भारतिय लोकशाही के वर्तमान राजनीतिक दशा को समझने हेतु हमें पिछली सदी के राजनीतिक उतार चढाव को संक्षेप में समझ लेना श्रेयस्कर होगा । हमारा प्रजातांत्रिक अभ्यास बहुत नवीन नहीं है । फिरंगियों के शासन काल में इसके मौलिक स्वरूप में हरसम्भव नकारात्मक विकृति का प्रयास किया गया था। उन सभी प्रयासों के बाद भी योग्य मंत्रणा को सम्मान देने का भारतीय स्वभाव सनातन है और अब तक अक्षुण्ण बना हुआ है ।
20 वीं शदी के आते-आते ब्रिटिश सत्ता को भारतीय समाज में हो रहे एक नवीन राष्ट्रीय उभार का अंदेशा होने लगा था । उनके “फूट डालो शासन करो” के नीति की धार तब कमजोर पड़ने लगी थी । सेफ्टी वाल्व को ध्यान में रख कर गठित की गयी काँग्रेस पार्टी के अंदर भी शासन के गलत नीतियों का विरोध प्रबल होने लगा था । बाल,पाल,लाल जैसे अनेक दीपों के यहाँ-वहाँ चमकने से समाज को जगने भर का प्रकाश प्राप्त होने लगा था । फिरंगी लाख प्रयास के बाबजूद इन सबसे निपटने में असमर्थ होने लगे थे । हार्डिग जैसे पदाधिकारी अब हाथी पर भी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझ पा रहा था। फिरंगों ने कांगेस पार्टी के अंदर कठपुतलियों और बहुरूपिये नेतृत्व को खड़ा कर अपनी पकड़ मजबूत करने का प्रयास भी प्रारम्भ कर रखा था । समाज को सही और ईमानदार नेतृत्व देने में सक्षम और योग्य व्यक्तित्वों को किसी न किसी फर्जी मामले में फंसाकर,कानूनी मुकद्दमा में उलझाना और जैसे-तेसे या तो लम्बे समय के लिए जेल या फिर मृत्युदंड तक की बालात् सजा सुनाना सत्ता की दिनचर्या हो गयी थी । शासन की बर्बरता अपने चरम पर थी ।
इस बीच विश्वयुद्ध की आग भड़की और ब्रिटिश शासन को अपना विस्तृत सम्राज्य बचाये रखने के लिए आग में झुलसने को स्वतः से तैयार रहने वाले लड़ाकों की अनिवार्यता खटकने लगी । युद्ध मे सैनिक सहयोग के बदले भारत को आंशिक आजादी का आश्वासन मिला । बड़ी संख्या में भारतीय उस सत्ता के पक्ष में लड़कर शहीद हुए जो लगभग पिछले एक शदी से उन्हीं का शोषण कर रही थी। आजादी और स्वतंत्रता की लालसा में प्राण की परवाह नहीं करना सनातनियों का प्राचीनकाल से ही स्वभाव रहा है। कुछैक दलालों के सहारे ब्रिटिश अपने इस तत्कालीन आवश्यकता को साधने में सफल रहे। बाद में ब्रिटिश सरकार अपने दिये हुए इस वचन से पलट गयी। यह अस्वभाविक नहीं था । सच कहिये तो हम उनकी दोगली नीति को समझने में असफल रहे थे । पश्चिम देशों में एक सफल राजनेता बनने हेतु गिरगिट के इस गुण का होना बहुत अनिवार्य समझा जाता था । हमारे बहुतेरे अपने भी राजनेता बनने और तीव्रता से सफल होने को यह सब सीखने का अभ्यास करने लगे थे। उनमें से कईयों ने तो कैब्रिज विश्वविद्यालय से बैरिस्टर की उपाधी ले रखी थी। उन्होंने फिरंगियों से पेंशन और भत्ता पाने के आश्वासन मात्र के बदले अपना ईमान,धर्म तक बेचा । अपनों का घात सदैव से ज्यादा हानिकारक रहा है। हमने पहले भी जयचंद और मानसिंह देखे थे। फिरंग अपने हर षडयंत्र में लगातार सफल हो रहे थे। हम झूठी दिलासा में अपना भविष्य निहारते रहे।
