गीत, संगीत, नृत्य से मानव मन का आदिकाल से ही संबंध रहा है। वैदिक मंत्रों के सस्वर गायन से उद्भूत संगीत से मानव मन स्वतः ही नृत्यमय होता रहा है। मानवीय अभिव्यक्तियों का रसमय प्रदर्शन नृत्य एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म आदिकाल में मानव सृष्टि के साथ ही हुआ है। शिशु जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ -पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है। ऐसे ही आंगिक क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन का समन्वय ही तो नृत्य होता है। शरीर का संगीत से संबंध जोड़ने अर्थात समन्वय बनाने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया नृत्य है। नृत्य से तन उन्मुक्त हो जाता है। नृत्य करने के लिए शरीर का एक-एक अंग सक्रिय होता है। इसमें ऊर्जा का भारी मात्रा में व्यय होता है। यह शरीर के सभी अस्थिपंजर को चलायमान अर्थात चुस्त-दुरुस्त रखने में सहायक भी है। नृत्य भाव केंद्रित होने के कारण मन भटकने से बचता है। और कुछ देर नाचते रहने से धीरे-धीरे मन भी नृत्य करने लगता है। अंत में नृत्य करने वाला नृत्य में ही मग्न हो जाता है, डूब जाता है। तन और मन संगीत के लय पर एक साथ झूमने से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। आत्मा का परमात्मा से मिलन इसी विंदु पर संभव है। यह एक यौगिक क्रिया भी है। इसे योग साधना भी कहा जाता है। यह स्वस्थ शरीर के साथ मन- मस्तिष्क को भी स्वस्थ रखता है। वैदिक, पौराणिक ग्रंथों तथा सामाजिक व ऐतिहासिक कथाओं में भी नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्राचीन वैदिक धर्म व पौराणिक ग्रंथों में ईश्वर को भी नृत्य करते हुए चित्रित किया जाता रहा है। यह आदिकाल से भक्ति व मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत रहा है। यही कारण है कि संसार की सभी सभ्यता की संस्कृतियों में नृत्य की अपनी विशिष्ट परम्पराएं आज भी कायम हैं। कहा जाता है कि भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलने की भांति ही कोस -कोस पर नृत्य शैलियां भी विविध हैं। इसके द्वारा वहां के स्थानीय लोगों की भावनाएं, जीवनशैली, पारिवारिक संरचना आदि विभिन्न पक्षों व दृष्टिकोण को देखा- परखा जा सकता है। इसकी महता आदि सृष्टिकाल से आज तक अनवरत कायम है। इसीलिए प्रतिवर्ष 29 अप्रैल को विश्व नृत्य दिवस का आयोजन किया जाता है, और इसकी महता, आवश्यकता और प्रासंगिकता के बारे में लोगों को जागरुक किया जाता है।