भारत में कचरा निस्तारण की भयावह स्थिति और निस्तारण

घरेलू कचरा एक मुख्य चुनौती के रूप में भारत के हर शहर में मुंह बाए खड़ा हुआ है जिसमें अक्सर जहरीले और खतरनाक तत्वों  की बहुतायत होती है। किसी एक रामबाण निस्तारण सिद्धांत का अभाव शहरों को विभिन्न दृष्टिकोणों से सामग्रियों और ऊर्जा प्रवाहों के साथ शहरी उत्सर्जन के रूप में समझता है जो उत्पादन, उपभोग और त्याग में चक्रीयता पर प्रकाश तो डालता है, मगर कोई सटीक निस्तारण उपाय नहीं सुझाता। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में कचरा बीनने वाले ‘डंप और लैंडफिल’ पर काम करते हैं, अत्यधिक दूषित घरेलू कचरे को छानते हैं और स्वास्थ्य संबंधी खतरों का सामना करते हैं।

अक्सर हम एक सामाजिक और पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य लेते हैं और इन श्रमिकों, उनके समुदायों, जलक्षेत्रों और पर्यावरण से जुड़ी घरेलू कचरे की कमजोरियों और अपशिष्टजनित खतरों की पहचान करते हैं। घरेलू कचरा हालांकि हमेशा जहरीला या खतरनाक नहीं होता है किन्तु एकत्र न किया जाए या अपर्याप्त तरीके से प्रबंधित किया जाए तो यह सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकता है। वे समुदाय जहां घरेलू कचरा एकत्र नहीं किया जाता है या कचरा संग्रहण अपर्याप्त है, वे सबसे महत्वपूर्ण स्थान हैं। कचरा प्रबंधन व्‍यवस्‍था में उनकी भूमिका प्रमुख है। कचरा बीनने वालों को औपचारिक कचरा अर्थव्‍यवस्‍था के भीतर काम करते हुए अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें कचरा प्रबंधन का काम निजी कंपनियों को सौंपा जाना, रिसाइक्लिंग के विकल्‍प के रूप में प्रतिष्ठित, कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों की स्‍थापना और कचरा प्रबंधन की बुनियादी जरूरतों को शहरी क्षेत्र निर्धारण योजनाओं में स्‍थान न दिया जाना शामिल है। इतना ही नहीं अनौपचारिक क्षेत्र की अग्रिम पंक्ति में खड़े कचरा बीनने वाले अक्‍सर कठिन और अस्‍वच्‍छ परिस्थितियों में काम करते हैं जिसका असर उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ता है। रिसाइकिल लायक कचरे के बाजार मूल्‍य में उतार-चढ़ाव भी उनके लिए अनिश्चितता पैदा करता है।

 

पिछले दशक में ‘कबाड़ी वाला कनेक्‍ट’ (चेन्‍नई), ‘हासिरू दाला’ (बेंगलुरू) और ‘चिंतन’ जैसे जमीनी संगठन कचरा बीनने वालों को कचरा अर्थव्‍यवस्‍था से जोड़ने की कोशिश में उनके साथ काम कर रहे हैं। इन तीनों संस्थाओं के अनुभव से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। विकेन्द्रित कचरा प्रबंधन के लिए प्रयासरत चेन्‍नई स्थित कबाड़ी वाला कनेक्ट के सीईओ सिद्धार्थ हांडे बताते हैं, चेन्‍नई में हर वर्ष  1,30,000 टन से अधिक कचरा पैदा होता है जिसमें प्‍लास्टिक की मात्रा 10,000 से 15,000 टन होती है। नगरपालिका के लिए प्रारम्भिक स्रोत पर कचरा छंटाई की व्‍यवस्‍था लागू कर पाना भारी चुनौती है। इसलिए अधिकतर कचरा लैंडफिल (भरण स्थल) पर पहुंच जाता है जिसमें से बमुश्किल 10-15 प्रतिशत रिसाइकिल करने लायक होता है। नगर प्रशासन इस कचरे को उठाने और पास के लैंडफिल तक पहुंचाने के लिए रोज करीब 1.5 करोड़ रुपये खर्च करता है।

 

हांडे कहते हैं, ‘अगर समूचे भारत के शहर रिसाइक्लिंग को अधिकतम स्‍तर तक ले जाना चाहते हैं तो औपचारिक और अनौपचारिक कचरा क्षेत्र में समन्वय बढ़ाना पड़ेगा। इसका एक फायदा यह भी होगा कि ये कचरा बहकर नदी या समुद्र इत्यादि में नहीं जाएगा।‘ कबाड़ी वाला कनेक्‍ट शहर के मौजूद अनौपचारिक नेटवर्क की मदद से कचरे के संग्रह, छंटाई एवं प्रोसैसिंग के काम में सक्रिय है। इसके लिए नई टैक्‍नोलॉजी इत्यादि का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसका फायदा भी है। एक तो यह मॉडल समावेशी है। दूसरे ऐसा करने से लागत कम आती है। तीसरे, कचरा बीनने वालों को नई तकनीक का फायदा मिलता है तो स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें कम होती हैं और अधिक कचरे को रीसाइकल के उद्देश्य से अलग किया जा सकता है और सबका मुनाफा बढ़ता है।

 