यहाँ एक नये तरह की राजनीतिक पाठशाला स्थायी हो रही थी। मन,वचन कर्म इन तीनों में समानता रखने वाले लोग आतंकवादी घोषित किये जा रहे थे। उन्हें शहीद होना पड़ रहा था और दोहरे आचरण से समाज में अपना स्थान बना सकने में सफल लोग सत्ता सुख भोगने की दौड़ में आगे बढ रहे थे। शोषण और दमन के विरूद्ध संधर्ष करने और अपना बलिदान देने वाले वीरों की संख्या तब भी कम नहीं पड़ी । लगभग दो दशक तक चले टाल मटोल के बाद बाध्य होकर फिरंगियों को एक अंतरिम सरकार के गठन पर पहल करनी पड़ी । ई सन् 1935 में एक आम चुनाव करवाया गया । तत्कालीन काँग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग में राजनीतिक गठजोड़ हुआ । दोनो को अपार सफलता मिली । गठबंधन में काँग्रेस को अधिक सीटें प्राप्त मिली । सरकार गठित करने के लिए उसे मुस्लीम लीग के सांसदों से समर्थन की अनिवार्यता नहीं रह गयी थी । दोनों पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व फिरंगी दिशानिर्देशों पर ही काम करता आ रहा था, सो फिरंग ने अपने नीति (फूट डालो शासन करो) का नया पासा फेंका । अबकी बार फूट जनता में नहीं, नेताओं में आवश्यक समझी गयी थी । काँग्रेस नेतृत्व ने मुस्लिम लीग को सरकार में साथ लेने से मना कर दिया । लोमड़ी के सामने से कोई माँस का टुकड़ा छीन ले और लोमड़ी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे, यह बहुत सहज होता नहीं है। मानसिक जहर का यह छिड़काव अत्यंत विषैला था । उस प्रायोजित जहर ने इस स्तर तक असर दिखाया कि देश हिन्दु और मुस्लिम की आबादी के आधार पर तीन टुकड़ों में बॅट गया । लाखों निरीहों की नृशंस हत्या करने,करवाने के बाद देश स्वयं को आजाद घोषित करने में समर्थ हो सका।
दूसरी तरफ आजादी की घोषणा के पहले से आजाद देश के लिए एक संविधान लिखने का काम प्रारम्भ हो गया था । गहन चिंतन,मनन और उससे भी कहीं अधिक वहस के बाद हमने एक नवीन बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया । राजनेता होने के लिए चुनाव जीतने या स्वयं को चयनित करवा लेने के तिलस्म को जानने के अतिरिक्त और किसी प्रकार के कोई भी योग्यता की अनिवार्यता को सिरे से नकारा दिया गया । आजादी के नशे में बेहोश जनमानस को अपने हित में हाँकने हेतु भाँति-भाँति का सपना छपता और बिकता-बॅटता रहा है परन्तु देश पर शासन उस गिरोह का ही चला जिनका धर्म लंदन के प्रति उत्तरदायी रहना था नेताजी जैसे लोग जो उन्हें राजनीतिक मोर्चों पर परास्त करने का शौर्य रखते थे गुमनाम होकर मृत धोषित कर दिये गये । कई उदाहरण तो ऐसे मिल जायेंगे जिसमें चोरी और बलात्कार की सजा में जेल काट रहे अपराधियों को स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाणपत्र प्राप्त हो गया । वो दशको सरकारी सुविधाओं का भोग करते रहे क्योंकि सत्ताधारी दल को सफेद टोपी में प्रचार करने हेतु बधुआ मजदूरों की आवश्यक्ता थी ।
यद्दपि जनसामान्य को इन सारी कड़वाहट के स्वाद आभास हो चला था तथापि तब तक देर हो चुकी थी । अब विकल्प गढने की क्षमता वाले अधिकांश चरित्रवाण लोग राजनीति में अपना जोर आजमा कर किनारे हो लिये थे। प्रजा में आए विखराव ने क्षेत्रवाद,भाषावाद, जातिवाद आदि के सहारे अपना आधार बहुत मजबूत बना लिया था। पन्द्रह दिनों के अन्दर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री और होनहार परमाणु विज्ञानी श्री भाभा की संदिग्ध हालात में मृत्यु के बाद भी पूरे देश में कोई हलचल नहीं दिखी । आज देखिये किसी अतीक या अंसारी जिसका जाना समाज के हित में है, फिर
