जब भी बीमार पड़ूं, तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊंगा। अपने बेटे शोभाकांत से हँसते हुये ऐसा कहने वाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंग्यकार,बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, यात्री नाम से लिखे तो स्वाभाविक ही है। हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उनमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन… मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते रिश्तेदारों के यहां जगह जगह जाता आता था,यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया, जो जीवन पर्यन्त जारी रहा।राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड…अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था, जो न केवल जो कुछ आंखो से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट, अप्रत्यक्ष होता, उसे भी भांपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता।.. उनके ये ही सारे अनुभव समय समय पर उनकी रचनाओं में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे। जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं। हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए! उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है। उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये। पर नागार्जुन की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे, और जनभावों को ही अपनी रचनाओं में व्यक्त करते रहे। उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की नई लीक का निर्माण किया.तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली -पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-
उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है। उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढऩे पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है। दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं
1939 में प्रकाशित’उनको प्रणाम’……
…जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! – उनको प्रणाम…
1998 में ‘अपने खेत में’……
…..अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट कर देगी!
जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!
उनकी विख्यात कविता प्रतिबद्ध कि पंक्तियां…….
प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं…जी हां,शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, उनको भी!
उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है।
उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको’,’अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है।
‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी’
की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,
व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं। कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ। नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है
कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, फटी भीत है छत चूती है। उनका यह व्यंग्य क्या आज भी देश भर के ढेरों गांवों का सच नहीं है?
अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है
पारो से- क्यों अपने देश की क्वांरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढिय़ों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वांरियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई।।
दुख मोचन से- पंचायत गांव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी, अब तक। चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोडऩे को तैयार नही थे। जात पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार,लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढि़ परंपरा का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नहीं अनेक रुकावटें थीं। आज भी कमोबेश हमारे गांवो की यही स्थिति नहीं है क्या?
समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर वैद्यनाथ मिश्र…..नागार्जुन उर्फ यात्री, विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता के धनी…पर जनभाव के सरल रचनाकार थे। उनकी जन्म शती पर उन्हें शतश: प्रणाम, श्रद्धांजली, और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओं के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छवि धारण करे, जिससे भले ही आने वाले समय में नागार्जुन की रचनायें अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके।