अपने निराले भोलेपन और किसी की तपस्या से प्रसन्न होकर मनचाहा वर दे देने की पहचान के साथ लोगों के दिलों में रचे-बसे भगवान शिव को उज्जयिनी के ”महाकाल वनÓÓ का सौंदर्य खूब भाया था। यही कारण था कि अत्यंत प्राचीन समय में पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इस वन में आ पहुंचे महादेव ने यहीं डेरा डालने का निश्चय कर लिया था।
प्राचीन समय में कुशस्थली नाम की नगरी (उज्जयिनी) के सघन एवं कई तरह के वृक्षों और उनकी लताओं से आच्छादित वन में भगवान शिव को पक्षियों का चहचहाना, हिरणों का स्वच्छंद विचरण और समूचा सौंदर्यमयी वातावरण अत्यंत मनोहारी लगा। संपूर्ण जगत के कल्याण के पक्षधर और मनुष्य समुदाय के साथ ही देवताओं को भी दुष्टों, दानवों के कोप से बचाने का जिम्मा इस वन में भी महादेव शंकर ने भलीभांति उठाया। इस जगह को भगवान शिव की मौजूदगी से ही ‘महाकाल वनÓ की पहचान एवं प्रतिष्ठा मिली।
देवाधिदेव भगवान शंकर को तलाशते ब्रह्मïाजी अन्य देवताओं के साथ इस वन में पहुंचे, जिनके श्रीचरणों से यह भूमि और सिद्घिदायी, मोक्षदायी हुई। इसीलिए भारतवर्ष के सभी तीर्थस्थलों में उज्जयिनी को सबसे प्रमुख माना गया है। मनुष्य जाति के लिए यह तीर्थ सर्वाधिक कल्याणकारी एवं लाभप्रद इसलिए भी है कि यहां सारे देवताओं का साक्षात दर्शन उपलब्ध एवं संभव है। चार कोस क्षेत्र में फैले महाकाल वन को सभी पापों का नाश करने वाला आदि क्षेत्र, पुराणों में माना गया है। यह कहा गया है कि यहां के सिद्घ क्षेत्रों में भगवान शिव सदैव क्रीड़ा करते हैं। इसीलिए महाकाल वन को काशी तीर्थ से दस गुना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है, जो तीन लोकों के उत्तम तीर्थ कुरूक्षेत्र से दस गुना अधिक कल्याणकारी है।
पुराणों के मुताबिक उज्जयिनी में पुण्यदायी क्षिप्रा के अलावा तीन अन्य नदियां नवनदी, नीलगंगा और गन्धवती प्रवाहित हुई हैं। चौरासी लिंगों के रूप में शिवजी यहां विद्यमान हैं। आठ भैरव, ग्यारह रूद्र, बारह आदित्य, छ: गणेश, आठ मातृकाएं और चौबीस देवियों की मौजूदगी वाली इस नगरी में ब्रह्माï, विष्णु आदि सभी देवता भी निवासरत हैं। यहां भगवान विष्णु के दस रूप प्रतिष्ठापित हैं, चार द्वारपाल हैं। उज्जयिनी इन पौराणिक सच्चाइयों के दृष्टिगत, देवमण्डल से व्याप्त एक सिद्घक्षेत्र है। इसीलिए भूतल के पुष्कर आदि सभी तीर्थों को उत्तम महाकाल वन में वर्तमान में बताया गया है।
भगवान शिव ने न्याय और सच्चाई की राह में विघ्न की कोशिशों को कभी कामयाब नहीं होने दिया। महाबली राक्षस रावण की अपने प्रति कठोर तपस्या से अभिभूत हो उन्होंने उसे शक्तिशाली होने का वरदान अवश्य दिया था, लेकिन इसके बूते पर उसे मर्यादाओं की सीमाएं लांघते देख भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम से उसका सर्वनाश भी कराया। इस मौके पर उन्होंने यह सत्य भी प्रतिपादित किया कि सरल हृदयता और भोलेपन से किये जाने वाले फैसलों में मनुष्य समुदाय के लिये यह जाँचना और एहतियात करना जरूरी होगा, कि शक्तियां कभी गलत हाथों में न पड़ जायें, चूंकि आसुरी शक्तियां हर युग में जोर मारती रही हैं और आगे भी विभिन्न रूपों में उत्पन्न होती रहेंगी। देवाधिदेव एवं अन्य दिव्य शक्तियां आसुरी प्रवृत्तियों से निपटने में समर्थ हैं, लेकिन आम इंसान केवल सतर्कता बरतकर इनसे सुरक्षित रह सकता है।
भगवान शिव ने देवताओं समेत समूचे मानव समाज की सदैव पूरे मनोयोग से हिफाजत की है। पृथ्वी के भ्रमण पर निकले महादेव के महाकाल वन में आगमन के समय उनके हाथों में कपाल भी था जिसे उन्होंने पृथ्वी पर ही फेंक भी दिया था। इसके पीछे उनकी मंशा का खुलासा तब हुआ जब उनकी तलाश में ही महाकाल वन पहुंचे ब्रह्मïाजी एवं अन्य देवताओं की उन्होंने यहीं रहने वाले बहुत बलवान और खूंखार हय नाम के दैत्य से हिफाजत की। महादेव को तलाशते ये देवगण उनकी आराधना में लीन थे तभी उस दैत्य के बलवान सेवक उन्हें मारने निकल पड़े थे।
शिवजी ने उन्हें बचाने कपाल फैंका जिससे पृथ्वी में जबरदस्त कंपन हुआ और दैत्य एवं उसके सभी सेवक मारे गये। इस तरह शिव ने महाकाल वन को भी दैत्यों से आजाद किया और ब्रह्मïादि देवताओं के साथ इस क्षेत्र को बसाया।