भी उसकी मृत्यु पर लाखों की भीड़ सरकार के नाक में दम करने सड़कों पर उतर आती है।
सत्ता के तानाशाही रवैये और असंवेदनशील नीतियों से परेशान जनता ने बीच में अपनी उपस्थिति का आभास कराया । एक लोकनायक उभरा और उसके आवाह्ण पर पूरा देश उठ खड़ा हुआ। शासकीय जबरदस्ती के लम्बे रगड़ के बाद चली ऑधी में सत्ता की न केवल नींद बल्कि नींव तक उड़ा दी । दिल्ली में जनता की सरकार शासन में आ गयी परन्तु वह यज्ञ भी पूर्णाहुति को प्राप्त नहीं हो सका। यजमानों में यश को पचाने की क्षमता का नितांत अभाव देखा गया। प्रसाद वितरण के पहले ही दानवी स्वभाव वाले हजारों योद्धा पूनः शुक्राचार्य को अपना गुरू मान नतमस्तक हो गये । स्वार्थ के दानव का आपसी टकराव एक वार फिर जनशाही को पीछे ढकेलने में कामयाब रही।
कुछ बचे-खुचे प्रबुद्ध, होनहार और अटल राजनीतिज्ञों को अब यह समझ आ गया था कि सही साध्य के लिए साधन और साधक दोनों को सधा हुआ होना अनिवार्य है । उनके संकल्प से भारतीय राजनीति के आकाश पर ई सन 1980 में एक नये राजनीतिक दल का उदय हुआ । चिंतन,मनन में सहभागी राजनेताओं ने उसका नाम भारतीय जनता पार्टी रखा । सत्ता की शुद्धता पर काम करने का संकल्प लिए महारथियों ने पाञ्चजन्य फूँका किन्तु राह इतना आसान नहीं था।
सभी दिग्गजों को घर का राह दिखाने के बाद श्रीमति गाँधी पुनः सत्तासीन हुई। पंतनिरपेक्षता और समाजवाद के वादे ने लोकतंत्र की अलग दिशा तय कर दी। तुष्टीकरण का एक नया अध्याय प्रारम्भ हो चुका था। एसे में देश को राष्ट्रवाद का मायने समझाना और फिर उनका समर्थन पाना बहुत आसान नहीं रह गया था। जातीय समीकरणों के आधार पर नये-नये छत्रपों के अंकुरण और उत्थान का काल था यह । भाजपा ने एक राष्ट्र एक विधान के पूराने नारा को जोर देना शुरू किया । लगभग एक दशक बाद देश की जनता ने इस घोष को स्वीकारा भी। अब भाजपा के संगठन का स्वयं पर विश्वाश बढा और उसने जयश्रीराम के दिव्य घोष में बल दिया। “राम बनाये सारे बिगड़े काम” सदैव से सत्य के समीप रहा है। हिन्दू समाज को याद आने लगा कि पाकिस्तान नामक देश तो मुसलमानों के अलग देश की जिद्द के कारण ही अस्तित्व में आया था फिर भारत में मुसलमानों के लिए हर जगह विशेष व्यवस्था क्यों ? पंथनिरपेक्ष कहने के लिए संवैधान में संशोधन कहीं वोट बैंक की राजनीति मात्र तो नहीं ?
भाजपा ने भी लोगों वादा किया। हम राम के जन्मस्थल से बाहर का चिन्ह हटाकर भगवान राम का मंदिर बनाएंगे । कश्मीर में वास्तविक अमन बहाल करने धारा 370 हटाएंगे ! आदि आदि नारों,वादों, घोषणाओं ने समाज में भाजपा को लोकप्रिय बनाया। उसे सत्ता में भागिदारी मिली।जल्दि ही अटल बिहारी जापानी के हाफ-सुथरी और प्रभावकारी व्यक्तित्व ने भाजपा को सरकार बना सकने की लगा में पहुँचा दिया। यह अप्रत्याशित नहीं था परन्तु बहुत तीव्रता के साथ इस लिए सम्भव हुआ कि काँग्रेस पार्टी ने लगातार अपने योग्य नेताओं को खोया। नये नेतृत्व को पार्टी में पूरा सहयोग और समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। अयोग्य को सदैव हे चट्टुकारिता पसंद आया है। पार्टी में चट्टानों को बढावा मिला। योग्य नेताओं ने न केवल अपना सम्मान खोया बल्कि पार्टी भी छोड़ी।
