मेरे जेहन में गोपाल बाबू गोस्वामी का एक पहाड़ी गीत घूमने लगता है और उसे गुनगुनाते हुए हम आगे बढ़ चलते हैं। गनाई से आगे हम पहुँचते है गैरसैंण। तब उत्तराखण्ड नहीं बना था , लेकिन फिजा में  इसे उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी बनाने का शोर बहुत था। सड़क के किनारे एक छोटा सा अस्पताल नजर आता हैं। मालूम करने पर पता चला डाक्टर तो है पर दवाईया नहीं। आज देहरादून को स्थाई राजधानी बना दिया गया है और गैरसैंण को गर्मियों की राजधानी बता कर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। फिलहाल सुना है अब यहाँ का थोड़ा बहुत विकास हो गया है।
सड़क से लगे धान के  एक खेत में महिलाएं शाली रोप रही है। वे  सम्मलित रुप में कुछ गा भी रही है और इस शांत वादियों में उनके मधुर स्वर जैसे मिश्री सी घोलते है।


मेरी हमेशा से यह धारणा रही है कि सुन्दर सिर्फ स्त्री होती है और पुरुष तो बस ठीक ठाक होता है। एक खेत पर नजर पड़ी तो उसकी रखवाली करने वाला पुतला औंधा पड़ा था। मैंने मन ही  मन सोचा रखवाली करने वाले हर जगह इसी तरह औंधे ही पड़े हैं।


यहाँ से आगे प्रकृति के नजारे अप्रतिम है। इस भूखंड को प्रकृति ने पूर्ण मनोयोग से सजाया संवारा है।


आगंतुक श्रृद्धालु के लिए यह कौतहूल तो घुमक्कड़ सौन्दर्य पिपासु पर्यटक के लिए यह स्वर्ग से कम नहीं है। मेरे जैसे  प्रकृति प्रेमी व्यक्ति के लिए घुमावदार पहाडियों पर पग पग पर बिखरे सौन्दर्य के  रोमांच का दोपहिया वाहन द्वारा जितना आनंद लिया जा सकता है, उतना किसी अन्य माध्यम द्वारा नहीं। ढलानदार पहाडियों पर सर्पाकार दौड़ती सडक कभी  रोमांच तो कभी मस्ती भर देती है।


गैरसैंण से 13 किलोमीटर आगे है आदिबद्री। पंचबद्रीयों में से एक। मंदिरो का समूह,  बिलकुल जागेश्वर के मंदिरों से मिलते जुलते। कभी यहाँ  सौ मंदिर थे , पर आज तेरह ही शेष रह गए हैं। मंदिर के दर्शन करने के बाद दो बजे हम पहुँचते है, कर्णप्रयाग। प्रयाग यानी  नदियों का संगम। यहां  पिंडर नदी अलकनंदा नदी से मिलती है। केदारनाथ के लिए हमें यहाँ से हरिद्वार वाली सड़क पर रुद्रप्रयाग तक जाना है, जहाँ से एक रास्ता गुप्तकाशी होते हुए  केदारनाथ को जाता है, तो दूसरा हरिद्वार को।


अरुणोदय की बेला में यहाँ पहाडियों पर पुष्प वाटिकाओं की मदमाती महक के बीच में  घाटी की सुषमा की रंगत देखते ही बनती है। पूर्व में जब उषा  अपनी लालिमा बिछा रही हो तब निशा अपनी  श्यामल साड़ी समेटे हुए तिरोहित हो जाती हैं। लाल पीले पुष्प जडि़त वस्त्र परिधान ओढ़े धरती का अभिसारिका जैसा रुप यहाँ  परिलक्षित होता है। बादलों के पीछे आंख मिचौली खेलता रक्तिम रवि अपनी स्वर्णिम रश्मि से प्रकृति के कपोलों पर हल्की सी चपत मारता हुआ  प्रतीत होता है और  प्रकृति लज्जा से शरमाती अंगडाई लेकर स्वत: अपने  प्रियतम की  बांहों मे समा जाती है। इस चित्ताकर्षक दृश्य से सम्मोहित होकर अभिभूत सा मैं स्कूटर स्टार्ट कर आगे चल पड़ता हूँ।


रुद्रप्रयाग में हमारी मुलाकात मंदाकिनी से होती है। भले ही नदी और हम विपरीत दिशा में जा रहे हो, पर ऊंचे पहाड़ों से घिरे इस रास्ते मेें बाल सुलभ क्रीड़ा करती यह नदी मुझे जैसे हमेशा के लिए अपने मोहपाश में बांध लेती है। रुद्रप्रयाग से आगे मंदाकिनी नदी असंख्य कंकरों को शिव बनाकर नहलाती अपने पारदर्शी व्यक्तित्व से सबको अपनी ओर आकर्षित करती है।


यहाँ से यात्रा हरियाली के छोरों को छूते हुए, चक्कर काटती सडकों पर मोड़ो से समझौता करते हुए नदी की मंत्रों उच्चारण करती फेनिक धारा के साथ साथ आगे बढती है। कई बार नदी  हमारे समानांतर होते हुए इतने समीप नजर आती हैं कि हाथ बढ़ाकर  छू लें। धीरे-धीरे ऊंचाई को नापते हुए यात्रा अपने अगले सोपान पर पहुंचती है। यह सोपान है गुप्तकाशी।
  गुप्तकाशी को गुहाकाशी भी कहते हैं। काशी यानी शिव की नगरी। गुप्तकाशी मे भगवान शिव अर्धनारीश्वर के रुप में विराजमान है। यहां से 20  किलोमीटर आगे बढ़े तो पहुँचते हैं- स्वर्णप्रयाग, जहाँ  स्वर्ण गंगा की धारा मंदाकिनी नदी से मिलती है। बहुत ही रमणीक जगह है। शांत, जहाँ  यात्रा के दिनों में ही चहल पहल नजर आती हैं। सड़क कम चौड़ी है,  इसलिए संभलकर चलना जरुरी है। मंदाकिनी पार करने पर आगे नारायणकोटि गाँव है। यहां प्राचीनकाल की देव मूर्तियां खंडित अवस्था में पाई गईं हैं। किसने इन्हे खंडित किया,  यह अभी तक शोध का विषय बना हुआ है।


अंधेरा होते होते हम गुप्तकाशी से 39 किलोमीटर आगे गौरीकुण्ड पहुँच जाते हैं। ठंड बढ़ रही है और शरीर ठिठुरने लगा है। इसकी ऊंचाई 6800 फुट है। आपदा के बाद इस सुन्दर जगह का आज नामोनिशान नहीं बचा। आपदा के बाद मैं केदारनाथ की यात्रा नहीं कर पाया हूँ। हर साल जाने की सोचता हूँ पर लगता है भोलेनाथ का बुलावा अभी नहीं आया है।


 गाडिय़ों के बीच में मै स्कूटर खडा कर देता हूँ। गाडिय़ों के लिए कोई स्टैंड न होने के कारण वाहन जहाँ तहाँ बेतरीब ढंग से खड़े कर दिए गए हैं। सड़क समाप्त होते ही सीढियां शुरु हो जाती हैं। इन सीढिय़ों के दोनों ओर अनेक होटल, लॉज व धर्मशालाए पहाड़ी पर मानो अटके हुए हैं। एक कमरा हम भी बुक कर लेते हैं। शायद छह सौ रुपये में। गौरीकुंड माता पार्वती के स्नान करने की जगह बताया जाता है। यहां पार्वती का छोटा मंदिर भी  दिखा। गौरी पार्वती का ही दूसरा नाम है। यहां दो कुण्ड है। तप्तकुण्ड , जो गरम पानी का है और दूसरा ठंडे पानी का। ठंडे कुण्ड के समीप लोग अपने  पितरों का श्राद्ध करते है।


सुबह आसमान साफ है और दृश्य बहुत ही सुन्दर है। सूरज की प्रथम किरणों की अरुणिमा से प्रकृति  ने श्रृंगार किया है। ऐसा लग रहा है मानो कोई रुपसी नृतकी मचलती ठुमकती और  इतराती चली जा रही है।


ठीक सामने आकाश छूते पहाड़ है तो दाई ओर मंदाकिनी नदी का शोर।
गौरीकुंड से 14 किलोमीटर दूर मंदाकिनी घाटी में पावन स्थल केदारधाम है। पैदल चलने में  असमर्थ यात्रियों के लिए खच्चर व डोली की व्यवस्था है। गौरीकुंड से केदारनाथ तक घोड़ा करने पर तब तीन सौ रुपये देने होते थे और वापसी पर दो सौ। अब तो दाम बढ गए होंगे। हमें इसकी  जरुरत नहीं। हम दोनों पैदल ही रास्ते भर के सौन्दर्य का रसपान करना चाहते हैं। तप्त कुण्ड में नहा कर  सात बजे हम अपनी पैदल यात्रा शुरू करते हैं।


कुछ  ही कदम आगे बढे तो घोड़ो,  खच्चरों की लीद जैसे हमारा स्वागत करती है। खच्चर भी किसी साधक से कम नहीं है। बस चल पड़ते है चुपचाप बोझ लादे शिव से मिलाने। चाहे बीमार हो या मौसम खराब इन्हें तो चलना ही है। दिन भर ऊपर नीचे कई कदम नापने के बाद ही शाम को गौरीकुंड में  अपना पेट भरते हैं। अश्व तथा गधे के विपरीत मेल से खच्चर का जन्म होता है। कहते हैं कि खच्चर को अन्य जानवरों की तरह दैहिक भूख भी  नहीं होती। बिल्कुल बैरागी। जैसे इसे दीन दुनिया से कोई मतलब ही नहीं। वह तो अपने सवार तथा अपनी जान के मोह से भी  मुक्त होता है। सलाम इनको।


