देवभूमि उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल-हरिद्वार

देवभूमि उत्तराखण्ड अपनी धार्मिक महत्ता के लिए विश्व विख्यात है। यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने इस भूमि को अपनी आराधना के लिये चुना।

 

उत्तराखण्ड के चार धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री है। इसके अलावा भी अनेक पौराणिक स्थल हैं। जिसमें हरिद्वार व ऋषिकेश भी  महत्वपूर्ण स्थान है। जिनका वर्णन हमारे वेदों व धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।


हरिद्वार को स्वर्ग का द्वार भी कहा जाता है। पुराणों मे गंगा द्वारादि नाम से भी पुकारा जाता है। समुद्रतट से 1024 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह नगरी शिवालिक पर्वत की तलहटी में बसी है। हिमालय की गोद से उछलती कूदती भागीरथी यहां आकर शांत एवं सौम्यप्रकृति की हो जाती है। हरिद्वार में ही मैत्रेय जी ने विदुर को तथानारद जी ने सप्तऋषियेां को श्रीमदभागवत सुनाया था।

 

हरिद्वार में दर्शनीय स्थान-

गंगाद्वार कुशावर्ते बिल्यके नीलापर्वते।
स्नात्वा कनखल तिर्थेपुनर्जन्म न विधते।।


अर्थात गंगाद्वार कुशावर्त विल्वश्वर नीलापर्वत तथा कनखला पांच ये तीर्थ हरिद्वार में हैं। इनमें स्नान तथा दर्शन से पुर्नजन्म नहीं होता।


हरिद्वार के विभिन्न प्राचीन पौराणिक मंदिरों के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं।
जब सती के पिता ने भगवान शंकर को यज्ञ में अन्य देव-देवताओं के समान आमंत्रित नहीं किया तो सती  यज्ञ कुण्ड में कूद पड़ी। सती के आत्मदाह से भगवान महादेव क्रोधित हो उठे तथा उनके शरीर की आभा से वह स्थान नीलवर्ण होकर चमक उठा। जिस स्थान से महादेव ने यह दृश्य देखा नीलेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। नीलपर्वत पर स्थित यह सबसे प्राचीन मंदिर एवं शक्तिशाली पीठ है। श्रावण मास में यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की पिंडी विशाल एवं प्राकृतिक है जैसी अन्यत्र नहीं पाई जाती। यहां आराधना करके भक्तों को परम सुख का अनुभव होता है।


हरिद्वार में ही बिल्व पर्वत पर स्थित बिल्वकेश्वर मंदिर की कथा इस प्रकार वर्णित है कि पार्वती रूप में सती ने शंकर भगवान को पति रूप में इच्छित करते हुए यहां पर घोर तपस्या की। कठिन तपस्या के दौरान उन्होंने केवल बिल्व पत्रों पर ही गुजारा किया जो कि शिव के अत्यंत प्रिय होते हैं। कई वर्षों की तपस्या के पश्चात भगवान ने उन्हें जिस स्थान पर दर्शन दिये वह बिल्केश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मंदिर के समीप ही  गौरीकुंड भी है। ऐसी मान्यता है कि इस कुंड में स्नान करने से चर्म रोगों से मुक्ति मिल जाती है।


भीमगौडा, हरिद्वार के समीप सप्तसरोवर के नाम से जाने वाले स्थान पर किसी समय सात गोत्रों के ऋषि रहते थे, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए गंगा यहां सात धाराओं में बंटी थी। गंगा के पूर्व में देवी शक्ति पीठों में से एक चण्डी देवी का पुराना मंदिर है, इसके नीचे से नील धारा बहती है। इसी पर्वत पर हनुमानजी की माता अंजनि देवी का भी मंदिर है। चण्डी देवी के सामने ही मनसा देवी का मंदिर दिखाई देता है। हरिद्वार में आने वाले तीर्थयात्री भारी संख्या में दोनों देवियों के दर्शन करने जाते हैं।