दूसरी तरफ भाजपा में योग्य कार्यकर्ताओं का सम्मान बढा । वो स्वयं को माजने,निखारने में लगे रहे। अब अपनी स्थापना के 44 वर्ष उपरांत यह राजनीतिक जगत में संसार की सबसे बड़ी पार्टी है। उसके पास योग्य और समर्पित कार्यकर्ताओं की बड़ी टोली है । एक शक्तिशाली संगठन के साथ साथ श्री मोदी जैसा सर्वमान्य नेतृत्व भी है । देश के कोने-कोने में,बच्चे-बूढे सभी के जुबान पर लगातार 10 वर्षों के सफल शासन काल में हुए अनगिनत प्रशंसनीय कार्यो की चर्चा है। जनसामान्य के मन में राममंदिर निर्माण और काश्मिर से धारा 370 हटाये जाने जैसे असम्भव दिखने वाले काम के सफल सम्पादन की खुशी है। मंहगाई, बेरोजगारी आदि की बात पूछने पर अत्यंत सहजता से लोग यह कहते सुने जा सकते हैं कि पेट्रोल 500 रूपये प्रति लीटर हो जाय तो भी वह मोदी को ही वोट देंगे । जनता प्रसन्न होकर श्रीमोदी को आशिर्वाद देने के लिए उतारू है। आवाम में सुरक्षा,शांति, विकास, विश्वाश और राष्ट्रीय गौरव का भाव भर सकने में सफल भाजपा की वर्तमान सरकार ने पिछले 10 वर्षों इतना कुछ अर्जित किया है। राजनीति को समझने जानने वालों में भी एक होड़ लगी है कि भारतीय जनता पार्टी यदि उसे निमंत्रण दे तो वह भी इस दल का हिस्सा बनकर धन्य हो जाय । करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो बिना किसी व्यक्तिगत अपेक्षा के इस सरकार की प्रसंशा करने और इसके नेक काम का प्रचार-प्रसार करने में अपना समय और साधन देने को सहर्ष तैयार है ।
दूसरी ओर खड़े तमाम राजनीतिक दल एवम् राजनेता मात्र इतना सोंच पा रहे हैं कि किस प्रकार वे मुसलमानों का वोट अपनी ओर खींच सकते हैं। पिछले 75 वर्षों में मुसलमानों को अल्पसंख्यक बताकर डराये रखने में सफल राजनीतिक पार्टियों का प्रयास आज भी उसे विकास की मुख्यधारा से काटकर अपने पक्ष में रखने मात्र तक निहित है। अपनी व्यक्तिगत सोंच बना सकने में अक्षम,अनपढ मुसलमान मौलवियों के हाथ की कठपुतली बने रहने को बाध्य हैं।
सबल जनतंत्र के सभी जागरूक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह जनमानस को सत्य का साक्षात्कार कराये। आज के पहले कभी कोई प्रधानमंत्री स्वच्छता कर्मियों के पैर धोये ? निर्माणकर्मी श्रमिकों के साथ जमीन पर बैठकर भोजन किया ? ग्यारह दिनों तक नीचे भूमि पर सोकर राम लला की मूर्ति स्थापना हेतु साधना की ? इतना ही नहीं हर गरीब के ऑगन के पीछे शौचालय बनवाना और हर निर्धन को जन-धन खाता दिलवाना। उसे उज्ज्वला योजना से गैस सिलेंडर का लाभ पहुँचाना । यह सब इतनी शीघ्रता से कर दिखाना कोई सामान्य बात नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान सरकार ने अनेक छोटे -छोटे मुद्दों में बड़ी सफलता तो पायी है साथ ही उसने बड़े-बड़े मुद्दों को भी इस प्रकार निपटा दिया है जैसे वह बहुत छोटी सी बात रही हो। कट्टर इस्लामिक देश कतर ने फाँसी की सजा सुनाने के बाद भी हमारे नागरिकों को सम्मान सहित भारत वापस भेजा यह आपने अवश्य सुना होगा । अभिनन्दन को पाकिस्तान की सरकार ने आदर के साथ वापस भेजा जबकि अभी थोड़ा ही समय बीता था जब मोदी सरकार ने उसकी लंका में आग लगा दी थी। अफगानिस्तान और युक्रेन मे युद्ध की आग भड़की तो वहाँ रह रहे भारतीय सुरक्षित अपने देश को लौट पाये। यह सब आपने पहले कभी सुना था क्या ? यह सब स्वयं के शक्ति पर विश्वाश करने का ही फल है । इसे बनाये रखना सर्वथा उचित है। आवश्यक्ता पड़ने पर इसका यथोचित प्रदर्शन भी करना चाहिये। हम चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर सफलता से अपना यान उतार सकने वाले एक मात्र देश है।
