पृथ्वी के विकास में जिन तीन प्रजातियों का योगदान रहा है वे हैं-वनस्पति, कीट-पतंग (पशु-पक्षी) और मानव। ये सभी एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है। क्योंकि यदि वनस्पति जड़ है तो पशु-पक्षी उसका तना तथा मानव उसका फल। यह ही प्रकृति का आदि, मध्य तथा अंत है।
वनस्पति जगत केवल सृजन ही करता है उसका उपभोग नहीं करता। पशु-पक्षी जगत अपनी विविधता के कारण सृजन-पोषण तथा अंशत: उपभोग भी करता है। जबकि मानव जाति विविधता के अभाव में केवल उपभोग (शोषण) ही करती है। क्योंकि यह संपूर्ण पृथ्वी मानव केंद्रित है। मानव के इसी अवगुण के कारण पृथ्वी के विनाश के लिए सदैव मानव ही उत्तरदायी माना जाता रहा है।
इन जातियों का क्रमिक विकास निम्न प्रकार हुआ-
वनस्पति जगत- विविधता की दृष्टि से यह अन्य दो जातियों से अधिक समृद्ध हैं। प्रकृति ने इसे यह विविधता अकारण नहीं दी है।
इसकी विविधता में अन्य दो जातियों की वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकताएं निहित थीं। वनस्पति जगत में विविधता उसके उत्पन्न होने की विभिन्न प्रक्रियाओं के कारण हैं। तथा (1) वायु के द्वारा (2) कीट पतंगों के द्वारा (3) पक्षियों तथा कतिपय पशुओं के द्वारा (4) वर्षा के जल से (5) भूमि के द्वारा (6) सूर्य की किरणों के द्वारा (7) समुद्र के जल द्वारा (8) जड़ों, तनों, फलों के तथा अन्य प्रक्रियाओं से। कई वनस्पतियां (फफूंद) के रूप में पैदा होती हैं तो कई अमरबेलों के रूप में। कुछ जानवरों के द्वारा खाए जाने वाले आहार के जूठन के गिरने से स्वमेव ही उग आती है।
कुछ पहाड़ों पर बिना मिट्टी-बीज की सहायता से पहाड़ों के मैल के रूप में पैदा हो जाती है। जिसे हम शिलाजीत के नाम से जानते हैं। वनस्पति जगत में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उत्पन्न हो जाने की अद्भुत क्षमता होती है।
कीट-पतंग, पशु-पक्षी जगत- जिसे विज्ञान की भाषा में एनिमल किंगडम कहते हैं, का वनस्पति जगत के सहयोग से ही विकास हुआ। इसके अंतर्गत सर्वप्रथम समुद्र के जल में तैरने एवं रहने वाले अति सूक्ष्मतर प्राणियों से लेकर अत्यंत विशालकाय व्हेल जैसे जन्तुओं की उत्पत्ति हुई। जो कालान्तर में समुद्र से स्थल पर आ गए, जिनसे रेंगने वाले अति विशालकाय डायनासोर जैसे प्राणियों का विकास हुआ। फिर पेड़ों पर चढऩे वाले, पृथ्वी की सतह पर भिनभिनाने वाले कीट-पतंगों तथा आकाश में उडऩे वाले कीट-पतंगों से लेकर मध्यम श्रेणी तथा विशालकाय बाज जैसे जीवों की उत्पत्ति हुई।
एनिमल किंडगम में भी जन्म लेने की एक से ज्यादा विधियां पाई जाती हैं। कुछ अंडों से उत्पन्न होते हैं तो कुछ मादा के गर्भ से, कुछ की उत्पत्ति समुद्र के जल से होती है जैसे सीपियों से, तो कुछ स्वेद कणों से, गंदगी से अथवा अन्य तरीकों से। अन्य कारणों में है कई प्रजातियों का अपने क्षतिग्रस्त अंगों को ठीक करने अथवा पुन: उगाने में सक्षम होना तथा पर्यावरण के अनुसार नवीन जागृति को जन्म देना।