 विष्णु तथा महेश के निवास स्थान के साथ-साथ इस तीर्थ नगरी से कुंभ नामक विशाल पर्व भी जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि एक बार देवताओं व दैत्यों में घमासान युद्ध को रोकने के सुझाव हेतु देवता तथा दैत्य विष्णु भगवान के पास पहुंचे। विष्णु जी ने दोनों पक्षों को समुद्र मंथन की सलाह दी। अत: देवताओं एवं दैत्यों ने मंदराचल पर्वत रूपी मथानी के चारों और लिपटे राजा वासुकि रूपी रस्सी को खींचना आरंभ किया। समुद्र मंथन से विष, कामधेनु कल्पवृक्ष आदि तथा अंत में अमृत कलश निकला। अमृत के लालच में राजा इंद्र के पुत्र जयंत कलश को लेकर दौड़ पड़े। रास्ते में अमृत की कुछ बूंदे धरती पर गिर गई और थकान के कारण जयंत ने जगह-जगह कलश को रखा। कहा जाता है कि जिन स्थानों पर कलश को रखा तथा जिन स्थानों पर अमृत की बूंदे छलकी या कुंभ रखा गया वही कुंभ पर्व मनाया जाता है। भारत में ही प्रयाग, उजजैन तथा नासिक के साथ-साथ हरिद्वार में भी बारह वर्ष पश्चात विशाल कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। यह पर्व कब से मनाते हैं इसका निश्चित समय ज्ञात नहीं है, पंरतु प्राचीन काल से ही यहां कुंभ के अवसर पर संपूर्ण भारत से साधु का समूह एकत्रित होता है।


ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब मेष राशि में वृहस्पति एवं चंद्रमा का प्रवेश होता है तभी कुंभ का हरिद्वार में आयोजन होता है। बारह वर्षों के पश्चात आनेवाले कुंभ पर्व की याद को ताजा रखने के उद्देश्य से प्रति 6 वर्ष पश्चात अद्र्धकुंभ का आयोजन भी किया जाता है।
हरिद्वार में स्थित ब्रह्मकुंड जहां ब्रह़माजी ने तपस्या की थी, में  स्नान करने का महत्व सदियों से रहा है। यहां के विश्व विख्यात साफ सुथरे घाट तथा श्री गंगा मंदिर अति प्रसिद्ध है। इन्हीं को हर की पैडी भी कहा जाता है। कुंभ पर्व, चंद्रग्रहण सूर्यग्रहण, सोमवती अमावस्या बैशाखी, मकर संक्रांति तथा  कुम्भ  एवं अद्र्धकुंभ के अवसर पर लाखों यात्री यहां स्नान करके पुण्य कमाते हैं।


प्रतिवर्ष अनेक त्यौहारों पर भारत के विभिन्न प्रांतों से विभिन्न वेश एवं भाषा के तीर्थयात्री करोड़ों की संख्या में यहां एकत्र होते हैं। भारतीय हिन्दू संस्कृति को संजोये रखने के साथ-साथ अनेकता में एकता की भावना इसमें समाहित है। शास्त्रों एवं पुराणों के अनुसार मृत्योपरांत कर्मकांड द्वारा अस्थि विसर्जन एंव पिण्डदान करने से मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति संभव है। गंगा के अथाह जल के महत्व को ध्यान में रखते हुए लार्ड डलहौजी ने सन् 1854 में इसके जल को कृषि उपयोग में लाने हेतु गंगनहर का निर्माण किया था।


सामाजिक संस्थाएं भी तीर्थयात्रियों के रहन-सहन तथा खाने संबंधी जरूरतों का ध्यान रखती है। देव भूमि हरिद्वार में संत महात्माओं का आगमन प्राचीन काल से लगा हुआ है। मुगलों के आक्रमण के समय सिक्खों के प्रथम गुरू गुरूनानक जी ने यहां की भयभीत जनता को शांति का संदेश दिया था। श्री गुरू अमरदास तथा स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी यहां लोगों को उपदेश देकर नवजीवन प्रदान किया। इस पवित्र नगरी तथा गंगा के प्रति लोगों की आस्था पूरे विश्व में बनी हुई है। इसलिए अनेक पर्वों पर विदेशी यात्री भी हरिद्वार आते हैं।