हमारे राजनीतिक व्यवस्था में दलालों ने एक गहरे षडयंत्र के तहत हमारी व्यवस्था का अपहरण करने का दौर अब समाप्त हो रहा है । मतदान के पुणित और सामर्थ्यशाली अधिकार को दिकभ्रमित करने का षडयंत्र अब कल ची बात हो चली है । आजादी के 75 वर्ष बाद,लगभग तीन पीढियां बीतने के बाद भी देश शत प्रतिशत साक्षर नही नहीं हो सका ,जनता को जाति,प्रांत, भाषा आदि के भेद में बाँटकर,आपस में लड़ाकर बेवजह के मुद्दों मे उलझाकर रखा गया । हम पिछड़ते गये,हमें अपने वास्तविक हित का भान तक नहीं होने दिया गया था। देश के बटबारे तक के दंश को भूलने का प्रयास करती आबादी अषने शोषकों के चंगुल से स्वयं को बाहर नहीं निकाल पा रही थी । राजनीतिक व्यवस्था पर लगातार जोंक, चमगाद्दर,लोमड़ी आदि जैसे स्वभाव की पकड़ बढती रही। हम शोषित होते रहे।
अब संचार के नये नये साधनों ने बहुरूपिया के नौटंकी को जनसामान्य के समक्ष उजागर कर दिया है। एक अलग तरह की दशा बनने लगी है। राष्ट्रीयता का एक अलौकिक उभार स्पष्ट दिखने लगा है। लोग स्वयं को राष्ट्र का अक्षुण अंग समझने लगे हैं। राष्ट्र के लिए स्वयं को संकल्पित करने लगे हैं । ऐसे में बिचौलियों के बल सरकार चलाने वाले ठगों ठेकेदारों के पेट मे दर्द का होना स्वभाविक है। ये सारी बाते भाजपा के पक्ष में जाती दिखती है। स्पष्ट है कि भाजपा अभी और ऊचाई की ओर बढने की दशा में दिख रही है। वहस 400 के पार की चल रही है किन्तु बहुत सम्भव है कि लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा गठबंधन के प्रत्याशी 450 से भी अधिक स्थानों पर अपना विजय तय ले। ऐसा अनुमान इस आधार पर लगाया जा सकता है कि वर्तमान सरकार का विरोध करने वाले दलों के पास बेतुक गाली बकने के अतिरिक्त और कोई मुद्दा नहीं है। मुसलमानों को डरा घमकाकर अपने पक्ष में रखने से ज्यादा और कुछ नहीं कर पा रही है विपक्ष। मुठ्ठी भर बिकाऊ लोगों को खरीद कर जनतंत्र को परास्त करने का सपना मूर्खता मात्र ही कहीं जा सकती है। अपना अस्तित्व बचाये रखने की कोशिस में जुटे दीमकों को भला यह राष्ट्र कब तक ढोती रहेगी ? जनशाही में सत्ता का विरोध करने का अधिकार है किन्तु विरोध नीतियों का हो, निर्णयों का हो तो उसे जनता का कुछ समर्थ भी मिल सकता है।
एक सामान्य व्यक्ति के सफलता और उस सफलता से बढते विशाल व्यक्तित्व का विरोध करने की भूल में लगे गिरोह को कौन अपना समर्थन देगा ? स्वयं को 139 वर्ष पुरानी कहने वाले पार्टी को 39 सीट भी मिलना सम्भव नहीं दिख रहा है। अपनी अपनी जाति मात्र को आधार मानकर भौकने वाले कुछ नेता सायद दो-चार गलियो, चौराहों पर अपनी बादशाहत सिद्ध करने में समर्थ हो जाय किन्तु लालकिला का प्राचीर तो फिर किसी शेर के दहाड़ का ही गवाही देगा। सज्जनों का जगना दुर्जनों के लिए सदैव से काल के समान रहा है। देश में सज्जनता उभार पर है। लोग राष्ट्रहित की बात समझने लगे है। देश -विदेश मे भारतीयता के गौरव का अलौकिक दृश्य दिखाई देते रहता है। लोग अब तीसरी नहीं बल्कि विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का सपना देखने लगे है। दोड़ में सबसे आगे निकलने का साहस फूटने लगा है। बस शत प्रतिशत मतदान हो और उसे राष्ट्रहित का मतलब समझ आ जाय !