इसलिए कई कीट पतंगों में कुछ समय बाद कीटनाशी प्रभावी नहीं रहते। मनुष्य तथा कतिपय पशु पक्षियों में यह क्षमता नहीं पाई जाती।
समझा जाता है कि प्रारंभिक अवस्था में सभी जीव पूर्णत: वनस्पति जगत पर निर्भर थे। तत्पश्चात छोटे जन्तुओं ने अपना आहार सूक्ष्म जीवों को बनाना प्रारंभ कर दिया। जिसे वैज्ञानिक भाषा में पर्यावरण संतुलन कहते हैं। जीवों जीवस्य भोजनम् इसी प्रक्रिया का नाम है। आहार के अतिरिक्त जन्तु जगत आश्रय के लिए भी वनस्पति जगत पर ही निर्भर रहता था।
आज भी पेड़ पौधों की जड़ों में, तनों के अंदर, पत्तियों तथा फलों में, पेड़ों की शाखाओं के ऊपर नाना प्रकार के छोटे-मध्यम पशु-पक्षी रहते हैं। अधिकांश आज भी पत्तों, फलों, फूलों, जड़ों के गूदों को खाकर ही जीवित रहते हैं। वर्तमान में ज्यों-ज्यों वनस्पति जगत का विनाश होता जा रहा है, त्यों-त्यों ही जन्तु जगत का विनाश भी होता जा रहा है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जन्तु जगत का अस्तित्व आंशिक रूप में वनस्पति जगत पर ही निर्भर करता है।
मानव जगत- इसे विज्ञान की भाषा में ह्यïूमन किंगडम कहते हैं। यह हमारी पृथ्वी की सबसे नई तथा अंतिम जाति है। इसका उद्भव एवं विकास जन्तु जगत के विकास के लाखों वर्षों बाद हुआ। संभवत: यह प्रकृति की विकास प्रक्रिया की अंतिम कड़ी है। मानव में गर्भधारण करने तथा जन्म देने की एक ही प्रक्रिया होने से इसमें विविधता नहीं पाई जाती है।
मानव ने बस्तियों के निर्माण के लिए भूमि वनस्पति जगत से छीननी प्रारंभ कर दी। जंगल काटे जाने लगे। रेलों, सड़कों, बांधों, तालाबों, नहरों, खेती, उद्योग, सबके लिए जब-जब भूमि की जरूरत पड़ी तब-तब ही वनस्पति जगत का विनाश होता चला गया। रहने के अतिरिक्त भोजन की आवश्यकता भी उतनी ही जरूरी थी। जो अन्तहीन मानव जनसंख्या के लिए केवल वनस्पति जगत से पूरी होना संभव नहीं था। अत: मानव ने वनस्पति जगत के साथ-साथ आहार के लिए पशु-पक्षी जगत को भी उपयोग में लेना प्रारंभ किया।
जन्तु जगत जो पूर्णतया वनस्पति जगत पर ही निर्भर करता था, यह दोहरी मार नहीं झेल सका। वनस्पति जगत में विनाश के साथ ही उसके आश्रय स्थल नष्ट होते जा रहे थे, ऊपर से मानव की उदरपूर्ति। फिर मानव ने जन्तु जगत का उपयोग केवल अपनी उदरपूर्ति के लिए ही नहीं किया, अपितु उसने सजावटी सामान, वस्त्र, प्रयोगशालाओं, दवाईयों, रसायनों तथा मनोरंजन तक में उनका जमकर उपयोग किया।
परिणाम हमारे सामने हैं। आज जन्तु जगत की सैकड़ों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं तथा सैंकड़ों विलुप्त होने की कगार पर हैं। यही हाल वनस्पति जगत का हो रहा है। बाढ़, सूखा, अनियमित वर्षा, तूफान, अंधड़, भूकम्प तथा मलेरिया, प्लेग जैसी बीमारियों का एकमात्र कारण-पर्यावरणीय असंतुलन ही है। इसलिए पृथ्वी का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि प्रकृति के तीनों अंगों में संतुलन बना रहे।