हम बूंद-बूंद को तरसे

कबीर चौरा में कबीर सत्संग का आयोजन था।
एक भजन सबको मुग्ध कर गया था।
‘काहे रे कमलिनी तू कुमिलानी तोरी नालि, सरोवर पानी’
कबीर कमल से पूछ रहे हैं, तुम्हारी नाल (जड़) तो सरोवर के पानी में है, आखिर तू कुम्हला कैसे गया है।
इस प्रश्न का उत्तर आज के कवि दुष्यंत कुमार देते हैं-
‘अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं।‘
तालाब है, पानी है पर कमल मुरझा रहे हैं। पानी है, पर जीवन छीज रहा है।
सुबह बिलासपुर जाने के लिए निकला। एक ट्रेन आकर गई थी। एक युवक ट्रेन में चढऩे की चेष्टा करता गिर पड़ा था गंभीर रूप से आहत था। पता चला दूर से आ रहा था। ट्रेन रुकने पर पानी लेने नल पर गया। नल दूर था। नल पर भीड़ थी। गाड़ी छूटने पर दौड़कर ट्रेन में चढऩा चाहा। फिसल गया और गंभीर रूप से घायल हो गया। ट्रेन में उसके बच्चे और सामान थे।
ऐसे हादसे रोज हो रहे हैं। पहले रेलवे स्टेशन पर समाजसेवी संस्थाएं ट्रेन आने पर यात्रियों को पानी पिलाया करती थी। अब किसी भी स्टेशन पर पानी पिलाने की व्यवस्था नहीं रहती। अब लोगों में समाज के प्रति पारंपरिक उदार भावनाओं का लोप हो गया है।
एक सज्जन कहने लगे, पहले हैण्डपंप और कुआं में पर्याप्त पानी थे। पहले पानी भरने और पिलाने के लिए आसानी से मजदूर मिल जाते थे। अब हमारे घरों में ही पानी नहीं आता। टैंकर से पानी लेने के लिए हम खुद लाइन लगाते हैं। स्टेशन और ट्रेनों में मुफ्त में कहां से पानी बांटें।
दूसरे सज्जन कहने लगे- पहले हम खुद यात्रा के समय अपने लिए पानी साथ लेकर चलते थे। अब मैं पानी लेकर नहीं चलता। बोतल बंद ठंडा पानी ट्रेन में और हर कहीं दस-पंद्रह रुपये में मिल जाता है।
कुएं और हैण्डपंप सूख गए हैं। टैंकर से घरों में पानी की आपूर्ति होती है। शायद आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है पानी। वह अब जेब तथा रुपयों की पहुंच में है।
देवव्रत जोशी बाजार के बढ़ते पदचाप पर कहते हैं :-
‘जीवन है आग का सरोवर
छंद और लय को
जो लील रहा
दैत्य बढ़ा आ रहा
बाजार का।।‘
बाजार का यह दैत्य अब पानी को लील गया है। पानी बोतलों में बंद है। प्यास से कंठ सूख रहे हैं। पानी के लिए लोग छटपटा रहे हैं। कबीर का मानुस जात पानी का बुलबुला है, जो जलस्त्रोत को ही पी गया है :-
‘पानी केरा बुदबुदा
अस मानुस की जात
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात’
‘जल में उत्पति, जल में बास
जल में नलिनी तोर निवास’
जीवन तो जल से ही है। जल से ही जीवों की उत्पत्ति है।
रहीम कहते हैं :-
‘रहिमन पानी राखिए,
बिन पानी सब सून,
पानी गए न उबरे,
मोती मानुस चून’
आज पानी का घोर संकट है और इस संकट के लिए हमारा समाज ही दोषी है।