तकरीबन 7 किलोमीटर आगे है- रामबाडा (आपदा में  इसका भी  नामोंनिशान नहीं  रहा) यहाँ गढ़वाल मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस दिखा। कुछ अन्य होटल तथा  धर्मशालाएं भी है। रास्ते के दोनों ओर छोटी-छोटी खान-पान की दुकानें,  जो ज्यादातर  आसपास के गांव के लोगों की है। अनेक यात्री पहले दिन यहीं  विश्राम करते हैं और दूसरे दिन आगे बढ़ते हैं। मैं भी कुछ टाफियां और थोड़े से चने खरीदता हूँ। मेरा साथी मुझ से आगे निकल चुका है। शायद  मै थोड़ा थक गया हूँ। धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाता हूँ। मेरी मुलाकात गुजरात से आई दो बच्चियों से होती हैं। साथ में माता पिता भी है। बच्चियाँ काफी थकी हुई नजर आती है। उन्हें टाफियां देते हुए मैं आगे बढने का हौसला देता हूँ।


कुछ दूर मैं उनके साथ चलता हूँ लेकिन जल्दी ही आगे बढ़ जाता हूँ क्योंकि मंदिर के दर्शन कर शाम तक हमें  गौरीकुंड लौट आना है।


पिछले एक किमी से हम खड़ी चढाई चढ रहे हैं। दोपहर के बारह बज रहे है। धूप है पर ठंड भी क्योंकि बर्फीली हवा बह रही है। थकान भी बहुत हो रही है। अरे, यह तो समतल जगह आ गई। ठीक सामने केदारनाथ मंदिर नजर आ रहा है।  मंदिर के ठीक  पीछे बर्फ  से ढके शिखर मन मोह लेते हैं। केदारनाथ धाम की ऊंचाई 3581 मीटर है। शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में  एक केदारनाथ को  स्कंद पुराण और शिव पुराण में केदारेश्वर भी कहा गया है।


महाभारत युद्ध के बाद पांडव गौत्रवध पाप से मुक्ति के लिए भगवान शिव के दर्शन हेतु यहाँ आए और तप किया। पांडवों की परीक्षा लेने के लिए शिव ने महिष ( भैंसे) का रुप धारण किया लेकिन पांडवों ने उन्हें पहचान लिया। भीम ने महिष का पीछा किया। उसके छूते ही भगवान का महिष रुप पाँच भागों में विखंडित हो गया। केदारनाथ में शरीर का पृष्ठ भाग गिरा। यहां मंदिर के भीतर गर्भगृह में लिंग न होकर एक टेढी चट्टान के रुप मे मौजूद प्रतिमा की पूजा अर्चना की जाती है।


मंदिर के पीछे केदार पर्वत की सीना ताने बर्फीली चोटियां खड़ी है। यहीं से मंदाकिनी नदी निकलती है। लोग यह भी कहते हैं कि इधर से ही पांडव अपनी अंतिम यात्रा पर गए थे। हालांकि ज्यादातर लोग बद्रीनाथ से माणा गाँव होते हुए जाने की बात कहते है।


केदारनाथ से थोड़ी दूर पर महापंथ चोटी है। इसे स्वर्ग का रास्ता माना जाता है। स्वर्ग की सुषमा से भरा यह स्थान यदि स्वर्ग का रास्ता मान लिया गया है, तो इसमे अतिशयोक्ति क्या?
मंदिर के मुख्य द्वार के आगे शिव के गण नंदी की बड़ी मूर्ति है। इतनी ऊंचाई पर बने मंदिर की सादगी लिपटी भव्यता देखते ही बनती है। द्वार के दोनों ओर दो द्वारपाल है और दर्जन भर अन्य मूर्तियां है। मंदिर के पीछे आदि गुरु शंकराचार्य की समाधि बनी है। समाधि स्थल एक मंदिर के रुप में है, जिसके भीतर आदि गुरु शंकराचार्य की छोटी प्रतिमा स्थापित है। हम इस महापुरुष के आभारी हैं जिसने अल्पायु में ही हमारे तीर्थ स्थानों का उद्धार कर, उनको पुन: प्राण प्रतिष्ठा प्रदान की।


तीर्थंयात्रा मंदाकिनी के साथ चले या अलकनंदा के, सभी भाईचारे और मानवता का संदेश देती है। शाम सात बजे हम अपने होटल में थे , थकान से चूर। बिस्तर पकडते ही गहरी  नींद के आगोश में। पर रात एक बजे अचानक आंख खुल गई। पता  चला भूकंप का हल्का झटका आया था। डर भी लगा। सुबह अपने होटल की खिड़की से बाहर देखा तो सूरज की पहली किरण बादलों को चीरते हुए सामने स्थित हिम शिखर को सुनहरे रंगों से भर रही थी। लगता था जैसे किसी नववधू ने खुद ही अपना घूंघट पलट दिया हो और देखने वाला पूर्ण चन्द्र की तरह दिखते उसके चेहरे को देखता ही रह जाए। यही  शिव की नगरी है। कुल मिलाकर केदारनाथ की यात्रा,  तीर्थयात्रा तो है ही, यहाँ  बिखरा प्रकृति का अद्भुत सौन्दर्य भी  अंजुली भर भर पीने की इच्छा होती है। और  फिर यादों को संजोये हम चल पड़ते हैं बद्रीनाथ की ओर  भगवान  विष्णु से मिलने।