बेंगलुरू में अनौपचारिक कचरा प्रबंधन तंत्र का भी लगभग यही हाल है। नगरपालिका के कर्मचारी या कचरा बीनने वाले घर-घर जाकर कचरा जमा करते हैं और उसे सूखा कचरा संग्रह केन्‍द्रों को सौंप देते हैं, जहां रिसाइक्लिंग के लिए उसकी छंटाई होती है। कागज, मेटल, कांच, कपड़े और प्‍लास्टिक को आमतौर पर अलग किया जाता है। हासिरू दाला, वर्ष 2011 से कचरा श्रमिकों और स्‍थानीय प्रशासन, नीति-निर्धारकों एवं नागरिकों के बीच की खाई पाटने का काम कर रहा है। इनका उद्देश्य यह भी है कि कचरा बीनने वालों की जिंदगी एवं आजीविका में सुधार लाया जाए। बेंगलुरू में 33,000 से अधिक कचरा बीनने वाले और कचरे के खरीददार हैं। वहां अनौपचारिक अर्थव्‍यवस्‍था में रोजाना करीब 3500 टन प्‍लास्टिक की खरीद-फरोख्‍त होती है। इससे प्‍लास्टिक कचरा लैंडफिल, नदी या तालाब में कम पहुंचता है। 2021 में हासिरू दाला ने शहर के 40  से अधिक वार्डों में बढ़-चढ़कर काम किया और उनके सूखा कचरा संग्रह केन्‍द्रों ने कुल 13,656 मीट्रिक टन कचरे की छंटाई की। इसमें से 4,097 टन कचरा रिसाइकिल लायक था और 9,559 टन कचरा रिसाइकिल लायक नहीं था।

हासिरू दाला की कम्‍युनिकेशन्‍स मैनेजर रोहिणी मालूर कहती हैं, ‘अक्‍सर भोजन सामग्री के डिब्‍बों जैसे प्‍लास्टिक उत्‍पाद को सही ढंग से धोया नहीं जाता, इसलिए उन्‍हें फेंकना पड़ता है। स्‍थानीय निवासियों को अक्‍सर अपनी सुविधा के लिए भोजन सामग्री से संबद्ध कचरे को साफ करने के लिए प्रोत्‍साहित करना आवश्‍यक है। सफाई और छंटाई की जिम्‍मेदारी परिवारों पर डालने से कचरा प्रबंधन तंत्र की अगली कड़ी में लाभ मिलता है। इससे कम कचरा खासकर प्‍लास्टिक ऊर्जा संयंत्रों तक पहुंचता है।‘

दिल्‍ली में प्रतिदिन 12,350 टन ठोस कचरा पैदा होता है जिसमें से अधिकतर गाजीपुर, भलस्‍वा और ओखला के तीन बड़े लैंडफिल पर पहुंच जाता है। दिल्‍ली में लगभग 40,000 कचरा बीनने वाले और अन्‍य रिसाइकिलकर्मी, घुमन्‍तु खरीददार, छोटे-बड़े कबाड़ी, कचरे की रिप्रोसैसिंग करने वाले और अन्‍य कचरा श्रमिक मिलाकर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की कुल संख्या 1,50,000 के आसपास है। ये वजन के हिसाब से दिल्‍ली के कुल कचरे का महज 15 से 20 प्रतिशत ही है और मात्रा के हिसाब से 55 प्रतिशत।  यहां करीब 2,000 टन कचरा रिसाइकिल किया जाता है। अन्‍य शहरों की तरह इसमें से अधिकतर रिसाइक्लिंग कचरा बीनने वालों की मेहनत का परिणाम है।

इसके अलावा लैंडफिल पर बिना छंटा कचरा जमा हो जाने पर सड़ते गीले कचरे से अत्‍यधिक ज्‍वलनशील मीथेन गैस निकलती है। यह गैस अचानक कचरे को जलाने लगती है। अन्‍य हानिकारक प्रदूषक सामग्री के साथ प्‍लास्टिक के कचरे में भी आग लग जाती है। कभी-कभी जमीन में गाढने से पहले लैंडफिल पर कचरा जलाया जाता है। दिल्‍ली में वायु प्रदूषण की समस्‍या में इसका भारी योगदान है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्‍वायरनमेंट और नीति आयोग ने ‘वेस्ट वाइस सिटिज’ के नाम से 2021 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसमें 28 शहरों का अध्ययन किया गया ताकि यह समझ में आये कि इस कचरे से निपटने के लिए सबसे बेहतर नीति क्या है। इसमें स्पष्ट हुआ कि अनौपचारिक एवं औपचारिक क्षेत्रों के बीच समन्‍वय ही कचरा प्रबंधन के लिए कारगर समाधान है। रिपोर्ट में देखा गया कि विकेन्द्रित प्रणालियां और सार्वजनिक-निजी भागीदारी हमारे ‘स्‍मार्ट सिटीज़’ उद्देश्‍यों को हासिल करने के लिए बहुत उपयुक्‍त होंगी।

अब समय आ गया है कि नगर नियोजक और नगरपालिकाएं जनसहयोग से कचरा प्रबंधन तंत्र में समन्‍वय की जरूरत को समझें और उसके रास्‍ते तलाश करें। इसमें सबसे अधिक जरूरत दृढ इच्छाशक्ति की है जिसके बिना कोई परियोजना पूर्णत्व प्राप्त कर ही नहीं सकती है।