सनातन धर्म में नवीन चेतना के संचारक शंंकरावतार जगद्गुरू आदिशंकराचार्य*

भारतवर्ष में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की शक्तियां उभरने लगी थीं। वेदमत भी अनेक शाखाओं में बंट रहा था। कुछ लोग शैव, कुछ वैष्णव, कुछ शाक्त इत्यादि मतों के मानने वाले थे। कर्मकाण्ड अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। भारत में विभिन्न प्रकार के अनाचार बढ़ रहे थे। लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व ऐसे संक्रमण काल में सदाशिव भूतभावन शंकर के अवतार आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने अवतरित होकर देश में फैले वितण्डावाद को समाप्त कर अद्वैतवाद का प्रचार किया और सनातन वैदिक धर्म में नवीन चेतना का संचार किया।
दक्षिण प्रान्त केरल के कालाडी नामक ग्राम में शिवगुरू नाम के एक वैदिक ब्राह्मण निवास करते थे। अपने पिता की इच्छा से ही उन्होंने विवाह किया था। उनकी पत्नी आर्यम्बा भी धर्म की साक्षात प्रतिमा थी। प्रौढ़ावस्था में भी अपनी गोद सूनी देखकर दोनों ने दिन रात शिव की आराधना करनी शुरू कर दी। इसके फलस्वरूप उस दम्पति ने वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी को एक अत्यन्त कमनीय, अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न पुत्र की प्राप्त की जिसका नाम उन्होंने शंकर ही रखा। बालक शंकर श्रुतिधर थे वे जो कुछ पढ़ते सुनते उसकी वे तत्काल पुनरावृत्ति भी कर सकते थे। पांच वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार के बाद गुरूकुल में वे विद्याध्ययन के लिए गये। सात वर्ष की उम्र में ही शंकर उपनिषद, पुराण, इतिहास, धर्मशास्त्र, न्याय, सांख्य, पातंजल, वैशेषिक आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत होकर विद्वान हो गये।
एक बार गुरू गृह में रहते हुए नियमानुसार एक निर्धन ब्राह्मïणी के यहां भिक्षा मांगने गये। ब्राह्मणी ने अपनी असमर्थता प्रकट कर एक आंवला ही शंकर को दिया। उसकी निर्धनता से दुखी हो शंकर ने भोले भाले मन से मां लक्ष्मी की स्तुति की, जिसको कनकधारा स्रोत के नाम से सभी जानते हैं। शंकर की प्रार्थना पर लक्ष्मी ने ब्राह्मणी के भाग्य में धन न होते हुए भी उसके यहां सोने के आंवले के रूप में धन की वर्षा कर दी। इस चमत्कृत शक्ति को देख ग्रामवासियों ने शंकर का यशोगान किया। इसके बाद शंकर अपने घर आकर अपनी वृद्घा मां की सेवा करने लगे और प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखने लगे। अनेक विद्वान शंकर से समस्या समाधान कराने आते और कहते कि इसकी माता धन्य है जिसने इसे जन्म देकर और वैधव्य के होते हुए इतना सुयोग्य बनाया है। शंकर ने  मैं कौन हूं इसका विचार करते हुए आत्मबोध की रचना कर डाली।
एक दिन प्रात:काल माता के साथ शंकर नदी में नहाने गये। नहाते समय शंकर का एक मगर ने आकर पैर पकड़ लिया। शंकर ने रक्षा के लिए माता को पुकारा। सभी शंकर को बचाने का प्रयास करने लगे किन्तु मगर जल में खीचें ले जा रहा था। तब शंकर ने मां से सन्यास लेने की आज्ञा मांगी। विवश मां ने पुत्र को मुक्ति लाभ होने के लिए संन्यास की आज्ञा दे दी। शंकर को तभी मगर छोडक़र गहरे पानी में चला गया। शंकर ने मां से तीन प्रतिज्ञा करके तपस्या के लिए प्रस्थान किया कि मां की मृत्यु के समय शंकर उपस्थित होंगे, मां को ईश्वर का दर्शन करायेंगे तथा अपने हाथों से मां का अन्तिम संस्कार करेंगे। इसके बाद शंकर चलते-चलते दो महीने में नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर में आ गये और योगी गोविन्दपाद की गुफा में प्रवेश किया। गोविन्दपाद ने बाल संन्यासी शंकर को हठयोग, राजयोग, ज्ञान योग इत्यादि की शिक्षा दी। एक बार गुरू के समाधिस्थ होने पर नर्मदा नदी में बाढ़ आ गई और जल गुफा के अन्दर घुसने लगा तो शंकर ने एक घड़े को गुफा के दरवाजे पर रख दिया। देखते ही देखते किसी दैवीय शक्ति से जल घड़े में भरता गया और बाढ़ रूक गई। गोविन्दपाद को समाधि से जागने पर इस घटना का पता चला तो उन्होंने कहा कि मैंने अपने गुरू गौडपाद से पहले ही सुना था  कि