जल के गहराते संकट से चिंता दिनों दिन बढ़ रही हैं। पानी की समस्या सबसे पहले भारत से महसूस होनी आरंभ हुई क्योंकि हमारे यहां दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा है जबकि देश के पास सिर्फ 4 प्रतिशत ही जल संसाधन मौजूद है।
नीति आयोग द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में मानसून और उस पर निर्भर जल संसाधनों का बुरा हाल है। सबसे ताजा उदाहरण हैदराबाद में 30 झीलों का सूख जाना है। पिछले वर्ष दिसंबर की प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक वहां 185 झीलों में से 30 के सूखने की सूचना मिली थी। कुछ झीलों पर अतिक्रमण भी कर लिया गया है। शेखपेट, कुकटपल्ली, मेडचल-मल्काजगिरी और कुतुबुल्लापुर की झीलें सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं, लेकिन ये संकट इससे भी कहीं ज्यादा भविष्य में बढ़ सकता है।
पूरे भारत में कई बड़ी नदियों के सूखने की सूचनाएं हैं। छोटी कई नदियों का तो अस्तित्व ही मिट गया है। पानी के वैज्ञानिक आंकड़ों को हमें समझना होगा। धरती का करीब तीन चौथाई हिस्सा पानी से भरा हुआ है पर उसमें से सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा ही पीने योग्य है और इस तीन प्रतिशत में से भी दो प्रतिशत बर्फ और ग्लेशियर है। इन स्थितियों के बाद भी लोग पानी का खुलेआम दोहन करते हैं. महत्व को नहीं समझे? तो बुरे अंजाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतने हांगे।
केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति होगी। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाए जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। पानी की जितनी कमी होती जाएगी, बिजली का उत्पादन भी कम होता जाएगा। इसलिए समय की दरकार यही है, पानी को बचाने के लिए जनजागरण और बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। इस काम में ईमानदारी से सभी को आहुति देनी होगी।
पानी के घटते विषय पर एक कहावत प्रचलित हुई है कि ‘बिन पानी सब सून’….इन शब्दों की गंभीरता को हमें समझना होगा? वक्त रहते अगर नहीं समझे? तो अंजाम अच्छे नहीं होंगे? बे-पानी होते समाज से कुछ उदाहरण भविष्य के लिए डराने लगे हैं। कई राज्यों में पानी उम्मीद से ज्यादा कम हो चुका है। हम सिर्फ राजस्थान के संबंध में ज्यादा जानते हैं कि वहां पानी की कमी है, जो रेगिस्तान बन चुका हैं। लेकिन दिल्ली जैसे राज्य भी बेपानी हो गए हैं। वहां पानी दो से ढाई सौ फिट नीचे पहुंच चुका है। ऐसी घटनाओं को हम लगातार इग्नोर कर रहे हैं। हिंदुस्तान के ऐसे इलाके जहां पानी की कभी बहुतायता हुआ करती थी। जैसे, तराई क्षेत्र, वहां की जमीन अब बंजर जैसी हो गई हैं। नमीयुक्त तराई क्षेत्र में कभी एकाध फिट के निचले भू-भाग में पानी निकलता था। लेकिन वहां का जलस्तर कइयों फीट नीचे खिसक गया है। इसके अलावा महाराष्ट्र, हरियाणा, यूपी व अन्य राज्यों के कुछ इलाकों का पानी वापस पाताल में समा चुका है। ये स्थिति मानव जीवन के सहेजने के लिए अच्छी नहीं है। कहते हैं कि जल है तो कल है। अगर पानी नहीं रहा तो जीवन नष्ट हो जाएगा। इसलिए सभी को पानी की बर्बादी आज से ही रोकनी होगी।
याद आता है, वर्षा जल संरक्षण के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने अभियान भी चलाया था, जो बाद में बेअसर साबित हुआ। यूं कहें कि जल संचयन और जलाशयों को भरने के तरीकों को आजमाने की परवाह उस दौरान ईमानदारी से किसी से नहीं की। समूचे भारत में 76 विशालकाय और प्रमुख जलाशय हैं जिनकी बदहाली चिंतित करती है। इन जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट रोंगटे खड़ी करती है। रिपोर्ट के मुताबिक एकाध जलाशयों को छोड़कर बाकी सभी मण्याम् स्थिति में हैं। उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय सूखने के एकदम कगार पर हैं।
किसी को कोई परवाह नहीं, सरकारें आ रही हैं और चली जा रही हैं। कागजों में योजनाएं बनती हैं और विश्व जल दिवस जैसे विषेश दिनों पर पानी सहेजने को लंबे-चैड़े भाषण होते हैं और अगले ही सबकुछ भुला दिए जाते हैं। इस परिवृति से बाहर निकलना होगा और गंभीरता से पानी को बचाने के लिए मंथन करना होगा, तभी समस्या का निदान होगा। वरना, वह कहावत कभी भी चरितार्थ हो सकती जो बेपानी पर कही गई है। कहावत है ’’रहिमन पानी राखिए, पानी बिन सब सून, पानी गये ना उबरे, मोती मानस सून‘‘ पानी बचाने और उसे सहजने को जो कुछ साधन हुआ भी करते थे, वह सब चौपट हो गए हैं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है। कोई एकाध दशक पहले तक छोटे-छोटे गांवों में नदी-नाले, नहर, पोखर और तालाब अनायास ही दिखाई पड़ते थे, वह अब नदारद हैं।