महाभारत के ‘वन पर्व’ में एक प्रसंग है। पांडव बारह वर्ष का वनवास काट रहे थे। एक स्थान पर सभी प्यास से व्याकुल हो गए। युधिष्ठिर के आदेश पर सभी भाई बारी-बारी से सरोवर पर गए। उन्होंने यक्ष के प्रश्नों को बिना सुने, बिना उत्तर दिए पानी पी लिया और उनकी मृत्यु हो गई। अंत में स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर सरोवर पर गए। अपने मरे हुए भाइयों को देखकर दुखी हुए। वे स्वयं प्यास से व्याकुल थे। जैसे ही पानी पीने को उद्यत हुए, यक्ष ने उन्हें भी पानी पीने से मना किया। यक्ष की बात सुन युधिष्ठिर रुक गए, आदर पूर्वक यक्ष के प्रश्नों के उत्तर दिए, इसके पश्चात स्वयं पानी पिया तथा सभी भाई भी यक्ष की कृपा से जीवित हो गए।
सृष्टि की रचना पांच मूल तत्वों से हुई है। हमारा शरीर भी उन पांच तत्वों से बना है-
‘क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा
पंच रचित यह अधमशरीरा’
(रामचरित मानस)
पृथ्वी से दूर अन्य ग्रहों में हम जीवन और उसके मूल तत्वों की संभावनाओं की खोज में है। मंगल में बर्फ की उपस्थिति से हम रोमांचित हो गए हैं। सोचने लगे, यह पानी है, ऑक्सीजन है तो जीवन भी होना चाहिए। अपरिचित ग्रहों के रहस्यों के अध्ययन के लिए यह अन्वेषण प्रशंसा के योग्य है। हमारी पृथ्वी में सभी तत्व उपलब्ध हैं। सभी प्रकार के जीव, जंतु, वनस्पतियां उपलब्ध हैं परंतु दुर्भाग्य है कि हम अपने ही हाथों उसे नष्ट करते चले जा रहे हैं। पर्यावरण वैज्ञानिक हमें आगाह कर रहे हैं कि अवांछित गैसों के परिमंडल में उत्सर्जन से ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी में ग्लोबल वार्मिंग प्रारंभ हो गया है। ओजोन छतरी फट चुकी है। सूर्य का तेज प्रकाश पृथ्वी के ताप को सामान्य से अधिक बढ़ाते चला जा रहा है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में बर्फ पिघल रही है। ग्लेशियर पिघल कर बह रहे हैं। समुद्र में पानी बढऩे लगा है। जिस तेजी से पानी बढ़ रहा है, उसे देखते हुए शीघ्र ही एक बड़े भू-भाग के डूब जाने का अन्देशा है।
पुराणों में एक कथा है कि कभी एक दानव ने पृथ्वी को समुद्र के भीतर लेकर छिपा दिया था। तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण किया और अपने विशाल दांतों से उठाकर पृथ्वी को पानी के ऊपर स्थापित किया था। वही दैत्य पृथ्वी को समुद्र के भीतर छिपाने के लिए प्रयत्न प्रारंभ कर चुका है।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वर्षा का प्रतिशत घट रहा है। मानसून अनिश्चित होते जा रहा है। वर्षा और वन सिमट गए हैं। बचे हुए वन तेजी से छीज रहे हैं। वनों के छीजने से, नदी-नाले और झरनों के जलस्त्रोत सुख गए हैं। तालाबों के तटबंधों के पेड़ों को काट देने से सदासलिला तालाब, पोखरों का अस्तित्व ही मिट रहा है। तालाबों को नगरों में पाटकर मल्टीकॉम्पलेक्स बनाए जा रहे हैं। रखरखाव एवं संरक्षण के अभाव में वर्षा जल को संचित रखने वाले तालाब, नदी, नाले, कुएं कंगाल हो गए हैं। भू-गर्भ को छेदकर धरती की कोख से पानी का आखिरी बूंद खींचने के लिए ट्यूबवेलों की गहराई बढ़ती चली जा रही है। भू-गर्भ का जलस्तर तेजी से नीचे भाग रहा है।
पीने का पानी, सिंचाई का पानी, खेतों का पानी, उद्योग का पानी सारा कुछ भू-गर्भ जल पर आश्रित हो गया है। ये हालात है कि तालाबों को भी भू-गर्भ जल से भरा जा रहा है।