शिव का अंशावतार होगा और एक कुंभ में नर्मदा के जल को प्रविष्टï करा देगा। अब यह शंकर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखेगा और संसार में अद्वैत वेदान्त की पताका फहरायेगा। यह कहकर गुरू गोविन्दपाद ने चिर समाधि ले ली। योग विधि से गुरू का जल संस्कार कर शंकर काशी पहुंचे और अनेक लोगों का मार्ग प्रशस्त किया। चोल देश का निवासी उनका प्रथम शिष्य बना। चाण्डाल रूप में भगवान शंकर ने छुआछूत के विचार को नष्ट करने के लिए दर्शन दिये और प्रत्यक्ष दर्शन देकर वितर्कवादी मतों का खंडन करने का आदेश दिया। इसके पश्चात भास्कर, अभिनव गुप्त, नीलकंठ प्रभाकर से शास्त्रार्थ किया। मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में मध्यस्थ मंडन की पत्नी उभयभारती बनी। दोनों के गले में फूलों की माला उन्होंने डाल दी कि जो हारेगा उसकी माला मुरझा जायेगी। अठारह दिन तक शास्त्रार्थ चला और मंडन मिश्र हार गए। इसी बीच व्यास और जैमिनी ऋषि के भी दर्शन हुए। मंडनमिश्र की अर्द्धांगिनी होने के कारण उभयभारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया और काम शास्त्र से संबंधित प्रश्र किये जिनका उत्तर, शंकराचार्य ने एक महीने का समय मांग कर योगबल से मृत राजा अमरूक के शरीर में प्रविष्ट होकर दिया। पति के हारने पर उभय भारती ने योगबल से शरीर त्याग दिया और मंडन मिश्र शंकराचार्य के शिष्य बने और सुरेशाचार्य कहलाये।
भ्रमण करते करते शंकराचार्य श्रीबलि नामक स्थान पर गये और प्रभाकर के पागल पुत्र को ज्ञान दिया और नाम रखा तोटकाचार्य। उनके प्रमुख चार शिष्य सनन्दन, सुरेशाचार्य, तोटकाचार्य और हस्तमलक, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष स्वरूप थे। अपनी माता के अन्तिम समय में योगबल से शंकराचार्य ने वहां पहुंचकर उन्हें ईश्वर दर्शन कराया और उनका अन्तिम संस्कार किया। केरल नरेश ने इनका सम्मान किया। शंकराचार्य ने अपनी चमत्कृत शक्ति से एक पंडित मंडली को एक समय में दो सभाओं में प्रकट होकर शास्त्रार्थ किया और हराया।
कश्मीर के शारदा पीठ मंदिर के चारों द्वारों के रक्षक विद्वानों ने शास्त्रार्थ किया तब स्वयं सरस्वती देवी ने शंकराचार्य को विजयी घोषित किया। तब शंकर सर्वज्ञपीठ पर अधीश्वर रूप में आसीन हुए। इसके बाद बदरी क्षेत्र में जाकर अपने गुरू के गुरू गौडपादाचार्य के दर्शन किये और जलमग्र नारायण की मूर्ति को निकालकर बदरीनारायण के नाम से स्थापित किया।
शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की इनमें वेदाध्ययन की व्यवस्था की जहां ज्ञान पिपासुओं को शिक्षा दी जाती थी। प्रहरी की भांति ये चारों मठ चारों सीमाओं की रक्षा रकते हुए आज भी हिन्दू धर्म की विजयध्वजा को फहरा रहे हैं। उन्होंने ज्योतिर्मठ में अथर्ववेद का प्राधान्य, गोवर्धन मठ में ऋग्वेद, श्रृंगेरी में यजुर्वेद और शारदामठ में सामवेद की प्रधानता रखी थी।
 शंकराचार्य जब केदारनाथ पहुंचे तो शिव ने प्रसन्न होकर अपने चरणों से गर्म जल का स्त्रोत प्रवाहित किया और जो गौरी कुण्ड के नाम से प्रसिद्घ है। शंकराचार्य की अल्पायु आठ से बढकर सन्यासी होने के कारण सोलह वर्ष हुई। महर्षि वेद व्यास के आशीर्वाद से सोलह से बत्तीस वर्ष हुई। अब बत्तीस वर्ष के होने पर शंकराचार्य का कार्य भी समाप्त हो गया था और उनकी भौतिक देह भी परमात्मा में विलीन हो गयी। उन्होंने गुरू प्रदत्त विद्या अपने शिष्यों को दी।
शंकराचार्य के अद्घेैतवाद से भारतवर्ष में ऐसी आंधी आई कि अनेक मतों को अपने साथ उड़ा ले गयी। सब जगह वेद सम्मत सनातन धर्म की शाश्वत पताका फहराने लगी। यदि शंकराचार्य न होते तो सनातन धर्म रसातल में चला जाता। उनके कठोर परिश्रम व त्याग से धर्मरूपी वृक्ष की जड़ ज्ञानामृत जल से सींची गयी है, जिससे वह आज भी हरी भरी है।
 आज भी वह धर्म रूपी वृक्ष मीठें फलों से शोभायमान हो रहा है। शंकराचार्य की ही कृपा से सनातन वैदिक धर्म को अभी भी प्रतिष्ठा मिल रही है। यदि शंकराचार्य न होते तो स्वार्थी लोगों की नीति के कारण दो चार हिन्दू शुतुरमुर्ग की तरह केवल चिडिय़ा घर में ही दिखाई देते।