भगवान शिव ने दूसरों की भलाई में स्वयं को समर्पित करने के उत्कृष्ट उदाहरण मानव समुदाय के समक्ष रखे। असल में तो उन्हें अभिमान, दम्भ और दुराग्रहों से दूर रहने वाले भक्त ही पंसद हैं। समुद्र के देवताओं और दैत्यों द्वारा किये गये मंथन में सबसे पहले निकल आये हलाहल विष को देख, ये सभी अपना वजूद मिटने के खतरे को भांप कर भगवान शिव के ही पास पहुंचे। उन्होंने देर नहीं कर स्वयं इस विष को पी लिया। दूसरों की उन्होंने हिफाजत कर दी और विषपान से नीले पड़े शरीर के फलस्वरूप वे नीलकंठेश्वर महादेव कहलाए। समुद्र मंथन से बाद निकला अमृत देवताओं को मिलना इसलिए जरूरी था कि वे इस शक्ति से दूसरों का भला करें। दानवों के अमृत पी लेने से सर्वत्र विनाश हो सकता था। इसीलिए भगवान विष्णु को मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को ही अमृतपान कराने की कवायद करनी पड़ी। विष्णुजी ने उस वक्त असुरों से कहा भी था कि जो परोपकार करते हैं वे धन्य हैं और जो केवल अपने ही पेट भरने का काम करते हैं वे क्लेश के भागी होते हैं।
पुराणों में महाकाल वन (उज्जयिनी) और यहां प्रवाहित क्षिप्रा नदी को सर्वाधिक मोक्षदायी माना गया है। यहां सब पापों का नाश होने से इसे धर्म क्षेत्र, मातृकाओं के निवास से पीठ और मृत्यु के बाद किसी भी रूप में पुनर्जन्म न होने से इसे ऊसर कहा जाता है। हर इंसान की जिंदगी में ऐसा मुकाम अकाट्य सत्य है जब उसका मृत्यु से साक्षात्कार होना है। जो इस सत्य को स्वीकार कर जिंदगी जीते हैं वे पापों से बचते हैं। किसी की आहें लेकर और किसी के दिल को दुखाकर जीने वाले सिर्फ कुछ समय के लिये मृत्यु की सच्चाई को न स्वीकार करने के भ्रम में रहते हैं। भगवान शिव की शरण में उनकी भक्ति कर पहुंच जाना सिर्फ श्रद्घापूर्ण ज्ञान, तपस्या और योग से बहुत सहज हो जाता है। फिर वे उठा लेते हैं अपने भक्त की मुकम्मल हिफाजत का जिम्मा।
उज्जयिनी सभी देवताओं की अत्यंत प्रियस्थली प्राचीनकाल से रही है। भगवान के विभिन्न अवतारों के श्रीचरण भी इस भूमि पर आए हैं। यही कारण है कि महाकाल वन में साठ कोटि सहस्त्र और साठ कोटि शत तीर्थ विद्यमान हैं और यहां स्थापित शिवलिंग तो असंख्य ही हैं। ब्रह्मïाजी द्वारा सृष्टि की रचना के बाद इसे स्थिर रखने के लिये उनके आग्रह पर भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवंतिपुरी (उज्जयिनी) में ही प्रकट हुए और उन्हें दिये गये कुश के आसान पर विद्यमान हुए, इसीलिए इसका नाम पूर्व में कुशस्थली था।
इसी के बाद ब्रह्मïाजी और महादेव भूतल पर स्वर्णमय शिखरों से युक्त इस नगरी में निवास के लिये आये। भगवान विष्णु ने उन्हें यहां अभीष्ट स्थान दिया और तीनों देवों की यहां पर प्रसन्नता के अनुभव को देखते हुए इसे कनकगंगा का नाम दिया गया। कालांतर में कुशस्थली में स्थित पिशाचमोचन तीर्थ में अक्षय पुण्य प्राप्त करने सभी देवता पृथ्वी पर आए। जहां देवताओं और मनुष्यों समेत सभी का पालन और कल्याण हो और सभी का अवन (रक्षण) हो उस नगरी का अवंतिपुरी नामकरण हुआ। इसी क्षेत्र में महादेव ने महादैत्य त्रिपुर का महापाशुपत नामक शस्त्र से वध किया था। उन्होंने चंूकि उस दानव को उत्कर्षपूर्वक जीता था इसलिये बाद में ऋषि-मुनियों ने इस नगरी का उज्जयिनी नामकरण किया।
विष्णु अवतार श्रीराम और द्वापर में श्रीकृष्ण उज्जयिनी में अलग-अलग प्रयोजनों से आए। श्रीराम ने यहां आकर पिता की आत्मा की शांति के लिये क्षिप्रा तट पर पिंडदान किया। श्रीकृष्ण उज्जयिनी में शिक्षा अर्जन के अलावा देवराज इन्द्र से मिली सूर्यदेव की प्रतिमा को यहां स्थापित करने आये। ऐसी दो प्रतिमाओं में से एक अन्य को भिन्न दिशा में कुंतीपुत्र अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ एक ही समय स्थापित किया था।
असुरों के स्वामी तारकासुर का वध करके शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय ने अपने अस्त्र को क्षिप्रा नदी में फेंका था, जिसने पाताल तक की भूमि को विदीर्ण कर डाला था। सूर्यदेव ने क्षिप्रा तट पर दुर्घर्ष नामक तीर्थ का निर्माण किया। रामभक्त श्री हनुमान जी ने लंका में विभीषण से प्राप्त एक उत्तम शिवलिंग को अवंतिपुरी में ही महाकाल के कहने पर अपने नाम से हनुमंतकेश्वर के रूप में स्थापित किया।