जिन ताल-तलैयों में पानी है, उन्हें सीवर का गंदा जल डालकर प्रदूषित कर दिया गया है। औद्योगिक उच्छिष्ट कृषि के रासायनिक खाद एवं कीटनाशक, नगरों के निस्तार की प्रदूषित नालियों का मल, जल, कूड़ा-करकट, सब कुछ आँख मूंदकर नदी, तालाबों के जल में फेंका जा रहा है। घातक रसायन उस जल में घुलकर भू-गर्भ जल को प्रदूषित कर रहे हैं। भू-गर्भ जल भी हमारी पकड़ से दूर भाग रहा है।
बोतलों में भरे पानी से प्यास बुझा रहे लोगों के इस बोतल बंद पानी में भी मेलाथियान जैसे कीटनाशकों की उपस्थिति पाई गई है।
अगर पारंपरिक जलस्त्रोतों में स्वच्छ जल संरक्षित करने के लिए हम सफल हो जाते हैं तो यह इस दौर के यक्ष प्रश्न का सही उत्तर होगा। जो इन प्रश्नों का उत्तर देगा वह धर्मराज स्वयं तथा अपने परिजनों सहित समाज की रक्षा का पुण्यभागी होगा।
‘खो गया बू-बास पानी की
घुट रही है सांस पानी की
हाँफती है नदी चुल्लू में
सुने कोई काश पानी की।‘
सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि शुद्ध जल की उपलब्धता तेजी से समाप्त हो रही है। विचारकों और विशेषज्ञों का मत है कि पेय जल की भारी कमी आगामी 10 वर्षों में हो जायेगी। आगामी 50 वर्षों में पेयजल के स्त्रोत लगभग समाप्त हो जायेंगे। बोतलों में बंद बोतल का शुद्ध जल उन करोड़ों गरीबों के लिए बिल्कुल नहीं है जो घोर गरीबी के कारण 50 रुपये किलो का अनाज या 60 रुपये लीटर का दूध अपने बच्चों को उपलब्ध नहीं करा सकते। वैज्ञानिकों की रिपोर्ट को पेश करके आम जनता को सिर्फ चिंतित और भयभीत किया जा रहा है, ऐसी बात तो नहीं है। इस स्थिति से निपटने के लिए उपयोगी और सकारात्मक सुझावों की बेहद कमी है। कोई उपयोगी सुझाव दिया जाता है तो वह नक्कार खाने में तूती बनकर रह जाता है।
यह सही है कि आबादी बढऩे के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की खपत दुनिया में बेतहाशा बढ़ गई। पानी जीवन के लिए सबसे जरूरी है। मानव जीवन और वनस्पति जगत दोनों के लिए स्वच्छ जल की आवश्यकता है। आबादी और औद्योगीकरण दोनों के एकाएक बढ़ जाने से जल स्त्रोतों का भीषण दोहन विगत 60 वर्षों में हुआ। केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण मंडल नई दिल्ली के 25 साल पुराने वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश के 142 प्रथम श्रेणी के नगरों से प्रतिदिन 70,06,740 किलो लीटर सीवेज निकलता था। आज यह दस गुना हो गया है। गंगा बेसिन के पास के 48 प्रथम श्रेणी महानगरों के 2.34 करोड़ लोग 3235240 किलो लीटर वाहित मल (सीवेज) उत्सर्जित करते थे। यह मात्रा भी 25 वर्षों में दुगनी हो चुकी है। शहरों में आपूर्ति किए जाने वाले जल का 80 प्रतिशत भाग दूषित मल बनकर जल स्त्रोतों और भू-गर्भ जल को प्रदूषित कर देता है। यह एक छोटा सा उदाहरण है। देश के शहरों में बढ़ रही जनसंख्या तथा नदी किनारे के नगरों द्वारा नदियों को प्रदूषित कर दिए जाने के कारण क्या शहर, क्या गांव चारों ओर पानी के लिए हाय-हाय मचा हुआ है। दिल्ली के बाद, मथुरा, वृन्दावन, आगरा सहित सभी जगह जहां-जहां से यमुना गुजरती है एक बूंद शुद्ध जल नदी में नहीं आता। यमुना का जल इन पवित्र तीर्थों में वास्तव में दिल्ली महानगर का मल जल हुआ करता है। यमुना का जल दिल्ली के पहले ही हरियाणा और दिल्ली द्वारा उपयोग में समाप्त हो जाता है। फिर दिल्ली के सीवर का पानी यमुना में आगे बहता है।
वर्षा में कमी, भू-गर्भ जल के निरंतर दोहन होने के कारण भू-गर्भ का जल स्तर लगातार गिर रहा है। ट्यूब वेलों से खेती की सिंचाई तथा पेयजल के लिए भू-गर्भ जल का दोहन हो रहा है। पेड़ों के लगातार कटने और पक्के मकानों की संख्या बढऩे से भू-गर्भ जल हम से नाराज होकर नीचे की ओर भाग रहा है। उद्योग भी भू-गर्भ जल का उपयोग कर रहे हैं। भू-गर्भ जल के दोहन में नियंत्रण नहीं है।
नदी किनारे उद्योगों की बाढ़ आ गई है। उद्योग अपने लिए भारी मात्रा में पानी का उपयोग तो करते ही हैं साथ ही अपशिष्ट जल की भारी मात्रा नदी के स्वच्छ जल में उत्सर्जित कर देते हैं। उत्सर्जित जल में जीवन के लिए हानिकारक तरह-तरह के रसायन और जहरीले द्रव्य घुले होते हैं। अपशिष्ट जल से नदियों का पानी एकदम गंदा हो रहा है। नदियों में होने वाली वनस्पतियां जीव-जंतु मछलियां सब नष्ट हो रही है। जलीय वनस्पति एवं जीवों की प्रजातियां कुएं, तालाब, नदी, नाले सभी जगहों में 75 प्रतिशत से 80 प्रतिशत नष्ट हो गये हैं। ऐसे जलीय शैवाल जो कि जलस्त्रोतों में जीवन के लिए हानिकारक कीटाणुओं और रसायनों को नष्ट करने की प्राकृतिक शक्ति रखते थे, वे नष्ट हो गये हैं। उन्हें अब दुबारा विकसित करना असंभव होता जा रहा है। तालाबों, नदियों में पाई जाने वाली मीठे जल की अनेक देशी प्रजाति की मछलियां अब दुर्लभ हो चुकी हैं।
इन जल स्त्रोतों के किनारे पर रहने वाली आबादी दूषित अपशिष्ट जल के प्रभाव से गंभीर बीमारियों का शिकार हो गई है। जल में फ्लोराइड आने से हड्डी के गंभीर रोग से गांव के गांव बीमार है। पानी में और मिट्टी में शीशे की मात्रा से पेड़ों पर लगने वाले फल जहरीले हो गये हैं। पावर प्लांट से राखड़ बांधों ने मिट्टी और जल को प्रदूषित कर दिया है।
गांवों का जीवन पहले सरल, सादा और सुखी था। कम से कम हवा, पानी और मिट्टी में ताजगी और प्राकृतिक सुगंध थी।
 1972 के एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि 1.52 लाख गांवों में 7.5 करोड़ आबादी के लिए पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। 90,000 गांवों में 1.6 किलोमीटर तक तथा 10 से 15 मीटर गहराई तक जल उपलब्ध नहीं था। राजस्थान में तो महिलाओं को 4-5 किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता था।
लोगों के निस्तार के लिए समाज ने पहले गांवों में तालाबों, कुओं और बावडिय़ों का निर्माण कराया था। गांवों में दो तरह के तालाब थे। एक वह तालाब जो सिंचाई के काम आते थे। दूसरे वह जो पेयजल, स्नान और निस्तार के लिए सुरक्षित होते थे। इन्हें सारे गांव के लोग विशेष सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। इन तालाबों को बनवाने वाले तालाब की पूजा स्थापना विवाह आदि कराके तालाब के मध्य स्तंभ गाड़ते थे। तालाब के किनारे घाट तथा मंदिर बनाते। तट्बंधों में बट, पीपल, आम, आंवलें के पेड़ तुलसी आदि के पौधे लगाते थे। इनमें कपड़े धोने की मनाही होती थी। नहाने और पीने के लिए पानी का उपयोग होता था। तालाब में पारंपरिक-प्राकृतिक मछलियां, कछुए, मगरमच्छ आदि होते थे। तालाबों में कमल प्राकृतिक औषधियां और वनस्पतियां होती थी। इन तालाबों से 80 प्रतिशत जल की निस्तारी आवश्यकता पूरी हो जाती थी। कुएं का पानी पीने के काम आता था।
गांवों में 1965 के बाद मछली की व्यावसायिक खेती प्रारंभ हुई। मालगुजारी उन्मूलन के बाद, तालाबों की व्यवस्था ग्राम पंचायतों को सौंप दी गई। ग्राम पंचायतों को अपने आर्थिक स्त्रोत बढ़ाने के लिए तालाबों में मछली पालने वालों को ठेके पर देना शुरू कर दिया। ठेकेदार ने तालाबों की जलीय वनस्पति को नष्ट कर दिए क्योंकि उन्हें नेटिंग में असुविधा होती है।
मछली की अल्प जीवी प्रजातियां तालाबों में पालने लगी। मछली की बाढ़ के लिए तालाबों में गोबर, खाद, सुपरफास्फेट एवं मछली को शीघ्र बढ़ाने वाले हार्मोन और रसायन डालने लगे। तालाबों में मछली की बाढ़ को जारी रखने के लिए बार-बार नेटिंग करने से पानी गाढ़ा, प्रदूषित और बदबूदार हो गया है। निस्तारी तालाबों को ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों के नियंत्रण से बाहर किया जाना चाहिए। इसे सरकार ने समाज के हाथ से छीन लिया। प्रकृति और समाज के बीच परायापन उपज गया है, आत्मीय रिश्ते समाप्त हो गए हैं।
हजारों, लाखों तालाब किसी सरकार ने नहीं बनाए थे। इसे समाज के लोगों ने बनाए थे। वे उसका रख-रखाव, सम्मान और गरिमा के प्रहरी थे। सरकार की कुदृष्टि लगी और यह सरकारी पूंजी हो गई। समाज का सरोकार छिन गया। तालाब का गहरीकरण, अब सरकार करेगी, घाट सरकार बनाएगी, सफाई सरकार करेगी। समाज को साथ लिए बिना समाज की संपत्ति से सरकार का रिश्ता कितना आत्मीय बन पाएगा? ग्राम पंचायत समाज नहीं है। ग्राम पंचायत भी सरकार का हिस्सा है। निर्वाचन करा देने मात्र से ग्राम पंचायत समाज का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता। सरकार द्वारा ग्राम विकास के लिए धकेले जा रहे फंड के कारण पनप रहे भ्रष्टाचार के चलते जनता और पंचायत के बीच गहरी लकीर बन गई है। दो चार हजार रुपया सालाना फीस पर तालाबों को मछली पालन के लिए पंचायत द्वारा ठेका दे दिया जाता है। ठेकेदार तालाब के पानी को गंदा कर देता है और समाज तालाब और उसके पानी से वंचित हो जाता है।
सरकार को चाहिए कि वह तालाबों को प्राचीन धरोहर के रूप में संरक्षित करे। उसके पानी को अशुद्ध करने वालों को दंडित करने का प्रावधान बनाए। तालाबों के तटबंधों के वृक्षों के रखरखाव के लिए कठोर कानून बनें।